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सेवा व भक्ति में लययोग नहीं चल सकता


अयोध्या में एक बार संतों की सभा हो रही थी । एक सज्जन हाथ में बड़ा पंखा लेकर संतों को झलने लगे । पंखा झलते समय उनके मन में विचार आया, ‘आज मेरे कैसे सौभाग्य का उदय हुआ है ! प्रभु ने कितनी कृपा की है मेरे ऊपर कि मुझे इतने संतों के मध्य खड़े होकर इनके दर्शन तथा सेवा का अवसर मिला है !’ इस विचार के आने से उनके शरीर में रोमांच हुआ । नेत्रों में आँसू आये और विह्वलता ऐसी बढ़ी कि पंखा हाथ से छूट गया । वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े । कुछ साधुओं ने उन्हें उठाया । बाहर ले जाकर मुख पर जल के छींटे दिये । सावधान होने पर उन्होंने फिर पंखा लेना चाहा तो साधुओं ने रोकते हुए कहाः “तुम आराम करो । पंखा झलने का काम सावधान पुरुष का है । तुमने तो सत्संग में विघ्न ही डाला ।”

सेवा लीन होने के लिए नहीं है । लययोग के ध्यान में अपने को सुख मिलता है, प्रियतम (प्रभु) को सुख नहीं मिलता । अतः सेवा व भक्ति में लययोग नहीं चल सकता ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 332

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गौण और मुख्य अर्थ में सेवा क्या है ?


सांसारिक कर्तव्यपूर्ति मोह के आश्रित एवं उसी के द्वारा प्रेरित होने से गौण कर्तव्यपूर्ति कही जा सकती है, मुख्य कर्तव्यपूर्ति नहीं । अतः वह गौण या स्थूल अर्थ में ‘सेवा’ कहलाती है, मुख्य अर्थ में नहीं । वेतन लेकर रास्ते पर झाड़ू लगाने  वाली महिला का वह कार्य नौकरी अथवा ‘डयूटी’ कहलाता है सेवा नहीं । घर में झाड़ू लगाने वाली माँ या बहन की वह कर्तव्यपूर्ति गौण अर्थ में सेवा कहलायेगी ।  परंतु शबरी भीलन द्वारा गुरु मतंग ऋषि के आश्रम परिसर की झाड़ू बुहारी वेतन की इच्छा या पारिवारिक मोह से प्रेरित न होने के कारण एवं ‘सत्’ की प्राप्ति के उद्देश्यवश मुख्य अर्थ में सेवा कहलायेगी और यही साधना-पूजा भी मानी जायेगी । यहाँ तीनों महिलाओं की क्रिया बाह्यरूप से एक ही दिखते हुए उद्देश्य एवं प्रेरक  बल अलग-अलग होने से अलग-अलग फल देती है ।

पहली महिला को केवल वेतन मिलता है, माता या बहन को पारिवारिक कर्तव्यपूर्ति का मानसिक संतोष और परिवार के सदस्यों का सहयोग मिलता है परंतु शबरी भीलन को अपने अंतरात्मा की तृप्ति-संतुष्टि, अपने उपास्य ईश्वर के साकार रूप के दर्शन व ईश्वरों के भी ईश्वर सच्चिदानंद ब्रह्म का ‘मैं’ रूप में साक्षात्कार भी हो जाता है । प्रथम दो के कर्तव्य में परमात्म-भाव, परमात्म-प्रेम एवं परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य की प्रधानता न होने से बंधन बना रहता है किंतु शबरी भीलन की सेवा में कर्म करते हुए भी वर्तमान एवं पूर्व के कर्मों के बंधन से मुक्ति समायी हुई है । अतः केवल ईश्वरप्राप्ति के लिए, ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए अद्वैत वेदांत के सिद्धान्त के अनुसार सर्वात्मभाव से, ‘मेरे सद्गुरुदेव, मेरे अंतर्यामी ही तत्त्वरूप से सबके रूप में लीला-विलास कर रहे हैं’ इस दिव्य भाव से प्रेरित हो के जो सेवा की जाती है वही पूर्ण अर्थ में सेवा है, निष्काम कर्मयोग है । अतः पूज्य बापू जी की प्रेरणा से देश-विदेशों में संचालित समितियों का नाम है ‘श्री योग वेदांत सेवा समिति’ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 326

