Tag Archives: Tatva Gyan

Tatva Gyan

अपने हृदय को आत्मज्ञान का कवच चढ़ा लो – पूज्य बापू जी


अपने को खोजो तो ईश्वर मिलेगा और ईश्वर को खोजो तो अपना आपा मिल जायेगा – ऐसा है । जो कभी नहीं मरता वह ईश्वर है । अब खोजो ‘कौन नहीं मरता ?’ शरीर मरने के बाद भी जो मरता नहीं है वह कैसा है ? कहाँ है ?’ खोजो । सुख-दुःख आया तो खोजो ‘किसको हुआ ?’ इसने दुःख दिया, इसने सुख दिया…. ऐसा तो अल्प मति के लोग मानते हैं । अरे ! सारा संसार सुख-दुःख के ताने-बाने से ही चलता है । राग-द्वेष से, निंदा-स्तुति से ही सारे संसार का खेल है । इसी में से खिलाड़ी (साक्षी आत्मस्वरूप) को समझ के अपना छक्का मार के पार हो जाओ । सदा किसी को सुख नहीं मिलता, सदा किसी को दुःख नहीं मिलता । सदा कोई शत्रु नहीं रहते, सदा कोई मित्र नहीं रहते – यह सब होता रहता है । कोई तरंग सदा चलती है क्या ? और बिना तरंग के दरिया होता है क्या ? तरंग जहाँ है, है और दरिया गहराई में ज्यों-का-त्यों है । ऐसे ही आपका आत्मा भी गहराई में ज्यों-का-त्यों है । मन की तरंगों में संसार की सब आपा-धापी-हइशो-हइशो… चलती रहती है । ‘ऐसा हो जाये, वैसा हो जाये…’ इस झंझट में मत पड़, यह तो चलता रहेगा । भगवान के पिताश्री भी संसार को ठीक नहीं कर सके । भगवान आये उस समय भी संसार ऐसा-वैसा था, अब भी ऐसा-वैसा है… यह तो चलता रहेगा । ऐसा हो जाय तो अच्छा… इसमें मत पड़ । तू तो अपने पैरों में जूते पहन ले बस ! सारे जंगल में से काँटे-कंकड़ हट जायें यह सम्भव नहीं है लेकिन अपने पैरों में जूते पहन ले तो तुझे काँटे-कंकड़ न लगेंगे ! ऐसे ही अपने हृदय को आत्मज्ञान का कवच चढ़ा ले तो तुझे  संसार के काँटे-कंकड़ न चुभेंगे, बस !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 345

ज्ञानी का कर्तव्य नहीं स्वनिर्मित विनोद होता है – पूज्य बापू जी


एक श्रद्धालु माई मिठाई बना के लायी और मेरे को दे के बोलीः ″कुछ भी करके साँईं (पूज्य बापू जी के सद्गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) खायें ऐसा करो, हमारी मिठाई पहुँचती नहीं वहाँ ।″

मैंने ले ली । डीसा में साँईं आये थे । सुबह-सुबह सत्संग  हुआ तो कुछ गिने-गिनाये साधकों के बीच था । तो साँईं ने पूछाः ″क्या हुआ ?″

मैंने उसकी मिठाई और प्रार्थना श्रीचरणों में निवेदित की ।

साँईं बोलेः ″अब ले आओ भाई ! जो भाग्य है, भोग के छूटेंगे और क्या है ! लाओ, थोड़ा खा लें ।″

