Yearly Archives: 1997

तुलसी


तुलसी को विष्णुप्रिया कहा जाता है। हिन्दुओं के प्रत्येक शुभ कार्य में, भगवान के प्रसाद में तुलसीदल का प्रयोग होता है। जहाँ तुलसी के पौधे अत्यधिक मात्रा में होते हैं वहाँ की हवा शुद्ध व पवित्र रहती है। तुलसी के पत्तों में एक विशेष प्रकार का द्रव्य होता है जो कीटाणुयुक्त वायु को शुद्ध करता है। वैज्ञानिक मतानुसार तुलसी में विद्युत-शक्ति अधिक होती है जो कि ग्रहण के समय सूर्य से निकलने वाली हानिकारक किरणों का प्रभाव खाद्य पदार्थों पर नहीं होने देती। अतः सूर्य-चन्द्र ग्रहण के समय खाद्य पदार्थों पर तुलसी की पत्तियाँ रखने की परम्परा है।

तुलसी के पास बैठकर प्राणायाम करने से कीटाणुओं का नाश होकर शरीर में बल, बुद्धि व ओज की वृद्धि होती है। प्रातः खाली पेट तुलसी के 8-10 पत्ते खाकर ऊपर से एक गिलास पानी पीकर टहलने से बल, तेज, स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है व जलंदर भगंदर, कैंसर जैसी बीमारियाँ पास भी नहीं फटकती हैं।

तुलसी में एक विशिष्ट क्षार होता है। तुलसी का स्पर्श व दर्शन भी लाभदायी है। यह शरीर की विद्युत को बनाये रखती है। तुलसी की माला धारण करने वाले को बहुत-से रोगों से मुक्ति मिलती है।

तुलसीदल में एक उत्कृष्ट रसायन है। वह गर्म और त्रिदोषनाशक है। रक्तिविकार, ज्वर, वायु, खांसी, कृमि निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है। सफेद तुलसी के सेवन से त्वचा व हड्डियों के रोग दूर होते हैं। काली तुलसी के सेवन से सफेद दाग दूर होते हैं। तुलसी की चाय पीने से ज्वर, आलस्य, सुस्ती तथा वात-पित्त विकार दूर होते हैं व भूख खुलकर लगती है। तुलसी की चाय में तुलसीदल, सौंफ, इलायची, पुदीना, सौंठ, कालीमिर्च, ब्राह्मी, दालचीनी आदि का समावेश किया जा सकता है।

तुलसी सौन्दर्यवर्धक व रक्तशोधक है। सुबह शाम तुलसी व नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर घिसने से काले दाग दूर होते हैं व सुन्दरता बढ़ती है। ज्वर, खांसी, श्वास के रोग में तुलसी का रस 3 ग्राम, अदरक का रस 3 ग्राम व एक चम्मच शहद मिलाकर सुबह-शाम लेने से फायदा होता है। तुलसी के रस से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। तुलसी का रस कृमिनाशक है। तुलसी के रस में नमक डालकर नाक में बूँदे डालने से मूर्छा हटती है, हिचकी रूकती है। यह किडनी की कार्यशक्ति को बढ़ाती है। रक्त में स्थित कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करती है। इसके सेवन से एसिडिटी, स्नायुओं का दर्द, सर्दी-जुकाम, मेदवृद्धि, मासिक सम्बंधी रोग, बच्चों के रोग, विशेषकर सर्दी, कफ, दस्त, उल्टी आदि में लाभ करती हैं। तुलसी हृदयरोग में आश्चर्यजनक लाभ करती है।

तुलसी की सूखी पत्तियों को अच्छी तरह पीसकर उसका गाढ़ा लेप चेहरे पर लगाने से त्वचा के छिद्र खुल जाते हैं। पसीने के साथ अशुद्धि निकल जाने से त्वचा स्वच्छ, दुर्गन्धरहित, तेजस्वी व मुलायम बनती है। चेहरे की कान्ति बढ़ती है।