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दो के पीछे तीन और तीन के पीछे आते ये छः सद्गुण-पूज्य बापू जी


श्रद्धा और सेवा – ये दो सद्गुण ऐसे हैं कि चित्त में आनंद प्रकटा देते हैं शांति प्रकटा देते हैं । श्रद्धा और सेवा से ये और भी तीन गुण आ जायेंगे – उद्योगी, उपयोगी और सहयोगी पन ।

जो भी व्यक्ति उद्योगी, उपयोगी और सहयोगी बनकर रहता है, वह यदि नहीं है तो उसका अभाव खटकेगा । आलसी, अनुपयोगी, असहयोगी व्यक्ति आता है तो मुसीबत होती है और जाता है तो बोले, ‘हाऽऽश….! बला गयी ।’ और उद्योगी, उपयोगी, सहयोगी व्यक्ति आता है तो आनंद होता है और जाता है तो बोलते हैं कि ‘अरे राम !…. क्यों जा रहे हो ! कब आओगे ? फिर आइये ।’ तो जीवन अपना ऐसा होना चाहिए । इन तीन गुणों में वह ताकत है कि इनके होने से 6 दूसरे गुण बिन बुलाये आ जायेंगे । उद्यम आ जायेगा, साहस और धैर्य आयेगा, बुद्धि विकसित हो जायेगी, शक्ति का एहसास होगा और जीवन पराक्रमी बन जायेगा ।

तो शास्त्र का वचन हैः

उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः ।

षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत ।।

ये 6 सद्गुण आ गये तो पद-पद पर परमात्मादेव सहायता करते हैं । ये 6 गुण जिसमे भी हैं उसके पास डिग्रियाँ हैं तो भी ठीक है और कोई डिग्री नहीं है तो भी ठीक है । ये गुण बिना डिग्री वाले को भी सफल बना देंगे ।

तो अपनी योग्यता डिग्रियों से जो कुछ होती है, वह होती है लेकिन वास्तव में इन सद्गुणों से ही योग्यता का सीधा संबंध आत्मशक्तियों से जुड़ जाता है । फिर डिग्री है तो ठीक है और नहीं है तो उस व्यक्ति का महत्त्व कम नहीं है ।

तो जीवन उद्यमी, उपयोगी और सहयोगी होना चाहिए । ऐसा परहितकारी व्यक्ति हर क्षेत्र में सफल हो जायेगा । और फिर उसमें ईश्वर का, धर्म का और सद्गुरु का सम्पुट मिल जाय तो जीवन सफल हो जाय । फिर तो वह तारणहार, जन्म-मरण से पार करावनहार महापुरुष बन जायेगा ।

उद्योग तो रावण भी करता था, हिटलर, सिकंदर ने भी उद्योग किया लेकिन वह दूसरों को अशांति देने वाला, स्वयं का पतन करने वाला उद्योग था । उद्योग ऐसा हो कि जिसका बहुजनहिताय उपयोग हो और सहयोग हो, जिससे आत्मशांति के, सत्यस्वरूप आत्मा के ज्ञान के करीब व्यक्ति आये । व्यक्ति जितना सत्यस्वरूप आत्मा के ज्ञान के करीब आयेगा उतना संसार का आकर्षण कम होता जायेगा ।

सत्संग से ऐसे सदगुण मिल जाते हैं कि बड़ी-बड़ी डिग्रियों वालों से भी सत्संगी आगे निकल सकते हैं । रामकृष्ण परमहंस के पास संत तुकाराम महाराज के पास कोई खास पढ़ाई की डिग्री नहीं थी, संत कबीर जी के पास कोई डिग्री नहीं थी लेकिन कबीर जी पर शोध-प्रबंध लिखने वाले अनेक लोगों ने डॉक्टर की उपाधि पा ली है । तुकाराम जी के अभंग, रामकृष्णजी के वचनामृत एम. ए. की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाये जाते हैं….. तो उनमें कितना बुद्धिमत्ता आ गयी !

उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम ये सदगुण विकसित करो लाला-लालियाँ ! पद-पद पर अंतरात्मा-परमात्मा का सहयोग मिलेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 20 अंक 325

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