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दैवी सम्पदा विकसित करो – पूज्य बापू जी


तुम अपने जीवन में आत्मतेज को जगाओ । जब तक तुमने आत्मतेज नहीं जगाया, तब तक भगवान में दृढ़ प्रीति नहीं होगी, तब तक मन का धोखा दूर नहीं होगा और चाहे कितना भी कुछ तुमने पाया लेकिन असली खजाना दबा-सा रह जायेगा इसलिए अपने जीवन में तेज लाओ ।

‘भगवद्गीता’ के 16वें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान कहते हैं-

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।

‘तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की (शरीर की) शुद्धि तथा किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव – ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।’

‘दैवी सम्पदा’ माना उस देव की सम्पदा, उस आत्मदेव की सम्पदा को अपने हृदय में जगाओ । ज्यों-ज्यों तुम्हारे हृदय में आत्मदेव की सम्पदा जगेगी, त्यों-त्यों उस देव में तुम्हारी प्रतिष्ठा होने लगेगी, स्थिति होने लगेगी । जैसे अभी हाड़-मांस के शरीर में स्थिति है, राग-द्वेष में स्थिति है, चिंता, शोक, भय, क्रोध में स्थिति है ऐसे ही भगवत्तत्त्व में स्थिति हो जायेगी तो मुक्ति का अनुभव यहीं हो जायेगा ।

तेजः क्षमा…. खाने पीने और ठंडे प्रदेश में रहने से चेहरे पर चमक तो आती है लेकिन उसे ‘शास्त्रीय तेज’ नहीं कहा जाता है । तेज आता है सदाचार से, संयम से, सत्कर्म करने से और तेजोमय आत्मस्वरूप का धारणा-ध्यान आदि करने से । तुम्हारी बुद्धि में आध्यात्मिक तेज आयेगा तो विकारों का प्रभाव क्षीण होता जायेगा । जितना आदमी निस्तेज होगा उतना उस पर बाह्य प्रभाव ज्यादा पड़ेगा और जितना आदमी आध्यात्मिक तेज से तेजस्वी होगा उतना वह बाह्य प्रभाव से अपने को निर्मुक्त कर सकेगा ।

तो भगवान कहते हैं अपना कल्याण करने के लिए अपने जीवन में तेज लाना चाहिए । भगवान में दृढ़ भक्ति का यह उपाय है कि जीवन में तेज और क्षमा का गुण हो । क्षमा का गुण अगर गृहस्थ-जीवन में नहीं है तो गृहस्थ की गाड़ी चलनी भी मुश्किल है । कभी बेटी गलती करेगी तो कभी बेटा गलती करेगा, कभी पति गलती करेगा तो कभी पत्नी गलती करेगी, कभी देवरानी की गलती होगी तो कभी जेठानी की होगी । अगर किसी बात को पकड़कर झुलसते रहे तो उसने तो गलती बाहर की लेकिन तुम उस बात को पकड़कर अपना हृदय अंदर खराब करते रहोगे ।

तो भगवान कहते हैं- तुम्हारे जीवन में तेज, क्षमा, धैर्य होना चाहिए । धृति अर्थात् धैर्य । किसी वस्तु को देखकर मन लपक पड़े और बुद्धि निर्णय दे दे कि ‘यह भोगें, यह खायें …’ अथवा किसी का मकान देखा, किसी का कुछ देखा, किसी की गाड़ी देखी और मन सोचे, ‘यह मेरे को कब मिलेगी ?’ तो यह ठीक नहीं है । जिनको मिली है उनके पास देखो, कब तक रहेगी और मिली तो वे पूर्ण सुखी हो गये क्या ?

बहुत पसारा मत करो कर थोड़े की आस ।

बहुत पसारा जिन किया वे भी गये निराश ।।

बाह्य वस्तुओं में, बाह्य परिस्थितियों में और बाहर के दुःख-सुख में मन बार-बार लपक जाय तो धैर्य के गुण को विकसित करने की आवश्यकता है । जिस किसी परिस्थिति से प्रभावित, आकर्षित न हों । ‘यह चाहिए, वह चाहिए….’ चैनलों के द्वारा विज्ञापन देखकर अथवा मॉलों की चीजें देखके आकर्षित न हों । स्टॉलों-मॉलों से बिनजरूरी चीजें भी खरीद लेते हैं – ऐसे अधिक खर्च से या कर्ज के अधिक बोझ से दब जायेंगे, सहज जीवन से दूर होना पड़ेगा । अतः ऐसे आकर्षित न होकर कर्ज लेके यह खरीदो, वह खरीदो…. इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए । यह खरीदो, यह बढ़ाओ… ऐसे लोग कर्जे और ब्याज के बोझ से दबते जाते हैं, उसी में खप जाते हैं । भगवान कहते हैं- तेजः क्षमा धृतिः शौचं…..

