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जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाती है ‘गीता’


 

(श्रीमद् भगवद्गीता जयंती : १० दिसम्बर )

पूज्य बापूजी की सारगर्भित अमृतवाणी

‘यह मेरा ह्रदय है’ – ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा हो तो वह गीता का ग्रंथ है | गीता में ह्रदयं पार्थ | ‘गीता मेरा ह्रदय है |’ अन्य किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने यह नहीं कहा है कि ‘यह मेरा ह्रदय है |’

भगवान आदिनारायण की नाभि से हाथों में वेद धारण किये ब्रह्माजी प्रकटे, ऐसी पौराणिक कथाएँ आपने – हमने सुनी, कहीं हैं | लेकिन नाभि की अपेक्षा ह्रदय व्यक्ति के और भी निकट होता है | भगवान ने ब्रह्माजी को तो प्रकट किया नाभि से लेकिन गीता के लिए कहते हैं :

गीता में ह्रदयं पार्थ |गीता मेरा ह्रदय है |’

परम्परा तो यह है कि यज्ञशाला में, मन्दिर में, धर्मस्थान पर धर्म – कर्म की प्राप्ति होती है लेकिन गीता ने गजब कर दिया – धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे…. युद्ध के मैदान को धर्मक्षेत्र बना दिया | पद्धति तो यह थी कि एकांत अरण्य में, गिरि ० गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर योग प्रकट हो लेकिन युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया | परम्परा तो यह है कि शिष्य नीचे बैठे और गुरु ऊपर बैठे | शिष्य शांत हो और गुरु अपने – आपमें तृप्त हो तब तत्त्वज्ञान होता है लेकिन गीता ने कमाल कर दिया है | हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं | किंकर्तव्यविमूढ़ता से आक्रांत मतिवाला अर्जुन ऊपर बैठा है और गीताकार भगवान नीचे बैठे हैं | अर्जुन रथी है और गीताकार सारथी हैं | कितनी करुणा छलकी होगी उस ईश्वर को, उस नारायण को अपने सखा अर्जुन व मानव – जाति के लिए ! केवल घोड़ागाड़ी ही चलाने को तैयार नहीं अपितु आज्ञा मानने को भी तैयार ! नर कहता है कि ;दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को ले चलो |’ रथ को चलाकर दोंन सेनाओं के बीच लाया है | कौन ? नारायण ! नर का सेवक बनकर नारायण रथ चला रहा है और उसी नारायण ने अपने वचनों में कहा :

गीता में ह्रदयं पार्थ |

पौराणिक कथाओं में मैंने पढ़ा है, संतों के मुख से मैंने सुना है, भगवान कहते हैं : ‘मुझे वैकुण्ठ इतना प्रिय नहीं, मुझे लक्ष्मी इतनी प्रिय नहीं, जितना मेरी गीता का ज्ञान कहनेवाला मुझे प्यारा लगता है |’ कैसा होगा उस गीतकार का गीता के प्रति प्रेम !

गीता पढकर १९८५ – ८६ में गीताकार की भूमि को प्रणाम करने के  लिए कनाडा के प्रधानमंत्री मि. पीअर टुडो भारत आये थे | जीवन की शाम हो जाय और देह को दफनाया जाय उससे पहले अज्ञानता को दफनाने के लिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और एकांत में चले गये | वे अपने शारीरिक पोषण के लिए एक दुधारू गाय और आध्यात्मिक पोषण के लिए उपनिषद् और गीता साथ में ले गये | टुडो ने कहा है : ‘मैंने बाइबिल पढ़ी, एंजिल पढ़ी और अन्य धर्मग्रन्थ पढ़े | सब ग्रंथ अपने – अपने स्थान पर ठीक है किंतु हिन्दुओं का यह ‘श्रीमद् भगवद्गीता’ ग्रंथ तो अद्भुत है | इसमें किसी मत-मजहब, पंथ या सम्प्रदाय की निंदा – स्तुति नहीं है वरन् इसमें तो मनुष्यमात्र के विकास की बातें हैं | गीता मात्र हिन्दुओं का ही धर्मग्रन्थ नहीं हैं, बल्कि मानवमात्र का धर्मग्रन्थ है |’

गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कहीं | और उन्नति कैसी ? एकांगी नहीं, द्विअंगी नहीं, त्रिअंगी नहीं सर्वागीण उन्नति | कुटुम्ब का बड़ा जब पुरे कुटुम्ब की भलाई का सोचता है तब ही उसके बडप्पन की शोभा है | और कुटुम्ब का बड़ा तो राग –द्वेष का शिकार हो सकता है लेकिन भगवान में राग – द्वेष कहाँ ! विश्व का बड़ा पुरे विश्व की भलाई सोचता है और ऐसा सोचकर वह जो बोलता है वही गीता का ग्रंथ बनता है |

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||

‘दु:खों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार – विहार करनेवाले का, कर्मो में यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है |’ (गीता :६.१७ )

केवल शरीर का स्वास्थ्य नहीं, मन का स्वास्थ्य भी कहा है |

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: |

सुखद स्थिति आ जाय चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों | दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है | दृष्टि दिव्य बन जाय, फिर आपके सभी कार्य दिव्य हो जायेंगे | छोटे – से – छोटे व्यक्ति को अगर सही ज्ञान मिल गया और उसने स्वीकार कर लिया तो वह महान बन के ही रहेगा | और महान – से – महान दिखता हुआ व्यक्ति भी अगर गीता के ज्ञान के विपरीत चलता है तो देखते – देखते उसकी तुच्छता दिखाई देने लगेगी | रावण और कंस ऊँचाइयों को तो प्राप्त थे लेकिन दृष्टिकोण नीचा था तो अति नीचता में जा गिरे | शुकदेवजी, विश्वामित्रजी साधारण झोपड़े में रहते हैं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं लेकिन दृष्टिकोण ऊँचा था तो राम-लखन दोनों भाई विश्वामित्र की पगचम्पी करते हैं |

गुरु तेन पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान |  (श्री रामचरित, बा.कां.:२२६ )

विश्वामित्रजी जगें उसके पहले जगपति जागते हैं क्योंकि विश्वामित्रजी के पास उच्च विचार है, उच्च दृष्टिकोण है | ऊँची दृष्टि का जितना आदर किया जाय उतना कम है | और ऊँची दृष्टि मिलती कहा से है ? गीता जैसे ऊँचे सद्ग्रंथो से, सत्शास्त्रों से और जिन्होंने ऊँचा जीवन जिया है, ऐसे महापुरुषों से | बड़े – बड़े दार्शनिकों के दर्शनशास्त्र हम पढ़ते हैं, हमारी बुद्धि पर उनका थोडा – सा असर होता है लेकिन वह लम्बा समय नहीं टिकता | लेकिन जो आत्मनिष्ठ धर्माचार्य हैं, उनका जीवन ही ऐसा ऊँचा होता है कि उनकी हाजिरीमात्र से लाखों लोगों का जीवन बदल जाता है | वे धर्माचार्य चले जाते हैं तब भी उनके उपदेश से धर्मग्रंथ बनता है और लोग पढ़ते – पढ़ते आचरण में लाकर धर्मात्मा होते चले जाते हैं |

मनुष्यमात्र अपने जीवन की शक्ति का एकाग्र हिस्सा खानपान, रहन-सहन में लगाता ई और दो – तिहाई अपने इर्द-गिर्द के माहौल पर प्रभाव डालने की कोशिश में ही खर्च करता है | चाहे चपरासी हो चाहे क्लर्क हो, चाहे तहसीलदार हो चाहे मंत्री हो, प्रधानमंत्री हो, चाहे बहु हो चाहे सास हो, चाहे सेल्समैन हो चाहे ग्राहक हो, सब यही कर रहे हैं | फिर भी आम आदमी का प्रभाव वही जल में पैदा हुए बुलबुले की तरह बनता रहता है और मिटता रहता है | लेकिन जिन्होंने स्थायी तत्त्व में विश्रांति पायी है, उन आचार्यों का, उन ब्रह्मज्ञानियों का, उन कृष्ण का प्रभाव अब भी चमकता – दमकता दिखाई दे रहा है |

ऋषि प्रसाद अंक – २१५, नवम्बर – २०१० से

समत्वयोग की शक्ति व जीते जी मुक्ति की युक्ति देती है ‘गीता’ – पूज्य बापू जी


गीता जयन्ती – 2 दिसम्बर 2014

हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ।

सदगुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहिं ग्रंथ।।

सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जिसकी ‘श्रीमद् भगवदगीता’ के समान जयंती मनायी जाती हो। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कुरुक्षेत्र के मैदान में रणभेरियों के बीच योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्यमात्र को गीता के द्वारा परम सुख, परम शान्ति प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। गीता का ज्ञान जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति देने वाला है। गीता जयंती मोक्षदा एकादशी के दिन मनायी जाती है।