अनेक रोगों की एक दवाः तुलसी के 25-30 पत्ते लेकर खरल में अथवा सिलबट्टे पर पीसें, जिस पर कोई मसाला न पीसा गया हो। इस पिसे हुए तुलसी के गूदे में 5-10 ग्राम मीठा दही मिलाकर अथवा 5-7 ग्राम शहद मिलाकर 30-40 दिन सेवन करने से गठिया का दर्द, सर्दी, जुकाम, खांसी (यदि रोग पुराना हो तो भी), गुर्दे (किडनी) की पथरी, सफेद दाग या कोढ़, शरीर का मोटापा, वृद्धावस्था की दुर्बलता, पेचिश, अम्लता, मन्दाग्नि, कब्ज, गैस, दिमागी कमजोरी, स्मरणशक्ति का अभाव, पुराने से पुराना सिरदर्द, बुखार, रक्तचाप (उच्च या निम्न) हृदयरोग, शरीर की झुर्रियाँ, श्वासरोग, कैंसर आदि रोग दूर हो जाते हैं।

कैंसर जैसे कष्टप्रद रोग में इस दवा को दो या तीन बार सेवन कर सकते हैं।

इसके सेवन से विटामिन ʹएʹ तथा ʹसीʹ की कमी दूर हो जाती है। खसरा निवारण के लिए यह रामबाण इलाज है।

किसी भी प्रकार के विषविकार में तुलसी का स्वरस यथेष्ट मात्रा में पीना चाहिए।

20 तुलसी पत्र एवं 10 कालीमिर्च एक साथ पीसकर हर आधे से दो घंटे के अंतर से बार-बार पिलाने से सर्पविष उतर जाता है। तुलसी का स्वरस लगाने से जहरीले कीड़े, ततैया, मच्छर का विष उतर जाता है।

तुलसी के स्वरस का पान करने से प्रसव-वेदना कम होती है।

स्वप्नदोषः 10 ग्राम तुलसी के बीज मिट्टी के पात्र में रात को पानी में भिगो दें व सुबह सेवन करें। इससे लाभ होता है।

तुलसी के बीजों को कूटकर व गुड़ में मिलाकर मटर के बराबर गोलियाँ बना लें। प्रतिदिन सुबह शाम दो-दो गोली खाकर ऊपर से गाय का दूध पीने से नपुंसकत्व दूर होता है, वीर्य में वृद्धि होती है, नसों में शक्ति आती है, पाचन शक्ति में सुधार होता है। हर प्रकार से हताश पुरुष भी सशक्त बन जाता है।

जल जाने परः तुलसी के स्वरस व नारियल के तेल को उबालकर, ठण्डा होने पर जले भाग पर लगायें। इससे जलन शांत होती है तथा फफोले व घाव शीघ्र मिट जाते हैं।

विद्युत का झटकाः विद्युत के तार का स्पर्श हो जाने या वर्षा ऋतु में बिजली गिरने के कारण यदि झटका लगा हो तो रोगी के चेहरे और माथे पर तुलसी का स्वरस मलें। इससे रोगी की मूर्च्छा दूर हो जाती है।

जलशुद्धिः दूषित जल की शुद्धि के लिए जल में तुलसी की हरी पत्तियाँ डालें। इससे जल शुद्ध व पवित्र हो जाएगा।

शक्ति की वृद्धिः शीतऋतु में तुलसी की 5-7 पत्तियों में 3-4 काली मिर्च तथा 3-4 बादाम मिलाकर, पीसकर सेवन करने से हृदय को शक्ति प्राप्त होती है।

छोटे बच्चों के रोगों में सेवन विधिः सूखी खांसी में तुलसी की कोंपलें व अदरक समान मात्रा में लेकर पीसकर शहद के साथ चटाएँ। दाँत निकलने से पहले यदि बच्चों को तुलसी का रस पिलाया जाये तो उनके दाँत सरलता से निकलते हैं। दाँत निकलते समय बच्चे को दस्त लगे तो तुलसी की पत्तियों का चूर्ण अनार के शरबत के साथ पिलाने से लाभ होता है। तुलसी की पत्तियों को नींबू के रस में पीसकर लगाने से दाद-खाज मिट जाती है। तुलसी की पत्तियाँ तथा सूखे आँवलों को पानी में भिगोकर रख दीजिये। प्रातःकाल उसे छानकर उस पानी से सिर धोने से सफेद बाल भी काले हो जाते हैं तथा बालों का झड़ना रूक जाता है।