शौचं…. शौच का अर्थ है शुद्धि । शुद्धि दो प्रकार की होती हैः आंतर शुद्धि और बाह्य शुद्धि । बाह्य शुद्धि तो साबुन, मिट्टी, पानी से होती है और आंतर शुद्धि होती है राग, द्वेष, वासना आदि के अभाव से । जिनकी आतंर शुद्धि हो जाती है उनको बाह्य शुद्धि की परवाह नहीं रहती । जिनकी बाह्य शुद्धि होती है उनको आंतर शुद्धि करने में सहाय मिलती है ।

पतंजलि महाराज कहते हैं कि शरीर को शुद्ध रखने से वैराग्य का जन्म होता है । शरीर को शुद्ध रखने से वैराग्य का जन्म कैसे ? जिसमें शारीरिक शुद्धि होती है उसको अपने शरीर की गंदगी का ज्ञान हो जाता है । जैसी गंदगी अपने शरीर में भरी है ऐसी ही गंदगी दूसरों के शरीर में भी भरी है । अतः अपने शरीर में अहंता और दूसरों के शरीर के साथ विकार भोगने की वासना शिथिल हो जाती है । हृदय में छुपा हुआ आनंदस्वरूप चैतन्य, ईश्वर, परमात्मा हमारा लक्ष्य है, इस ज्ञान में वे लग जाते हैं ।

भगवान बोलते हैं-

तेजः क्षमा धृतिः शौचं अद्रोहः…

किसी के लिए हृदय में द्रोह (शत्रुभाव) नहीं हो । यह जिसके प्रति होता है उसका तो घाटा हो या फायदा हो लेकिन जिसके हृदय में होता है उसको खराब कर देता है, इसलिए अपने हृदय में द्रोह को स्थान नहीं देना चाहिए ।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।

अति मान की इच्छा नहीं रखो । मान ऐसी चीज है कि जितना मिलता है उतना कम पड़ता है । मान योग्य कर्म तो करो लेकिन मान की वासना को भीतर पनपने मत दो, नहीं तो बड़ी गड़बड़ करायेगी । कोई ऐसी जगह भी रखो जहाँ वाहवाही करने वाले लोग न हों अथवा उनका प्रभाव न हो । ऐसी जगह पर जाओ जहाँ तुम्हारा अहँकार कम करने का तुम्हें अवसर मिले, जहाँ तुम्हारा चित्त निर्भार हो जाय । जो आदमी वाहवाही से सुख ढूँढता है, वह बेचारा गरीब है और उसे थोड़ी-सी वाहवाही कम मिली तो बड़ा दुःख होगा ।

मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाय ।

चाह उसी की राखता, वो भी अति दुःख पाय ।।

वाहवाही की इच्छा मत करो, फिर वाहवाही मिलती है तो कोई परवाह नहीं । निंदनीय काम मत करो, फिर भी निंदा होती है तो तुम्हारा हृदय बिगड़ेगा नहीं ।

रक्षतां रक्षतां कोषानामपि हृदयकोषम् ।

कोषों का कोष जो हृदयकोष है, उसकी तुम रक्षा करो । उसकी रक्षा की तो सबकी रक्षा की और उसकी रक्षा नहीं की तो सब कुछ सुरक्षित करते हुए भी आदमी बेचारा भीतर से कंगाल हो जाता है ।

