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अपने सुख को ज्ञान का अनुयायी बनाओ


प्रश्नः हमें यह ज्ञान तो है कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं परंतु जब सम्मुख कोई प्रलोभन या आकर्षण आ जाता है तब ज्ञान के विपरीत आचरण होने लगता है । इसका क्या कारण है ?

उत्तरः जब तक ज्ञान और सुख एक साथ रहते हैं तब तक अनुचित आचरण नहीं होता । जब सुख ज्ञान से अलग हो जाता है और ज्ञान सुख के पीछे-पीछे चलने लगता है तब अनुचित आचरण होता है । इसको यों समझिये कि हम जानते तो हैं कि झूठ बोलना अनुचित है, पाप है, चोरी करना अनुचित है, पाप है परंतु झूठ बोलने से या चोरी करने से मुझे सुख मिलेगा’ यह कल्पना हो जाती है तो मन सुख के पक्ष में हो जाता है और ज्ञान का साथ छोड़ देता है । ज्ञान स्वामी है, सुख उसका सेवक है । जहाँ ज्ञान के अनुसार आचरण होगा वह सुख साथ-साथ चलेगा । परंतु जब सुख के पीछे-पीछे ज्ञान चलने लगता है तब ज्ञान अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं रहता, विपरीत हो जाता है अर्थात् अज्ञान हो जाता है । यही कारण है कि हमारे मन में सुख का पक्षपात भर गया है और ज्ञान के अनुसार जीवन में रुचि नहीं रही है । इस रुचि को उत्पन्न करने के लिए थोड़ा कष्ट सहकर भी अपने ज्ञान के अनुसार जीवन जीना चाहिए । सुख क्षणिक होता है । ज्ञान के विपरीत होने  पर तो वह दुःखदायी भी हो जाता है । अतः तपस्या, सहिष्णुता और निष्कामता के द्वारा अपने सुख को ज्ञान का अनुयायी बनाना चाहिए तब पाप के प्रलोभन और आकर्षण अपने अंतःकरण पर प्रभाव नहीं जमायेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 23 अंक 352

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…ऐसे लोग ही अधिकारी हैं – पूज्य बापू जी


श्री रामचरित ( उ.कां. 40.1 ) में आता हैः

परहित सरिस धर्म नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।

निर्नय सकल पुरान बेद कर । कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर1 ।।

1 विद्वज्जन ।

समस्त पुराणों व वेदों का सार यह है कि दूसरों का हित करने बराबर और कोई धर्म नहीं है और दूसरों का उत्पीड़न करने के बराबर और कोई अधमाई ( नीचता, पाप ) नहीं, अधर्म नहीं ।

दूसरों का हित अन्न खिलाकर भी किया जा सकता है, धन आदि का दान करके भी किया जा सकता है लेकिन दूसरों का परम हित तो उन्हें सत्संग और साधन-भजन के मार्ग पर लगा कर ही किया जा सकता है । उस परम हित के कार्य में जो लोग हाथ बँटाते हैं, तन-मन-धन को, साधनों को, जीवन को लगाते हैं वे लोग इस कलियुग में दान की महिमा को ठीक जानते हैं । कंजूस और पामरों का धन, तन-मन तुच्छ वस्तुओं में खत्म होता है लेकिन भाग्यशाली साधकों का, पुण्यात्माओं का तन-मन-धन, जीवन ईश्वर-काज में, आत्मज्ञान के रास्तों में, लोगों के जीवन में, भारतवासियों और विश्ववासियों के जीवन में आत्मप्रकाश फैलाने में ही खर्च होता है । वे सचमुच जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पाने के अधिकारी हो जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 17 अंक 352

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आज विश्व को अगर किसी चीज की जरूरत है तो… ( पूज्य बापू जी की सारगर्भित अमृतवाणी )