सावधानीः तुलसी निषेध

उष्ण प्रकृति वाले, रक्तस्राव व दाहवाले व्यक्तियों को ग्रीष्म व शरद ऋतु में तुलसी का सेवन नहीं करना चाहिए। तुलसी के सेवन के डेढ़-दो घंटे तक दूध नहीं लेना चाहिए। अर्श-मस्से के रोगियों को तुलसी व काली मिर्च का उपयोग एक साथ नहीं करना चाहिए क्योंकि इनकी तासीर गर्म होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 56

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

परमात्मप्राप्ति के सात सचोट उपाय


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कथा कीर्तन कलियुगे, भवसागर की नाव।

कह कबीर भव तरन को और नाहि उपाय।।

कलियुग में परमात्म-प्राप्ति के लिए वे साधन, वातावरण अथवा शरीर अभी आपके पास नहीं है जो अन्य युगो थे जिससे तप करके समाधि करके परमात्म-प्राप्ति की जा सके। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कलियुग में परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य जन्म का उद्देश्य ही परमात्म-साक्षात्कार कर मुक्ति प्राप्त करना है। इस कलिकाल में भी परमात्म-प्राप्ति के कुछ सचोट उपाय हैं।

प्रथम उपायः परमात्म तत्त्व की कथा का श्रवण करें।

कथा कीर्तन जा घर भयो, संत भयो मेहमान।

वा घर प्रभु वासा कीन्हा, वो घर है वैकुण्ठ समान।।

एक पंडित जी कथा कर रहे थे। कथा के बीच में उन्होंने कहाः राम नाम भव सिंधु तरहि। राम नाम ऐसा है कि वह भवसिंधु से तार देता है।

एक ग्वालिन दूध बेचकर वहाँ से गुजर रही थी। उसके कान में कथा की यह बात आ गई कि ʹराम नाम भवसिंधु तार देता है।ʹ वह ग्वालिन दो घड़े सिर पर रखकर दूध बेचने जाती और लौटते समय उन खाली घड़ों में सामान भर लेती थी। उस दिन लौटते समय नदी के किनारे पर पहुँच कर वह सोचने लगीः “आज नाव वाला नहीं है और पंडित जी ने कहा था कि ʹराम नाम भवसिंधु तार देता है…. राम नाम से तो पत्थर भी तैरते हैं।ʹ दूध बेचने वाली उस ग्वालिन ने आगे सोचाः ʹपत्थर भी तैर सकते हैं, फिर मैं तो मनुष्य हूँ। पानी में पत्थर जितना भार तो मनुष्य का होता भी नहीं।ʹ

ʹजय श्रीरामʹ करके वह तो चल पड़ी नदी में। ऐसी चली ऐसी चली कि जाकर दूसरे किनारे लगी। उसने सोचाः ʹहाय राम ! रोज-रोज इतना पैसा मैं नाव वाले को देती थी ! अब वे पैसे पंडित जी की कथा में चढ़ाऊँगी।ʹ अब वह ग्वालिन नाव के बजाय रोज रामनाम के बल पर नदी पार करके दूध बेचने जाने लगी। नाव के पैसे बचने लगे। आने का पैसा और जाने का पैसा दोनों इकट्ठा करते-करते जब एक महीना बीत गया, तब वह पोटली भरकर पंडित जी के पास गई। पंडित ने कहाः “इतना सारा पैसा !ʹʹ ग्वालिन बोलीः “पंडितजी ! आपके वचन से मुझे लाभ हुआ है।”

पंडित जीः “कैसे वचन ?”