तो भगवान बोलते हैं कि जीवन में तेज, क्षमा आदि दैवी सम्पदा को लाओ । तेजस्वी जीवन बिताने की कुंजियाँ सीख लो । कुछ ऐसे प्रयोग हैं जिन्हें तुम रोज पंद्रह-बीस मिनट करो तो थोड़े ही दिनों में तुम्हारा चित्त तेज से भर जायेगा । सूरज का तेज नहीं, ट्यूबलाईट का तेज नहीं तुम्हारे हृदय में विवेक का तेज आ जायेगा, निर्भीकता आयेगी, अंतःकरण में शौर्य आयेगा । तुम्हारे अंतःकरण में आज तक जो छोटी-छोटी बातों के धक्के-मुक्के लग रहे थे, असर कर रहे थे वे नहीं करेंगे । जीवन जीने की कला सिखाती है गीता और वह भी युद्ध के मैदान में ! ऐसा नहीं कि अर्जुन ही युद्ध के मैदान में था, आप भी तो युद्ध के मैदान में हो ! क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य आदि का तो युद्ध है लेकिन महँगाई और शोषण के युद्ध ने तो सभी को लपेट में ले रखा है और मृत्यु सामने खड़ी है, कब झपेट ले कोई पता नहीं । जीवन में ठाठ-बाट से जीना यह कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है । मरने के बाद क्या गति होगी, उस पर ध्यान डालना महत्त्वपूर्ण है । बिल्ली जब आती है न, तो कबूतर आँख बंद कर लेता है । जब मौत की बात आती है न, तो आदमी कहता हैः ‘छोड़ो ! खाओ, पियो, मजा करो ।’ लेकिन इससे काम नहीं चलेगा, हम लोगों को सावधान होकर भगवान द्वारा बतायी गयी दैवी सम्पदा का अर्जन करना चाहिए । दैवी सम्पदावाला पुरुष अपने परमात्मस्वभाव में जग जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 18,19,22 अंक 203

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गुरुतत्त्व – ब्रह्मलीन स्वामी शिवानंद जी


जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने ले पुत्र या पौत्र खुश होता है, इसी प्रकार गुरु की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है । गुरु, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं होता है । गुरु ही ईश्वर है । उनको केवल मानव ही नहीं मानना । जिस स्थान में गुरु निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास है । जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है । उनके पावन चरणों का पानी गंगा जी स्वयं है । उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्ता ब्रह्मा स्वयं ही है ।

गुरु की मूर्ति ध्यान का मूल है । गुरु के चरणकमल पूजा का मूल हैं । गुरु का वचन मंत्र का मूल है और गुरु की कृपा मोक्ष का मूल है ।

गुरु तीर्थस्थान हैं । गुरु अग्नि हैं । गुरु सूर्य हैं । गुरु समस्त जगत हैं । समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरु के चरणकमलों में बस रहे हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरु की देह में स्थित हैं । केवल शिव ही गुरु हैं ।

गुरु और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है । जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते हैं, वे शिक्षागुरु हैं । सबमें सर्वोच्च गुरु वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और उसका अर्थ एवं रहस्य समझा जाता है । उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।

अगर गुरु प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं और गुरु नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं । गुरु इष्टदेवता के पितामह हैं ।

जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम हैं, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर साक्षात्कार हुआ है वे गुरु हैं ।

बुरे चरित्रवाला व्यक्ति गुरु नहीं हो सकता । शक्तिशाली शिष्यों को कभी शक्तिशाली गुरुओं की कमी नहीं रहती । शिष्य को गुरु में जितनी श्रद्धा होती है उतने फल की उसे प्राप्ति होती है । किसी आदमी के पास अगर यूनिर्वसिटी की उपलब्धियाँ हों तो इससे वह गुरु की कसौटी करने की योग्यता वाला नहीं बन जाता । गुरु के आध्यात्मिक ज्ञान की कसौटी करना, यह किसी भी मनुष्य के लिए मूर्खता एवं उद्दण्डता की पराकाष्ठा है । ऐसा व्यक्ति दुनियावी ज्ञान के मिथ्या-अभिमान से अंध बना हुआ है ।

आत्मानुभवी गुरुओं से लाभ लेना बुद्धिमानी है और उन पर दोषारोपण करना मति-गति की नीचता है ।

न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् ।

यं तु रक्षितुमिच्छिन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम् ।।

‘देवता लोग चरवाहों की तरह डण्डा लेकर पहरा नहीं देते । वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं ।’ (विदुर नीतिः 3.40)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 17 अंक 203