इस छोटे से ग्रंथ में जीवन की गहराइयों में छिपे हुए रत्नों को पाने की ऐसी कला है जिसे प्राप्त कर मनुष्य की हताशा-निराशा एवं दुःख-चिंताएँ मिट जाती है। गीता का अदभुत ज्ञान मानव को मुसीबतों के सिर पर पैर रख के उसके अपने परम वैभव को, परम साक्षी स्वभाव को, आत्मवैभव को प्राप्त कराने की ताकत रखता है। यह बीते हुए का शोक मिटा देता है। भविष्य का भय और वर्तमान की आसक्ति ज्ञान प्रकाश से छू हो जाती है। आत्मरस, आत्मसुख सहज प्राप्त हो जाता है। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप ! यह दिव्य अनुभव, अपने दिव्य स्वभाव को जगाने वाली गीता है। ॐॐ… पा लो इस प्रसाद को, हो जाओ भय, चिंता, दुःख से पार !

गीता भगवान के अनुभव की पोथी है। वह भगवान का हृदय है। गीता के ज्ञान से विमुख होने के कारण ही आज का मानव दुःखी एवं अशांत है। दुःख एवं शोक से व्याकुल व्यक्ति भी गीता के दिव्य ज्ञान का अमृत पी के शांतिमय, आनंदमय जीवन जीकर मुक्तात्मा, महानात्मा स्वभाव को जान लेता है, जो वह वास्तव में है ही, गीता केवल जता देती है।

ज्ञान प्राप्ति की परम्परा तो यह है कि जिज्ञासु किसी शांत-एकांत व धार्मिक स्थान में जाकर रहे परंतु गीता ने तो गजब कर दिया ! युद्ध के मैदान में अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति करा दी। अरण्य की गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर एकांत में ध्यानयोग प्रकट होता है परंतु गीता ने युद्ध के मैदान में ज्ञानयोग प्रकट कर दिया ! भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से अरण्य की विद्या को रणभूमि में प्रकट कर दिया, उनकी कितनी करूणा है !

आज के चिंताग्रस्त, अशांत मानव को गीता के ज्ञान की अत्यंत आवश्यकता है। भोग-विलास के आकर्षण व कूड़-कपट से प्रभावित होकर पतन की खाई में गिर रहे समाज को गीता ज्ञान सही दिशा में दिखाता है। उसे मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति, जीते जी ईश्वरीय शांति एवं अलौकिक आनंद की प्राप्ति तक सहजता से पहुँचा सकता है। अतः मानवता का कल्याण चाहने वाले पवित्रात्माओं को गीता-ज्ञान घर-घर तक पहुँचाने में लगना चाहिए।

वेदों की दुर्लभ एवं अथाह ज्ञानराशि को सर्वसुलभ बनाकर अपने में सँजोने वाला गीता ग्रंथ बड़ा अदभुत है ! मनुष्य के पास 3 ईश्वरीय शक्तियाँ मुख्य रूप से होती हैं। पहली करने की शक्ति, दूसरी मानने की शक्ति तथा तीसरी जानने की शक्ति। अलग-अलग मनुष्यों में इन शक्तियों का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। किसी के पास कर्म करने का उत्साह है, किसी के हृदय में भावों की प्रधानता है तो किसी को कुछ जानने की जिज्ञासा अधिक है। जब ऐसे तीनों प्रकार के व्यक्ति मनुष्य जन्म के वास्तविक लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो उन्हें उनकी योग्यता के अनुकूल साधना की आवश्यकता पड़ती है। श्रीमद भगवदगीता एक ऐसा अदभुत ग्रंथ है जिसमें कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग तीनों की साधनाओं का समावेश है।

लोकमान्य तिलक एवं गाँधीजी ने गीता से कर्मयोग को लिया, रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य आदि ने इसमें भक्तिरस को देखा तथा श्री उड़िया बाबा जैसे श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ताओं ने इसके ज्ञान का प्रकाश फैलाया। संत ज्ञानेश्वर महाराज, साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज एवं अन्य कुछ महापुरुषों ने गीता में सभी मार्गों की पूर्णता को देखा।

गीता किसी मत मजहब को चलाने वाले के द्वारा नहीं कही गयी है अपितु जहाँ से सारे मत मजहब उपजते हैं और जिसमें लीन हो जाते हैं उस आदि सत्ता ने मानवमात्र के कल्याण के लिए गीता सुनायी है। गीता के किसी भी श्लोक में किसी भी मत मजहब की निंदा-स्तुति नहीं है।

गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, समता, सरलता, स्नेह, शांति, धर्म आदि दैवी गुण सहज ही विकसित हो उठते हैं। अधर्म, अन्याय एवं शोषकों का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है। निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करने वाला, भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला यह गीता ग्रंथ पूरे विश्व में अद्वितिय है। अर्जुन को जितनी गीता की जरूरत थी उतनी, शायद उससे भी ज्यादा आज के मानव को उसकी जरूरत है। यह मानवमात्र का मंगलकर्ता ग्रंथ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 263

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सर्वांगीण शुद्धि द्वारा परम शुद्धि का साधनः गीता पूज्य बापूजी


गीता जयंतीः 23 दिसम्बर 2012

श्रीमद् भगवदगीता ने कमाल का भी कमाल कर दिया ! गीता यह नहीं कहती कि तुम ऐसी वेशभूषा पहनो, ऐसा तिलक करो, ऐसा नियम करो, ऐसा मजहब पालो। नहीं-नहीं, गीता (18-57) में आता है।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।

ʹसमबुद्धिरूप योग का अवलम्बन लेकर मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो।ʹ

बुद्धियोग से मेरी उपासना करके मेरे में चित्त लगाकर मेरे सुख को, आनंद को, माधुर्य को पा लो। गीता का ज्ञान जिसने थोड़ा भी पाया, बीते हुए का शोक सदा के लिए गया। जो बीत जाता है उसका शोक कर करके लोग परेशान हो रहे हैं। बेटा मर गया, 6 साल हो गये, अभी रो रहे हैं। पति मर गया, 3 साल हो गये, अभी रो रहे हैं। पत्नी मर गयी है, 5 साल हो गये, अभी भी रो रहे हैं, मूर्खता है।

बीते हुए का शोक गीता हटा देती है। भविष्य के भय को उखाड़ फेंकती है और वर्तमान की विडम्बनाओं को दूर कर गीता तुम्हें ज्ञान के प्रकाश से सम्पन्न बना देती है। तुम रस्सी को साँप, अजगर या और कुछ समझकर परेशान थे, ठूँठे को चोर, डाकू या साधु समझकर प्रभावित हो रहे थे अथवा विक्षिप्त हो रहे थे-यह सारी नासमझी गीता-ज्ञान के प्रकाश से हटा देती है।

गीता आपके जीवन में ज्ञान की शुद्धि, कर्म की शुद्धि और भाव की शुद्धि ले आती है। बस तीन की शुद्धि हो गयी तो आपका आत्मा और ईश्वर का आत्मा एक हो जायेगा, आप निर्दुःख हो जायेंगे। आप युद्ध करेंगे लेकिन कर्मबन्धन नहीं होगा। आप रागी जैसे लगेंगे किंतु अंदर से निर्लेप रहेंगे। आप खिन्न जैसे लगेंगे परंतु अंदर से बड़े शांत रहेंगे। ʹहाय सीते ! सीते ! हाय लक्ष्मण !ʹ करते हुए दिखते हैं रामजी लेकिन वसिष्ठजी के शुद्ध ज्ञान से रामजी वही हैं-

उठत बैठत ओई उटाने,

कहत कबीर हम उसी ठिकाने।

मृत्यु कब आये, कहाँ आये कोई पता नहीं इसलिए मौत आये उसके पहले अपना क्रियाशुद्धि, भावशुद्धि और ज्ञानशुद्धि का खजाना पा लेना चाहिए। मैं लंकापति रावण हूँ… आग लगी तेरे अहंकार को ! ज्ञान की अशुद्धि हो गयी। ब्राह्मण थे, पुलस्त्य कुल में पैदा हुए थे। भाव की अशुद्धि हो गयी सीता जी को ले आये। कर्म की अशुद्धि हो गयी, करा-कराया चौपट हो गया। शबरी भीलन को मतंग ऋषि का सत्संग मिला है, ज्ञान की शुद्धि है। ʹतुमको कोई मिटा नहीं सकता और शरीर को कोई टिका नहीं सकताʹ – यह शुद्ध ज्ञान है। लेकिन अमिट (आत्मा) मिटने  वाले शरीर को ʹमैंʹ मानकर मृत्यु के भय से डर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान की शुद्धि करते हुए कहाः

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

ʹजैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नये शरीरों को प्राप्त होता है।ʹ (गीता 2-22)

