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सुखी और प्रसन्न गृहस्थ जीवन के लिए… – पूज्य बापू जी ( श्री सीता नवमी 10 मई 2022 )


एक समय की बात है । दंडकारण्य में भगवान श्री रामचन्द्र जी और सीता जी बैठे थे । लक्ष्मण जी गये थे कंद-मूल आदि लेने । सीता जी की दृष्टि पड़ी उस विशाल वृक्ष पर जिसको छूती हुई एक लता ऊपर चढ़ी थी । सीता जी को अपने और राम जी के संबंध का सुमिरन हो आया । उनका हृदय गद्गद होने लगा । सीता जी कहती हैं- ‘प्रभु !…’

सीता जी अपने पति को ‘प्रभु’ बोलती हैं और प्रभु प्रेम से बोलते हैं- ‘सीते !…’

ऐसा नहीं कि पति कहेः ″इधर आ ! कहाँ भटक रही है ?″

पत्नी कहेः ″चल मुआ ! यह टुकड़ा खा, मैं जाती हूँ मायके ।″

पति-पत्नी हो कि डंडेबाज हो ! फिर बोलेंगेः ‘डाइवोर्स ( तलाक ) करो ।’ इससे कुछ नहीं होगा । जो हो गया सो हो गया । फेरे फिरे न, अब भोगो… चाहे रो के भोगो या हँस के भोगो पर प्रारब्ध को भोग के छूटो । वह कहती हैः ″मैं मायके जाती हूँ ।…″

यह कहता हैः ″मैं दूसरी लाता हूँ ।″ दूसरी लाने से भी कुछ नहीं होगा । और माई ! मायके जाने से भी कुछ नहीं होगा । तुम दोनों संयम करो तो सब अच्छा हो जायेगा । सदैव सम और प्रसन्न रहना ईश्वर की सर्वोपरि भक्ति है ।

सीता जी कहती हैं- ″प्रभु ! यह लता कितनी भाग्यशाली है कि इसको पेड़ का सहारा मिला है और ऊपर तक इसकी सुंदरता दिखती है । दूर के लोग भी इस लता का प्रभाव देखकर आह्लादित होते हैं ।″

राम जी समझ गये कि सीता क्या कहना चाहती है । एक-दूसरे को मान देने की आदत थी तो राम जी बोलते हैं- ″लता भाग्यशाली नहीं है सीते ! वृक्ष कितना भाग्यशाली है कि ऐसी पवित्र लता इस वृक्ष से जुड़ी है, तभी यह वृक्ष अन्य वृक्षों से निराला लग रहा है ।″

सीताजी कहती हैं- ‘लता भाग्यशाली है’, राम जी कहते हैं- ‘पेड़ भाग्यशाली है ।’ दोनों का आपस में झगड़ा हो गया । प्रेमी-प्रेमिका जैसा नहीं, सिया-राम जैसा झगड़ा । दोनों एक दूसरे को मान दे रहे हैं । इन दोनों का आपस में जरा मधुर, स्नेहयुक्त कलह चला । इतने में लक्ष्मणजी आ गये ।

सीता जी ने कहाः ″हम लोगों के झगड़े का निपटारा तो लखन भैया करेंगे ।″

राम जी ने कहाः ″लखन भैया ! बोलो, यह पेड़ भाग्यशाली है न ? और कई पेड़ हैं परंतु इतने सुंदर नहीं लगते । देखो, लता का सहयोग मिलने से पेड़ दूर तक अपना सौंदर्य बिखेर रहा है ।″

सीता जी बोलती हैं- ″भैया ! रुको, लता भाग्यशाली है न ? इसे पेड़ का सहारा मिला है तो देखो दूर तक अपनी शोभा बिखेर रही है, नहीं तो धरती पर ही पड़ी रहती ।″

लक्ष्मण जी भी कम नहीं थे, वे समझ गये कि यह पति-पत्नी का झगड़ा है। लक्ष्मण जी बोलते हैं- ″निर्णय करना अपने वश की बात नहीं है ।″

″नहीं-नहीं, तुम जो बोलोगे वह हम दोनों को स्वीकार है ।″

लक्ष्मण जी बोलते हैं- ″अगर आप मेरा निर्णय मानने को तैयार हैं तो मेरा निर्णय इन दोनों से अलग, तीसरा है । न लता भाग्यशाली है, न पेड़ भाग्यशाली है, भाग्यशाली तो लखनलाला है कि दोनों की छाया, महिमा और कृपा का आश्रय ले अपना जीवन उत्तम कर रहा है ।″

लक्ष्मण जी ने दोनों का आदर-मान कर दिया । यह गृहस्थ-जीवन में, परिवार में संयम से, सद्भाव से, निर्विकार पवित्र स्नेह से सुख और प्रसन्नता लाने की व्यवस्था है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 21, 25 अंक 352

