एक समय की बात है । दंडकारण्य में भगवान श्री रामचन्द्र जी और सीता जी बैठे थे । लक्ष्मण जी गये थे कंद-मूल आदि लेने । सीता जी की दृष्टि पड़ी उस विशाल वृक्ष पर जिसको छूती हुई एक लता ऊपर चढ़ी थी । सीता जी को अपने और राम जी के संबंध का सुमिरन हो आया । उनका हृदय गद्गद होने लगा । सीता जी कहती हैं- ‘प्रभु !…’
सीता जी अपने पति को ‘प्रभु’ बोलती हैं और प्रभु प्रेम से बोलते हैं- ‘सीते !…’
ऐसा नहीं कि पति कहेः ″इधर आ ! कहाँ भटक रही है ?″
पत्नी कहेः ″चल मुआ ! यह टुकड़ा खा, मैं जाती हूँ मायके ।″
पति-पत्नी हो कि डंडेबाज हो ! फिर बोलेंगेः ‘डाइवोर्स ( तलाक ) करो ।’ इससे कुछ नहीं होगा । जो हो गया सो हो गया । फेरे फिरे न, अब भोगो… चाहे रो के भोगो या हँस के भोगो पर प्रारब्ध को भोग के छूटो । वह कहती हैः ″मैं मायके जाती हूँ ।…″
यह कहता हैः ″मैं दूसरी लाता हूँ ।″ दूसरी लाने से भी कुछ नहीं होगा । और माई ! मायके जाने से भी कुछ नहीं होगा । तुम दोनों संयम करो तो सब अच्छा हो जायेगा । सदैव सम और प्रसन्न रहना ईश्वर की सर्वोपरि भक्ति है ।
सीता जी कहती हैं- ″प्रभु ! यह लता कितनी भाग्यशाली है कि इसको पेड़ का सहारा मिला है और ऊपर तक इसकी सुंदरता दिखती है । दूर के लोग भी इस लता का प्रभाव देखकर आह्लादित होते हैं ।″
राम जी समझ गये कि सीता क्या कहना चाहती है । एक-दूसरे को मान देने की आदत थी तो राम जी बोलते हैं- ″लता भाग्यशाली नहीं है सीते ! वृक्ष कितना भाग्यशाली है कि ऐसी पवित्र लता इस वृक्ष से जुड़ी है, तभी यह वृक्ष अन्य वृक्षों से निराला लग रहा है ।″
सीताजी कहती हैं- ‘लता भाग्यशाली है’, राम जी कहते हैं- ‘पेड़ भाग्यशाली है ।’ दोनों का आपस में झगड़ा हो गया । प्रेमी-प्रेमिका जैसा नहीं, सिया-राम जैसा झगड़ा । दोनों एक दूसरे को मान दे रहे हैं । इन दोनों का आपस में जरा मधुर, स्नेहयुक्त कलह चला । इतने में लक्ष्मणजी आ गये ।
सीता जी ने कहाः ″हम लोगों के झगड़े का निपटारा तो लखन भैया करेंगे ।″
राम जी ने कहाः ″लखन भैया ! बोलो, यह पेड़ भाग्यशाली है न ? और कई पेड़ हैं परंतु इतने सुंदर नहीं लगते । देखो, लता का सहयोग मिलने से पेड़ दूर तक अपना सौंदर्य बिखेर रहा है ।″
सीता जी बोलती हैं- ″भैया ! रुको, लता भाग्यशाली है न ? इसे पेड़ का सहारा मिला है तो देखो दूर तक अपनी शोभा बिखेर रही है, नहीं तो धरती पर ही पड़ी रहती ।″
लक्ष्मण जी भी कम नहीं थे, वे समझ गये कि यह पति-पत्नी का झगड़ा है। लक्ष्मण जी बोलते हैं- ″निर्णय करना अपने वश की बात नहीं है ।″
″नहीं-नहीं, तुम जो बोलोगे वह हम दोनों को स्वीकार है ।″
लक्ष्मण जी बोलते हैं- ″अगर आप मेरा निर्णय मानने को तैयार हैं तो मेरा निर्णय इन दोनों से अलग, तीसरा है । न लता भाग्यशाली है, न पेड़ भाग्यशाली है, भाग्यशाली तो लखनलाला है कि दोनों की छाया, महिमा और कृपा का आश्रय ले अपना जीवन उत्तम कर रहा है ।″
लक्ष्मण जी ने दोनों का आदर-मान कर दिया । यह गृहस्थ-जीवन में, परिवार में संयम से, सद्भाव से, निर्विकार पवित्र स्नेह से सुख और प्रसन्नता लाने की व्यवस्था है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 21, 25 अंक 352
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