अब खा रहे हैं, ‘बढ़िया है ।’ बोल भी रहे हैं लेकिन कोई वासना नहीं है । खा रहे हैं परेच्छा-प्रारब्ध से (परेच्छा = पर इच्छा, दूसरों की इच्छा), मिल लिया परेच्छा से । अपने जो भी सत्संग-कार्यक्रम होते हैं, मैं उनके बारे में खोज-खोज के थक जाता हूँ कि ‘मेरी इच्छा से तो कोई कार्यक्रम तो नहीं कर रहा हूँ ?’  नहीं, लोग आते हैं – जाते हैं, उनकी बहुत इच्छा होती है तब परेच्छा-प्रारब्ध से कार्यक्रम दिये जाते हैं । आज तक के सभी कार्यक्रमों पर दृष्टि डाल के देख लो, कोई भी कार्यक्रम मैंने अपनी इच्छा से दिया हो तो बताओ । विद्यार्थियों के लिए होता है कि चलो, सुसंस्कार बँट जायें’ वह भी इसलिए कि उनकी इच्छाएँ होती हैं, उनके संकल्प होते हैं । या जो ध्यानयोग शिविर देता हूँ और मेरी सहमति होती है तो शिविर के लोगों की भी पात्रता होती है, उनका पुण्य मेरे द्वारा यह करवा लेता है । मैं ऐसा नहीं सोचता कि ‘चलो, शिविर करें, लोग आ जायें, अपने को कुछ मिल जाये, अपना यह हो जाय… या ‘चलो, सारा संसार पच रहा है, इस बहाने लोगों को थोड़ा बाहर निकालें ।’ ऐसा नहीं होता मेरे को ।

संत लोग कहते हैं कि ‘लोकोपकार, लोक-संग्रह यह ज्ञानी (आत्मज्ञानी) का कर्तव्य नहीं है, स्वनिर्मित विनोद है ।’ ऐसा नहीं कि संतों का कर्तव्य है कि समाज को ऊपर उठायें । कर्तव्य तो उसका है जिसको कुछ वासना है, कुछ पाना है । जो अपने-आप में तृप्त है उनका कोई कर्तव्य नहीं है । शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ तब तक कर्तव्य है । जब तक शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ, अपने ‘मैं’ का ज्ञान नहीं हुआ, तब तक वह अज्ञानी माना जाता है । तो

जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान ।

जब तक कर्तव्यता दिखती है तब तक अज्ञान मौजूद है, ईश्वर के तात्त्विक स्वरूप का ज्ञान (निर्विशेष ज्ञान) नहीं हुआ । ईश्वर का दर्शन भी हो जाय तब भी यदि निर्विशेष ज्ञान नहीं हुआ तो कर्तव्य मौजूद रहेगा । ईश्वर के दर्शन – कृष्ण जी, राम जी, शिवजी के दर्शन के बाद भी निर्विशेष शुद्ध ज्ञान – तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की जरूरत पड़ती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सर्व दुःखों की निवृत्ति व परमानंद की प्राप्ति कैसे हो ? – पूज्य बापू जी


आत्मसाक्षात्कार का अर्थ क्या होता है ? कि सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति और परमानंद की प्राप्ति । जिससे बढ़कर कोई आनंद नहीं, कोई ऊँचाई नहीं उसकी प्राप्ति को बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार !

तो क्या इस उपलब्धि के बाद भूख नहीं लगेगी ? बुखार नहीं आयेगा ?

भूख या बुखार मिटाना आत्मानुभव का फल नहीं है, ‘भूख मुझे लगी है, बुखार मुझे आया है, मैं बूढ़ा हो गया हूँ, वाहवाही या निंदा मेरी होती है…’ इस प्रकार का अज्ञान मिटाने का नाम है आत्मानुभव । तुम आत्मसाक्षात्कार कर लो फिर भी शरीर के प्रारब्ध से, वातावरण से यह-वह… बाहर का प्रभाव होगा । अज्ञानी, जिसको ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई उसको और जिनको ईश्वर की प्राप्ति हुई है उन ज्ञानी को, दोनों को बाहर का प्रभाव तो बराबर होगा परंतु साधारण व्यक्ति बाहर के प्रभाव में बह जायेगा और ज्ञानी समझेंगे कि ‘यह शरीर को हुआ, मन को हुआ…’ अपने स्वरूप में उनको दुःख नहीं होता ।