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यह सुंदर व सरल साधना सभी का कल्याण करेगी – पूज्य बापू जी


सुबह नींद से उठो तो थोड़ी देर शांत हो जाओ । नींद में से उठते हैं तो वैसे ही शांति रहती है । उसके बाद चिंतन करो कि ‘जो सत्, चित् है, आनंदस्वरूप है और मेरे हृदय में फुरफुरा रहा है, जो सृष्टि की उत्पत्ति,  स्थिति और संहार का कारण है और मेरे शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है, उस सच्चिदानंद का मैं हूँ और वह मेरा है । ॐ शांति… ॐ आनंद… इस प्रकार तुम नींद में से उठ के लेटे-लेटे अथवा बैठ के शांत रहोगे तो मैं कहता हूं कि दो दिन की तपस्या से वह 2 मिनट की विश्रांति ज्यादा फायदा करेगी, पक्की बात है ! ऐसे ही रात्रि को सोते समय दिन में जो कुछ अच्छे भले काम हुए हों उनका फल ईश्वर को सौंप दो और गलती हो गयी हो तो कातर भाव से प्रार्थना कर लो । फिर लेट गये और श्वास अंदर जाय तो ॐ, बाहर आय तो 1… श्वास अंदर जाय तो शांति, बाहर आये तो 2… इस प्रकार श्वासोच्छ्वास की गिनती करते-करते सो जायें । इस प्रकार सोने से रात की निद्रा कुछ सप्ताह में योगनिद्रा बनने लगेगी । यह साधना दुःख निवृत्ति, परमात्मप्राप्ति में बड़ी सहायक है । ऐसी सुंदर और सरल साधना सभी जातियों का, सभी लोगों का जल्दी कल्याण करेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 23 अंक 352

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मैं वर्षगाँठ मनाने के पक्ष में नहीं भी हूँ और हूँ भी… पूज्य बापू जी


वर्षभर का हिसाब-किताब करने का दिन

वर्षगाँठ जीवन के बीते हुए वर्ष के आखिरी क्षणों और नये वर्ष की शुरुआत की संधि को बोलते हैं । वर्षगाँठ यह संदेशा लाती है कि ‘जो जिंदगी के दिन बीत गये वे तो चले गये, अब तुम्हारे पास हैं कितने दिन ?’

पहले के जमाने में नल नहीं थे । कुएँ में रस्सी के सहारे बाल्टी या लोटा डालते थे । रस्सी का हाथभर टुकड़ा हाथ में रह जाता था, बाकी सारी रस्सी और लोटा या बाल्टी कुएँ में पहुँच जाते थे । उस हाथभर रस्सी से गयी हुई रस्सी को खींचकर बाल्टी खींच लेते थे और पानी पीते, प्यास मिटाते थे । ऐसे ही जिंदगी की आयुरूपी काफी रस्सी खत्म हो गयी, काल के कुएँ में चली गयी, अब बाकी का जो छोर बचा है उसको सँभाल लें तो बीती हुई जिंदगी सार्थक हो जायेगी । अगर वह हाथ भर रस्सी ( शेष आयु ) हाथ से गयी तो सब गया, जीवन प्यासा ही रह गया ।

जीवन मिला है प्यास बुझाने के लिए और प्यास क्या है ? कि ‘मैं सदा सुखी रहूँ’ – यह मनुष्यमात्र की माँग है, प्यास है क्योंकि जो सदा रहने वाला तत्त्व है उससे आपका सनातन संबंध है ।

आदि सचु जुगादि सचु ।।

है भी सचु नानक होसी भी सचु ।।

शरीर के साथ आपका संबंध सदा नहीं है । कुछ वर्ष पहले अपना शरीर अपने पास नहीं था और कुछ वर्ष बाद यह नहीं रहेगा । यह छीज रहा ( क्षीण हो रहा ) है । तो वर्षगाँठ याद दिलाती है कि इतने वर्ष गये, अब आयुरूपी रस्सी का जो थोड़ा-सा टुकड़ा है उसको हम सँभालें, उसका सदुपयोग करें । जैसे व्यापारी दीवाली के दिनों में बहीखाता देखता है कि ‘किस चीज के व्यापार में फायदा हुआ और कौन-सी चीज पड़ी रही ?’ ऐसे ही वर्षभर में कौन-से कर्म करने से हम ईश्वर के, सच्चे-सुख के, चैतन्य के, ज्ञान के, आनंद के नजदीक गये और हमारे हृदय में कितना उस परमेश्वर-तत्त्व का अवतरण हुआ इसका हिसाब लगायें और आने वाले वर्ष में क्या-क्या  हम करेंगे यह निर्णय लें ।