माई बोलीः “पंडित जी ! आपने कथा में कहा था कि राम नाम भवसिंधु तरहिं।

राम नाम से मनुष्य भव-सागर तर जाता है। आपके ये वचन मैंने सुने तब से मैं नाव में नहीं बैठती। रोज पानी पर चलकर नदी पार कर लेती हूँ। नदी में डूबती नहीं हूँ। पानी तो लोगों को दिखता है पर मेरे लिए तो मानो…. बस, क्या कहूँ… महाराज !” इतना कहकर माई गदगद हो गई।

पंडित ने सोचाः ʹअरे ! मेरी कथा से ग्वालिन का रोज आने-जाने का खर्च बच रहा है ! मुझे भी उस गाँव में जाना है।ʹ दो दिन बाद पंडितजी नदी किनारे पहुँच गये।

इतने में माई आयी और जय श्री राम कहकर चल पड़ी। माई को देखकर पंडित के आश्चर्य का ठिकाना न रहा ! उन्होंने अपने दो चार आदमियों को बुलाकर कहाः “देखो राम-नाम में शक्ति तो है। मैं भी राम-नाम लेकर तर तो जाऊँगा लेकिन यदि गड़बड़ हो तो मेरी कमर में तुम रस्सी बाँध दो, अगर डूबने लगूँ तो तुम मुझे खींच लेना।”

पंडित और मसालची दोनों बूझे नाहिं।

औरों को उजाला करे आप अंधेरे माहिं।।

वह माई पंडित के वचन पर श्रद्धा करके बिना नाव के नदी पार कर जाती थी लेकिन पंडित वर्षों से भागवत की कथा करता था पर भगवत्तत्त्व का, रामतत्त्व का ज्ञान नहीं था। उसमें संशय था।

ʹराम-रामʹ कहकर नदी में उतरते ही वह तो डूबने लगा। लोगों ने रस्सी खींचकर उसे बाहर निकाला।

संशय सबको खात है संशय सबका पीर।

संशय की जो फाकी करे वा ना फकीर।।

दूसरा उपायः परमात्मप्राप्ति के लिए दूसरी बात है सत्पुरुषों के सान्निध्य में रहें। जैसा संग वैसा रंग। संग का रंग अवश्य लगता है। यदि सज्जन व्यक्ति भी दुर्जन का अधिक संग करे तो उसे कुसंग का रंग अवश्य लग जायेगा। इसी प्रकार यदि दुर्जन से दुर्जन व्यक्ति भी महापुरुषों का सान्निध्य ले तो देर-सबेर वह भी महापुरुष हो जायेगा। वालिया लुटेरे ने नारदजी का संग किया और महर्षि वाल्मीकि बन गया।

तीसरा उपायः प्रेमपूर्वक नामजप-संकीर्तन करें। तुलसीदासजी कहते हैं-

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।

यदि मंत्र किसी ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा प्राप्त हो और नियमपूर्वक उसका जप किया जाय तो कितना भी दुष्ट अथवा भोगी व्यक्ति हो, उसका जीवन बदल जायेगा। दुष्ट की दुष्टता सज्जनता में बदल जायेगी। भोगी का भोग योग में बदल जायेगा।

चौथा उपायः प्रसन्न चित्त से सुख-दुःख को भगवान का विधान समझें। परिस्थितियों को आने जाने वाली समझकर बीतने दें। घबड़ाये नहीं या आकर्षित न होवें।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-

समदुःखसुखः क्षमी।

जिनको अपने आत्मा का प्रकाश नहीं है ऐसे मनुष्य सुख में भी स्वस्थ नहीं रहते और दुःख में भी स्वस्थ नहीं रहते। सुख आये तो उसे टिकाये रखना चाहते हैं और दुःख को दूर करना चाहते हैं। इसलिए सुख और दुःख दोनों में अस्वस्थ रहते हैं लेकिन जिनको आत्मा का प्रकाश मिला है वे सुख-दुःख में स्वस्थ रहते हैं। जो स्वस्थ है उसको दुःख भयभीत नहीं कर सकता। जो संपूर्ण स्वस्थ है, वह जहर को भी पचा लेता है। भीम को जहर दिया गया तो उसकी शक्ति और बढ़ गयी।

जो स्वस्थ है उनको संसार में जहर के कड़वे घूँट मिलें तो भी उऩकी योग्यता बढ़ती है और संसार का प्यार मिलें तो भी वे आनंद में रहते हैं। भक्तिमति मीरा को जहर का प्याला मिला फिर भी वे स्वस्थ रहीं तो जहर भी उनके लिए अमृत बन गया और वे ʹमेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई…ʹ कहकर कन्हैया के प्रेम में ही मस्त रही।