जीवन दुःख, क्लेश, मुसीबतों का बोझ बनाकर पिस मरने के लिए नहीं है, जीवन है आनंदित-उल्लसित होते हुए, माधुर्य भरते हुए, छिड़कते हुए, छलकाते हुए आगे बढ़ने के लिए । सबका मंगल हो, सबकी उन्नति हो, सबका कल्याण हो यही अपना लक्ष्य हो । इससे आपकी वृत्ति, आपकी बुद्धि और आपका हृदय विशाल होता जायेगा । आप व्यक्तिगत स्वार्थ को तिलांजलि दो ।

अगर कुटुम्ब का स्वार्थ सिद्ध होता है तो व्यक्तिगत स्वार्थ की परवाह मत करो, कुटुम्ब के भले के लिए अपने व्यक्तिगत भले को अलविदा करो । पूरे पड़ोस का बढ़िया भला होता है तो अपने कुटुम्ब के भले का दुराग्रह छोड़ो और पूरी तहसील का भला होता है तो पड़ोस के भले का दुराग्रह छोड़ो । जिले का भला होता है तो तहसील का दुराग्रह छोड़ो । अगर राज्य का भला होता है तो जिले का दुराग्रह छोड़ो । अगर देश का भला हो रहा है तो राज्य के भले का दुराग्रह छोड़ो और विश्व-मानवता का मंगल हो रहा है तो फिर ये सीमाएँ और भी विशाल बनाओ और विश्वेश्वर में आराम पाने की कला मिल रही है तो वह सर्वोपरि है, सर्वसुंदर है, मंगल-ही-मंगल है । जितना दायरा विशाल उतना व्यक्ति महान, जितना दायरा छोटा उतना व्यक्ति छोटा ।

जो नेता लोग जातिवाद का जहर फैलाकर अपनी रोटी सेंक लेते हैं वे भले 4 दिन की कुर्सी तो पा लेते हैं लेकिन देश के साथ विद्रोह करने का, मानव जाति के साथ विश्वासघात करने का भारी पाप करते हैं इसलिए उनका प्रभाव ज्यादा समय तक नहीं टिक सकता है । गांधी जी का प्रभाव क्यों ज्यादा टिका है ? गौतम बुद्ध का, महावीर स्वामी का, संत कबीर जी का, गुरु नानक जी का, साँईं श्री लीलाशाह ही का प्रभाव अब भी विश्वभर में क्यों है ? वे विश्वात्मा के साथ एकाकार होने की दिशा में चले थे और आप उससे एकाकार होने के लिए ही मनुष्य-तन पा सके हैं ।

गंगा जी कभी यह नहीं सोचतीं कि ‘गाय को तो अमृततुल्य पानी दूँ और शेर हरामजादा हिंसक है तो उसको विष मिलाकर दूँ । गंगा जी सबको समानरूप से शीतल पानी, प्यास बुझाने वाला मधुर जल देती हैं ।

‘काफिरों को तपाकर मार डालूँ और मुसलमानों को ही प्रकाश दूँ’ सूरज ऐसा नहीं करता । चाँद ऐसा नहीं करता कि ‘हिंदुओं को ही चाँदनी दूँ और मुसलमानों को वंचित रखूँ’, नहीं ।

भगवान के 5 भूत सभी के लिए हैं, अल्लाह, भगवान सभी के लिए हैं तो तुम्हारा हृदय भी सभी के लिए उदार हो, यह भारतीय संस्कृति का महान ज्ञान सभी के अंतःकरण में होना चाहिए ।

आज विश्व को बमों की जरूरत नहीं है, आतंक की जरूरत नहीं है, शोषकों की जरूरत नहीं है, विश्व को अगर जरूरत है तो भारतीय संस्कृति के योग की, ज्ञान की और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भाव की जरूरत है, विश्व में उपद्रव की नहीं, शांति की जरूरत है । अतः इस संस्कृति की सुरक्षा करना, इस संस्कृति में आपस में संगठित रहना यह मानव-जाति की, विश्वमानव की सेवा है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 2 अंक 352

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