ध्यान का अर्थ – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ध्यान का अर्थ – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


कम से कम सुनें, कम से कम मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, कम-से-कम इन्द्रियों को भोजन दें। जैसे, केवल पानी में इतनी शक्ति नहीं होती लेकिन पानी को जब गर्म किया जाता है, तब उसी पानी से बनी वाष्प में भारी शक्ति आ जाती है और टनों वजनवाली ट्रेनों तक को ले भागती है। इसी प्रकार बुद्धि सूक्ष्म होती है तो उसमें अनुपम योग्यता आ जाती है। बुद्धि अगर स्थूल होगी, मोटी होगी तो परमात्मा में नहीं लग पायेगी। अतः सूक्ष्मता चाहिए, गहराई चाहिए।

चुप रहना, मौन रहना भी कोई मजाक की बात नहीं है। बहुत कठिन है। चुप वे ही रह पाते हैं जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। मौन वे ही रह पाते हैं, गहरे भी वे ही उतर पाते हैं, जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। अन्यथा, मनोरंजन और मनपसंद कार्यों में ही मनुष्य की समय-शक्ति खर्च हो जाती है। मौन रहकर, उसी में डूब जाना – यह भी एक बहुत बड़ी साधना है, बहुत बड़ी कमाई है।

सब काम करने से नहीं होते हैं। कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं। ध्यान ऐसा ही एक कार्य है। आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होगे उतने ही आप उस काम में सफल होगे। नींद में आप परमात्मा के थोड़े करीब होते हो, ध्यान के निकट होते हो, तभी शक्ति आ पाती है, विश्रान्ति मिल पाती है और उसी विश्रान्ति से, उसी नयी शक्ति से, नयी स्फूर्ति से नये दिन की नई सुबह से पुनः कार्य का आरंभ होता है।

मन में संकल्प भी आते हैं, विकल्प भी आते हैं। इच्छाओं की, वासनाओं की धारा अविरल बहती रहती है।

ध्यान का मतलब क्या ?

ध्यान है डूबना। ध्यान है आत्मनिरीक्षण करना….ʹहम कैसे हैंʹ यह देखना….ʹकहाँ तक पहुँचे हैंʹ यह देखना…. ʹकितना अपने आपको भूल पाये हैंʹ यह देखना…. ʹकितना विस्मृतियोग में डूब पाये हैंʹ, यह देखना…

सत्संग भी उसी को फलता है जो ध्यान करता है। ध्यान में विवेक जागृत रहता है। ध्यान में बड़ी सजगता, सावधानी रहती है।

करने से प्रेम करें, न करने की ओर प्रीति बढ़ायें। करने के अंत में न करना ही शेष रहता है। जितना भी आप करोगे उसके अंत में न करना ही शेष रहेगा।

ध्यान अर्थात् न करना…. कुछ भी न करना। जहाँ कोशिश होती है, जहाँ करना होता है, वहाँ थकावट भी होती है। जहाँ कोशिश होती है, थकावट होती है, वहाँ आनंद नहीं होता। जहाँ कोशिश भी नहीं होती, आलस्य-प्रमाद नहीं होता, अपितु निःसंकल्पता होती है, जो स्वयमेव होता है, वहाँ सिवाय आनंद के कुछ नहीं होता और वह आनंद निर्विषय होता है, निर्विकारी होता है। वह आनंद संयोगजन्य नहीं होता, परतंत्र और पराधीन नहीं होता वरन् स्वतंत्र और स्वाधीन होता है। मिटने वाला और अस्थायी नहीं होता, अमिट और स्थायी होता है।

सब उसमें नहीं डूब पाते। कोई-कोई बड़भागी ही डूब पाते हैं और जो डूब पाते हैं वे खोज भी लेते हैं। समुद्र के भीतर रत्न खोजे जाते हैं लेकिन जो रत्न खोजते हैं उनको कई बार असफल होना पड़ता है। रत्न ढूँढने वाले गोताखोरों को कई बार खाली हाथ ही आना पड़ता है। लेकिन वे कोशिश करना नहीं छोड़ते, हारते नहीं, थकते नहीं, टूटते नहीं, विश्वास को नहीं खोते वरन् अथक प्रयत्न, अदम्य साहस और भरपूर निष्ठा के साथ फिर-फिर से गोता लगाते हैं और वे पुरुषार्थी रत्न खोज ही लेते हैं। लाखों के रत्न उनके हाथ लग जाते हैं। अगर निराश होते तो लाखों के रत्नों से हाथ धोना पड़ता।