प्रसन्नचित्त से सुख-दुःख को भगवान का प्रसाद समझते हुए सम रहना योग है।

मुस्कुराकर गम का जहर, जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।

पाँचवाँ उपायः सबको भगवान का अंश मानकर सबके हित की भावना करें। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है इसलिए कभी शत्रु को भी बुरा नहीं सोचना चाहिए बल्कि प्रार्थना करनी चाहिए कि परमात्मा उसे सदबुद्धि दे, सन्मार्ग दिखायें। ऐसी भावना करने से शत्रु की शत्रुता भी मित्रता में बदल सकती है।

छठा उपायः ईश्वर को जानने की उत्कण्ठा जागृत करें। जहाँ चाह वहाँ राह। जिसके हृदय में ईश्वर के लिए चाह होगी, उस रसस्वरूप को जानने की जिज्ञासा होगी, उस आनन्दस्वरूप के आनंद के आस्वादन की तड़प होगी, प्यास होगी वह अवश्य ही परमात्म-प्रेरणा से संतों के द्वार तक पहुँच जायेगा और देर-सबेर परमात्म-साक्षात्कार कर जन्म–मरण से मुक्त हो जायेगा।

सदगुरु की सेवा किये, सबकी सेवा होये।

सदगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय।।

सातवाँ उपायः एकान्त में प्रार्थना और ब्रह्माभ्यास करें। यदि इन सात बातों को जीवन में उतार लें तो अवश्य ही परमात्मा का अनुभव होगा।

यदि आप चाहो कि सब आपको प्यार करें तो आप दूसरों के काम आओ, दूसरे तुम्हें स्नेह करेंगे और भगवान के, गुरु के दैवी कार्य में भागीदार होंगे तो वह भजन हो जायेगा। कुछ पाने की आशा नहीं रखोगे तो मुक्ति मिल जायेगी। रूचिपूर्ति के चक्कर में न पड़कर रूचि की निवृत्ति करना चाहिए। इच्छाओं की पूर्ति में तो बँधन है, इसके लिए अनेक लोगों की गुलामी भी करनी पड़ती है। लेकिन इच्छाओं की निवृत्ति कर, ईश्वर में विश्रांति पाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने में आप स्वतंत्र हैं। अनुकूलता की लालच  न रखें तो दोनों आपके दास हो जायेंगे और आप सच्चे सुख के स्वामी बन जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 6,7,20 अंक 56

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

गोपियों की अनन्य प्रीति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

जब तक नश्वर पदार्थों में आसक्ति होती है, नश्वर चीजों में प्रीति होती है और मिटने वालों का आश्रय होता है जब तक अमिट तत्त्व का बोध नहीं होता तब तक जन्म-मरण का चक्कर नहीं मिटता। यदि हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम हो जाये तो फिर आज तक हमने जो कुछ जाना, जो कुछ पाया, हमारे लिए उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी और दूसरा कुछ जानने की या पाने की इच्छा भी नहीं रहेगी। हमें देखना यह है कि हमारी प्रीति सचमुच परमात्मा में है या परमात्मा का अवलंबन लेकर नश्वर चीजों की इच्छाएँ पूरी करने में है।

ईश्वर में यदि सच्चे अर्थ में प्रीति हो जाती है तो फिर भक्त ईश्वर से नश्वर चीजों की माँग नहीं करता, वरन् भगवान में ही अपनी इच्छाओं को मिला देता है।

श्रीकृष्ण भगवान ने भी यह बात सुन्दर तरीके से गीता में कही हैः

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।

ʹहे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उनको सुन।ʹ गीताः 7.1

ज्ञानं तेहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।

“मैं तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्वज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता। गीताः 7.2

ईश्वरपरायण होने से, ईश्वर को अनन्य प्रेम करने से भक्त संसार की मोह-माया में से छूट जाता है और मुक्त हो जाता है।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पटरानियों का अभिमान दूर करने के लिए तथा उन्हें गोपियों की निंदा करने से रोकने के लिए एक लीला की।

श्रीकृष्ण चिल्लाने लगेः “पेट में जोरों का दर्द है…. सहा नहीं जाता… कुछ करो….”