खिन्नोऽपि न च खिद्यते ।

वे खिन्न होते हुए भी हृदय में शांत रह सकते हैं । क्रोध करते हुए भी पूर्ण शांति में विराजते हैं ।

‘हाय हाय ! मेरा बेटा मर गया, अब मेरा जीना मुश्किल है !’ ऐसा करके वसिष्ठ जी गंगा किनारे आत्महत्या (ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के लिए तो सारा व्यवहार विनोदमात्र है किंतु जो तन-मन को मैं मानकर प्रकृति के राज्य में जीते हैं उनके लिए तो आत्महत्या महापाप है ।) करने जा रहे हैं, ज्यों कूदे त्यों गंगा जी का जल-स्तर नीचे हो गया फिर आगे चले और पत्थर बाँधने के कूदने गये तो गंगा जी प्रकट हो गयीं ।

बोलीं- ″महाराज ! आप जैसे आत्मसाक्षात्कारी, ज्ञानी पुरुष अगर पुत्र-शोक में आकर आत्महत्या करेंगे तो मुझे पाप लगेगा । आपके चरणों में हम तीर्थ मनुष्य का रूप लेकर सत्संग सुनने को आते हैं । अब आप आत्महत्या कर रहे हैं तो…″

वसिष्ठजी बोलेः ″अरे बच्ची ! तू क्या मेरे को उपदेश देती है ! मैं आत्महत्या करता हूँ ? आत्महत्या का भाव चित्त में आया, चित्त प्रकृति का है, मैं तो करोड़ों शरीरों में हूँ । मैं क्यों मरूँगा ?″

लो कैसी समझ है !

अन्तर्विकल्पशून्यस्य बहिः स्वच्छन्दचारिणः ।

भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते ।।

‘जो भीतर से तो विकल्प शून्य है और बाहर से भ्रांत-पुरुष के समान स्वच्छंद आचरण करता है, उसकी उन-उन अनिर्वचनीय अवस्थाओं को वैसे लोग (ब्रह्मवेत्ता महापुरुष) ही जानते हैं ।’

आत्मज्ञानी तुरीय अवस्था में पहुँच जाते हैं

जिन्होंने अपने को जान लिया है वे कभी देह से एकाकार होकर सामान्य जनों की नाईं व्यवहार करते भी हैं तो भी फिर तुरन्त अपने आत्मा में चले जाते हैं । जिन्होंने नहीं जाना है वे कहाँ जायेंगे ? घूम-फिर के देह में ही तो आयेंगे या तो रजोगुण में आयेंगे या तो तमोगुण में आयेंगे – बस 3 ही जगहें हैं उनके लिए । आत्मज्ञानी की चौथी अवस्था है – तुरीय अवस्था ।

यह अभी जाग्रत अवस्था है, फिर रात को स्वप्न अवस्था होती है, गहरी नींद सुषुप्ति होती है । सुषुप्ति बाद फिर जाग्रत अवस्था होती है लेकिन आत्मज्ञानी तुरीय अवस्था में पहुँच जाते हैं ।

यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं ।

तद्ब्रह्मा निष्कलमहं न च भूतसङ्घः ।।

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि आते हैं, चले जाते हैं परंतु जो उन सबमें रहता है वही अमर आत्मा है, ज्ञानस्वरूप है, उसका कभी जन्म नहीं होता इसलिए उसकी मृत्यु भी नहीं है । वृत्ति-ज्ञान उत्पन्न होता है, नष्ट होता है परंतु शुद्ध ज्ञान जो है – आत्मा, वह ज्यों का त्यों रहता है । इतना सरल है !