बाहरी नश्वर धन को प्राप्त करने के लिए भी जब उन गोताखोरों में अदम्य साहस और उत्साह होता है तो जिनको परमात्मारूपी शाश्वत हीरा प्राप्त करना है ऐसे उत्तम साधक भला अपने उत्साह को क्यों बलि पर चढ़ायेंगे ? निराश-हताश क्यों होयेंगे ? आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों… फिर-फिर से गोता, फिर-फिर से गहराई में… जो नयी शक्ति, नये उमंग के साथ, पूरे विश्वास के साथ फिर-फिर से प्रयत्न जारी रखते हैं अन्ततः वे सफल हो ही जाते हैं। गुरुकृपा प्राप्त कर लेते हैं, परमात्मानुभव प्राप्त कर लेते हैं। दिव्यातिदिव्य अनुभव उनके भीतर प्रगट होने लगते हैं।

अध्यात्म का रास्ता अटपटा जरूर है। खटपट भी थोड़ी-बहुत होती है और समझ में भी झटपट नहीं आता है लेकिन अगर थोड़ा सा भी समझ में आ जाये, धीरज न टूटे, साहस न टूटे और परमात्मा को पाने का लक्ष्य न छूटे, तो उन्हें प्राप्ति हो ही जाती है। असंभव कुछ नहीं, सब संभव है। जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी मिल जाती है।

जितना समय संसार के पीछे लगाया बदले में उतना नहीं मिला, न मिलेगा। वरन् जितना मिला, वह भी छूट जायेगा। उससे आधा समय भी अगर भगवान के प्रति लगाते, परमात्म-ध्यान और परमात्म-शांति में उतना समय व्यतीत करते तो स्थिति कुछ और होती, स्थिति कुछ निराली होती क्योंकि सृष्टिकर्त्ता से कुछ भी छुपा नहीं है। चाहिए केवल विश्वास, दृढ़ता, साहस, लगन….

निर्मल मन जन सो मोहि पावा…..

निर्मलता, पवित्रता…. खोपड़ी में जितना बाहर का कचरा भरोगे उतना ही निकालना पड़ेगा। पढ़ा हुआ कपटी उतना जल्दी भगवान को नहीं पा सकता, जितना सरल अनपढ़ पा सकता है। पढ़े हुए को तो, जो खोपड़ी में भरा है उसे पहले निकालना पड़ता है जबकि अनपढ़ की कैसेट कोरी (Blank) होती है। उसने कचरा कम भरा होता है अतः निर्मल और निर्दोष जल्दी हो पायेगा जबकि पढ़ा-लिखा देरी से होगा। परमात्मा के पास आपकी अक्ल होशियारी नहीं चल सकती है। आपकी डिग्रियाँ और प्रमाणपत्र वहाँ नहीं चल पायेंगे। निर्मलता, पवित्रता और स्नेह ही चलेगा। उसके बनकर, उसके होकर नाचोगे तो चलेगा, वह खुश होगा। उसके होकर जो भी करोगे, वह खुश होगा। शर्त यही है कि मिटना पड़ता है, उसका बनना और रहना पड़ता है। बगैर उसके काम नहीं चल सकता।

बीज जब तक अपना अस्तित्व रखता है तब तक पौधा नहीं बन पाता। पौधा अगर अपना अस्तित्व बनाये रखे तो विशाल वृक्ष नहीं बन पाता इसलिए मिटो…. खो जाओ…. जितना खोओगे, जितना मिटोगे उतना ही पाओगे।

गुरुभक्तियोग एक समर्पण का मार्ग है, मिटने का मार्ग है, हटने का मार्ग है ,खोने का मार्ग है, नामोनिशान तक मिटा देने का मार्ग है। व्यक्ति जितना खोता है, उतना पाता है। जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही महान होता है। फिर किसी की गाली उसे प्रभावित नहीं करती, किसी की प्रशंसा उसे प्रभावित नहीं करती क्योंकि वह मिट चुका है। जीते-जी मिट चुका है। मरकर तो सभी मिटते हैं, सभी खोते हैं लेकिन फिर क्या ? जो जीते-जी मिट चुका, जीते-जी खो चुका, जीव मिटकर शिव बन चुका वही धन्य है…. ૐ शांति… खूब शांति… गहरी शांति…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,18 अंक 55

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