बहुत सारे हकीम आये, उपचार हुआ लेकिन दर्द कम न हुआ। इतने में नारद मुनि वहाँ पहुँच गये। वे समझ गये कि यह भगवान की ही कोई लीला है। उन्होंने भगवान से विनम्र भाव से पूछाः

“अब आप ही बतायें कि कैसे आपका दर्द ठीक हो सकता है ?”

श्रीकृष्ण भगवानः “एक ही इलाज है… मेरे अनन्य भक्त की चरणरज दवाई के साथ लेने से ही पेट की पीड़ा दूर हो सकती है।”

नारदजी गये भगवान की पटरानियों के पास और बोलेः “आप तो भगवान की सच्ची भक्त हैं। भगवान के पेट की पीड़ा दूर करने के लिए आपमें से कोई भी अपनी चरणरज मुझे दे दीजिये।”

पटरानियों ने तुरंत ही इन्कार करते हुए कहाः “हमारी चरणरज भगवान खायें ? हमें क्या नर्क में जाना है ? नहीं, नहीं, हम अपनी चरणरज हरगिज नहीं देंगे।”

नारदजी गये वृंदावन में गोपियों के पास। उन्होंने गोपियों को भगवान के रोग की बात जैसे ही बतायी, वैसे ही ʹकैसे हुआ…. क्या हुआ.. किस तरह मिटेगा….?ʹ – ऐसे प्रश्नों की झड़ी नारदजी के ऊपर लग गई। नारदजी ने सब वृत्तान्त बताकर आखिर में कहाः “दवाई तो आप सबके पास है लेकिन देगा कोई नहीं।”

गोपियाँ- ऐसा हो सकता है कि हमारे पास इलाज हो और हम न दें ? आप शीघ्र ही बतायें कि हम हमारे प्रेमास्पद के लिए क्या कर सकते हैं ?”

नारदजीः “नहीं, तुम नहीं दे सकोगी। यदि दोगी तो नर्क में जाना पड़ेगा।”

गोपियाँ- “हमारे इष्ट का, हमारे प्रेमास्पद का दुःख यदि मिट सकता है तो हम नर्क में जाने के लिए भी तैयार हैं, सिर्फ आप इलाज बताइये।”

नारदजीः “भगवान के भक्त की चरणरज यदि उन्हें दवाई के साथ मिलाकर पिलायी जाय तो उनके पेट का दर्द दूर हो सकता है।”

गोपियों ने पैर पसार दिये और बोलीं- “ले लो।”

नारदजीः “सोच लो, श्रीकृष्ण के लिए अपनी चरणधुलि दे रही हो, रौरव नर्क मिलेगा।”

गोपियाँ- “हमारे तो प्राण, तन, मन, धन, सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं। उनकी पीड़ा दूर करने के लिए हमें एक बार नहीं हजार बार नर्क में जाना पड़े तो भी हमें स्वीकार है।”

नारदजी ने तो खुश होते हुए चरणधूलि की पोटली बनायी और पहुँच गये भगवान के पास।

भगवान श्रीकृष्ण ने नारदजी से कहाः “तुमने गोपियों को बताया नहीं कि ऐसा करने से उन्हें नर्क में जाना पड़ेगा ?”

नारदजीः “मैंने तो बहुत समझाया था लेकिन वे कहती हैं कि एक क्षण के लिए भी यदि भगवान की पीड़ा दूर होती हो तो हम हजार बार नर्क में जाने के लिए राजी हैं।”

गोपियों की अनन्य प्रीति देखकर पटरानियों का मुँह लज्जा से नीचे हो गया। अनन्य भक्त के लिए तो भगवान भी अनुकूल हो जाते हैं। कहा जाता हैः

भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास।

इस प्रकार भगवान में आसक्त होकर मिथ्या जगत की नश्वर चीजों की आसक्ति छोड़ते जाओ। जितनी नश्वर पदार्थों की इच्छा मिटाते जाओगे, उतना ही उस प्यारे परमेश्वर के करीब आते जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 10,11,12 अंक 56

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