आत्मसाक्षात्कार 2 प्रकार से

सम समुच्चय और क्रम समुच्चय… क्रम से अंतःकरण की शुद्धि, यह-वह आदि साधन करके आत्मसाक्षात्कार यह क्रम समुच्चय है और कोई तत्त्वज्ञानी महापुरुष मिल गये, उनके सत्संग-सान्निध्य में आते-आते सब साधनों का अभ्यास एक साथ करते हुए आत्मसाक्षात्कार को उपलब्ध हो जाना – यह सम समुच्चय है । ऐसा शास्त्रों में और कुछ दृष्टांत भी है । अष्टावक्र जी को, वामदेव जी को माता के गर्भ में आत्मानुभव हो गया था लेकिन पूर्वजन्म में न जाने कितना साधन किया था !

परमात्मप्राप्ति के 3 मार्ग

परमात्मप्राप्ति के 3 मार्ग बताये गये हैं- भक्ति मार्ग, योग मार्ग और ज्ञान मार्ग ।

  1. भक्ति मार्गः यह मार्ग सुरक्षित तो है पर बहुत लम्बा है ।
  2. योग मार्गः इसमें विभूतियाँ आती हैं, सत्यसंकल्प-सामर्थ्य आता है, शक्तियाँ आती हैं । इनसे व्यक्ति की वाहवाही होती है, फिर वह उसी वाहवाही में खप जाता है, कच्चा रह जाता है ।
  3. ज्ञान मार्गः व्यक्ति अगर संयमी है, उसमें वैराग्य है और सद्गुरु की आज्ञा में चलता है तो ज्ञान मार्ग एकदम विहंगम मार्ग है ।

भक्ति मार्ग – जैसे चींटी है तो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जाने के लिए पहले पेड़ से कब उतरेगी, कब दूसरे पेड़ पर पहुँचेगी ! योगमार्ग है बंदर की नाईं छलाँग मार दी । पर ज्ञान मार्ग है गरुड़ की नाईं, बस !

ज्ञान मार्ग में सावधानी

जितना तीव्र साधन है उतनी सावधानी की जरूरत है । चलते-चलते गिर गये तो ज्यादा चोट और मोटरसाइकिल से गिरे तो और ज्यादा एवं हवाई जहाज से गिरे तो हड्डियाँ भी खोजना मुश्किल हो जायेगा ।

तो ऐसा है ज्ञान मार्ग ! इसमें बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है । संयम, नियम, सद्गुरु की देखरेख जरूरी है, नहीं तो मन वासना की ढाल बनाकर बोलेगा कि ‘सब ब्रह्म है, सब परमात्मा है तो जरा सुलफा फूँक लिया तो क्या है, जरा तम्बाकू खा लिया तो क्या है !’ ऐसा करते-करते घर का रहा न घाट का…

कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान ।

घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।।

आत्मसाक्षात्कार के पूर्व तीन सोपान

अब प्रश्न उठता है कि आत्मसाक्षात्कार कैसे करें ?

इसके पूर्व तीन सोपान हैं, श्रवण, मनन और निदिध्यासन ।

ब्रह्मवेत्ता संतों का उपदेश सुनना श्रवण हैं । यह आत्मसाक्षात्कार का प्रथम सोपान है । शास्त्रों तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सत्संग के साहित्य का पठन भी एक प्रकार से श्रवण ही है । पठन एवं श्रवण किये हुए सत्संग का नित्य मनन करते रहना यह द्वितीय सोपान है । ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, एकांत में बैठ के ब्रह्मज्ञानी गुरु के द्वारा निर्दिष्ट युक्तियों से ब्रह्मज्ञान के उपदेश का निरंतर मनन करते रहना चाहिए । मनन के सतत अभ्यास से साधक तीसरे सोपान निदिध्यासन में पहुँच जाता है ।

इन तीनों सोपानों के पथप्रदर्शक भगवत्प्राप्त ज्ञानी महापुरुष की शरण ले लें तो मार्ग एकदम सरल हो जाता है । आत्मसाक्षात्कार की गुरुचाबी (Master Key) केवल ब्रह्मज्ञानी गुरु के पास होती है  ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