जीवन की दिशा तय करने का संधिकाल

जीवन में दिशा होनी चाहिए । जीवन की दिशा हर वर्ष के लिए तय करने का जो संधिकाल है उसको बोलते हैं ‘वर्षगाँठ’ । यह तो परदेशियों के रीति-रिवाजों से प्रभावित होने से बुद्धि में कचरा घुस गया है कि ‘बासी केक काटकर जन्म दिवस मनाओ ।’ भोजन अग्नि पर बनने के 3 घंटे के अंदर खा लिया तो ठीक है, नहीं तो तामसी माना जाता है । वह आपकी बुद्धि व तबीयत को बिगाड़ने वाला होगा । केक कई घंटे पहले बना हुआ होता है और फिर उस पर मोमबत्ती जलाते हैं और फूँक मारते हैं तो फूँक के साथ थूक के कण भी गिरते हैं और अनेक जीवाणु भी केक पर जाते हैं, फिर वही लोगों खिलाते हैं, बोलते हैं- ‘हैप्पी बर्थ डे… हैप्पी बर्थ डे…’ वास्तव में यह रोने का दिन है । पूरा वर्ष कहाँ-कहाँ गया ? अगर अच्छा गया तो शांत होकर उस अच्छे को ( परमात्मा को ) धन्यवाद दो, अगर गलतियों में गया है तो रोकर प्रायश्चित करो कि ‘आने वाला वर्ष मेरा बढ़िया जाय’ और बढ़िया-में-बढ़िया जो परमात्मा है उसके नाते सबसे मिलो ।

इस निमित्त वर्षगाँठ मनाओ तो हम राजी हैं

वास्तव में मैं वर्षगाँठ मनाने के पक्ष में नहीं हूँ और मेरा विरोध भी नहीं है । पक्ष में क्यों नहीं हूँ कि जो पहले नहीं था बाद में नहीं रहेगा उस शरीर को ‘मैं’ मानकर वर्षगाँठ मनाते हैं- हैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे… ‘हैप्पी बर्थ डे क्या ? कुछ भी नहीं है । जो पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा उस शरीर के वर्ष मानकर खुशियाँ मना रहे हैं… अरे रोओ कि ‘एक साल और मृत्यु के नजदीक चले गये…’ यह खुशी मनाने का दिन नहीं है । और मेरा विरोध इसलिए नहीं है कि इस निमित्त ( पूज्य बापू जी के अवतरण दिवस के निमित्त ) लाखों करोड़ों साधकों में उत्साह आता है, हजारों साधक लाखों-करोड़ों लोगों की सेवा करने का कुछ निमित्त बना लेते हैं । 1400 से अधिक समितियाँ और 432 आश्रम हैं । अपने-अपने क्षेत्रों में बच्चे और बड़े कीर्तन करते-करते समिति के केन्द्रों पर आते हैं, गरीब गुरबे भी आते हैं । कहीं कोई समिति 200 को तो कोई 500 को तो कोई 2500 या 5000 को भोजन कराती है । सत्संग, साधना, भजन-कीर्तन, ध्यान करा के उत्सव मनाते हैं । कहीं सत्साहित्य बाँटते हैं, सत्संग आयोजन करवाते हैं तो कहीं निःशुल्क शरबत छाछ वितरण केन्द्र खोलते हैं । कहीं साइकिलें देते हैं तो कहीं माइयों को सिलाई की मशीनें देते हैं । कहीं अस्पतालों में मरीजों को फल, औषधि आदि देते हैं तो कहीं बच्चों में नोटबुकें, पेन, पेंसिल आदि बाँटते हैं कि ‘गुरुदेव का जन्मदिवस है ।’ इस प्रकार हजारों बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ रहे हैं और बड़ों का जीवन भी उन्नत हो रहा है  तो हम बोलते हैं- ″भाई ! अपने को घाटा भी नहीं है, होने दो कल्याण ।″

इस बहाने समिति के साधकों का, आश्रमवालों का, और साधक-शिष्यों का मन ईश्वर के चिंतन में जाता है । इधर-उधर, देश-परदेश में लोग सत्प्रवृत्ति कर रहे हैं तो इस बात से हम राजी भी हैं । नश्वर समय, नश्वर धन और नश्वर वस्तुओं का सदुपयोग करके शाश्वत उस अकाल पुरुष की यात्रा करते हैं तो हमें विरोध किस बात का ! हम इसमें राजी भी हैं ।

दुर्गुणनाशक है संत-संगति – संत निलोबा जी

संताचा वास जये स्थळीं ।…

…मदमत्सरां उरी नुरे ।।

जिस स्थान पर ब्रह्मनिष्ठ संतों का वास होता है वहाँ पाप नहीं रहते, वे नष्ट हो जाते हैं । काम-क्रोध का नाश हो जाता है, ममता-माया का बुरा हाल हो जाता है । तृष्णा और कल्पना का गाँव खाली हो जाता है और संदेह के लिए कोई जगह नहीं रहती । संतों की संगति होने पर वे अहंकार और मद मत्सर को हमारे अंतःकरण में रहने नहीं देते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 11, 12, 9 अंक 352

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