अतः मृत्यु से डरो मत और डराओ मत। डरने से तुम जीवित नहीं रहोगे, बुरी तरह मरोगे लेकिन निर्भय होने से अच्छी तरह से अमरता की यात्रा करोगे।

एक सवाल पूँछूँगा, जवाब जरूर दोगे।

एक किलो रूई है। उसको जलाना हो तो कितनी दियासिलाई लगेंगी ? एक। अगर 10 किलो रूई जलानी हो तो 10 दियासिलाइयाँ लगेंगी क्या ? हजार किलो या लाख किलो रूई कोक जलाना हो तो दियासिलाइयाँ कितनी लगेंगी ? सौ लगेंगी ? लाख लगेंगी ? दो लगेंगी ? नहीं, एक ही काफी है। ऐसे ही कितने जन्मों के कर्म हों, कितने ही पाप-ताप हों, नामझी और ज्ञान की अशुद्धि हो किंतु एक बार गुरुमंत्र मिल गया और लग गये आत्मज्ञान के रास्ते तो बेड़ा पार हो जायेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं-

यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मात्कुरुतेर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।

ʹहे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।ʹ (गीताः 4.37)

अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः….

यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, दुराचारियों में आखिरी नम्बर का है, सर्वज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि। तो भी तू गुरु के ज्ञान की नाव में बैठकर निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा। फिर पानी 50 फुट गहरा हो चाहे 5 हजार फुट गहरा हो, तू बेड़े में बैठा है तुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।

श्रीकृष्ण चाहते हैं कि आपकी समझ की शुद्धि हो, ज्ञान की शुद्धि हो – मरने वाले शरीर को ʹमैंʹ मत मानो, यह ʹमेराʹ शरीर है। बदलने वाला मन है, चिन्तन करने वाला चित्त है, इस सबको देखने वाला ʹमैंʹ हूँ।

हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप।

सारी परिस्थितियाँ आ आकर बदल जाती हैं, मौत भी आकर चली जाती है। इसलिए ज्ञान की शुद्धि करो। जल्दी मरने की जरूरत नहीं है और मरने वाले शरीर को अमर करने के चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है। न मरने वाले को अमर करो, न मरने वाले को परेशान करके जल्दी मरो। स्वस्थ जीवन, सुखी जीवन, सम्मानित जीवन का प्राकृतिक नियम जान लो।

भाव की शुद्धि, कर्म की शुद्धि और ज्ञान की शुद्धि पर गीता ने बड़ा भारी जोर दिया है। तुम्हें ईश्वर को बनाना नहीं है, ईश्वर के पास जाना नहीं है, ईश्वर को बुलाना नहीं है। कण-कण में क्षण-क्षण में अंतरात्मा ईश्वर है। उसका आनंद, उसका सामर्थ्य, उसका ज्ञान हँसते-खेलते पाना है। ऐसा गीताकार ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को अनुभव करा दिया है।

जगत में कर्म की प्रधानता है इसलिए कर्म को ऐसे करो कि करने का अहं नहीं, लापरवाही नहीं, हलकी वासना नहीं। दूसरों के भले के लिए, भगवान की प्रसन्नता के लिए किया गया आपका कर्म ʹकर्मयोगʹ हो जायेगा।

ज्ञान की शुद्धि तत्त्वज्ञान से होती है। मरने वाला शरीर मैं नहीं हूँ। बदलने वाला मन मैं नहीं हूँ। इन सबकी बदलाहट को जो जानता है ʹʹૐʹ उसमें शांत होना सीखो। जितने शांत होते जाओगे उतने ईश्वरीय प्रेरणा और ईश्वरीय सामर्थ्य के धनी होते जाओगे।

भगवान कहते हैं- तुम्हारे ज्ञान को तत्त्वज्ञान से दिव्य करो। भगवान के सत्संग से और ध्यान से तुम्हारी भावनाओं को शुद्ध करो और धर्म के नियम से तुम्हारे कर्मों को शुद्ध करो।

गीता का धर्म, गीता की भक्ति और गीता का ज्ञान ऐसा है कि वह प्रत्येक समस्या का समाधान करता है। जब गीता का अमृतमय ज्ञान मिल जाता है, तब सारी भटकान मिटाने की दिशा मिल जाती है, ब्रह्मज्ञान को पाने की युक्ति मिल जाती है और वह युक्ति मुक्ति के मंगलमय द्वार खोल देती है। कितना ऊँचा ज्ञान है गीता का !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अँक 240

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