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ईश्वर दयालु है या न्यायकारी ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जो व्यक्ति दयालु होता है वह ठीक से न्याय नहीं कर सकता और जो न्यायप्रिय होता है वह दया नहीं कर सकता । तब कई बार मन में होता है कि भगवान दयालु हैं कि न्यायकारी ? अगर दयालु हैं तो पापी पर भी दया करके उसको माफ कर देना चाहिए । न्यायाधीश दया करेगा तो सजा नहीं देगा, वह तो दयावश बोलेगाः ‘छोड़ दो बेचारे को ।’ अगर भगवान न्यायकारी हैं और हमारे कर्मों का ही फल हमको देते हैं तो फिर हम उनकी भक्ति क्यों करें ? अगर भगवान दया नहीं कर सकते तो हम उनका भजन क्यों करें ? और भगवान यदि न्याय नहीं कर सकते तो अन्यायी हमारा क्या भला क्या करेगा ? अगर हमारा भला करेगा तो दूसरे का बुरा होगा । अगर सजा देते हैं तो वे दयालु नहीं हैं । तो बताओ भगवान दया करते हैं कि न्याय करते हैं ?

सच तो यह है कि भगवान दया भी करते हैं और न्याय भी करते हैं । यह कैसे हो सकता है ? जो दया करेगा वह न्याय में कहीं-न-कहीं छूटछाट लेगा । तो क्या भगवान छूटछाटवाले हैं ?

भगवान न्यायकारी हैं, ऐसा मानोगे तो कर्म सिद्धान्त वाले आपकी पीठ ठोकेंगे कि ठीक समझे-

करम प्रधान बिस्व करि राखा ।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा ।। (श्रीरामचरित. अयो. कां. 298.2)

और दयाप्रियवाले पक्ष में बैठोगे तो भक्त आपकी पीठ ठोकेंगे ।

अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वभ्यः पापकृत्तमः ।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।।

‘यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा ।’ (गीताः 4.36)

भाई देखो, एक कर्म-सिद्धान्त होता है, दूसरा भगवदीय सिद्धान्त होता है । जो पापकर्म करते हैं और पाप को पाप नहीं मानते, ऐसे लोगों के लिए भगवान न्यायकारी हैं । जो एकदम अड़ियल होते हैं, गलती को ढकने के लिए तर्क देते हैं उनको तो न जाने कितनी कँटीले वृक्षों की योनियों में, सुअर की, भैंसे की योनि में जा-जाकर डण्डे खाने पड़ेंगे, तब कहीं उनका कल्याण होगा । ऐसे लोगों के लिए भगवान न्यायकारी हैं, उनको दण्ड देकर उनका भला करते हैं । अपराधी व्यक्ति के साथ तो न्याय किया जाय, दण्ड दिया जाय ताकि वह अपराध से बचे । अपराधी पर दया करके छोड़ दोगे तो वह अपराध से नहीं बचेगा । इसीलिए अपराधी के साथ न्याय किया जाता है लेकिन जो पाप को पाप मानते हैं, गलती को गलती मानते हैं प्रायश्चित्त करके छटपटाते हैं और भगवान की शरण जाते हैं उन पर भगवान दया करते हैं । जैसे आपने बदपरहेजी की, गलती करने से बीमार हुए और वैद्य के पास गये तो वैद्य आपको सजा नहीं देता, आपका उपचार करके बीमारी मिटाकर आपको तंदुरुस्त कर देता है, ऐसे ही भगवान हमारी बुद्धि के, हमारे कर्मों के दोष मिटाकर हमें शुद्ध करते हैं यह भगवान की दया है ।

एक होते हैं अपराधी वृत्ति के व्यक्ति और दूसरे होते हैं रुग्ण वृत्ति के व्यक्ति । अपराधी के साथ न्याय किया जाता है और रुग्ण पर दया की जाती है क्योंकि जो रोगी है, लाचार है उसको सहानुभूति की जरूरत है ।

माँ अति उद्दण्ड बच्चे को दण्ड देती है, यह माँ की कृपा है और दूसरा बच्चा जो स्नेह का पात्र है उस पर दया करती है, उसे खिलाती-पिलाती है, दुलार करती है । माँ तो दोनों का मंगल चाहती है । ऐसे ही भगवान माताओं की माता और पिताओं के पिता हैं, भगवान हमारा मंगल ही चाहते हैं । भगवान न्याय भी करते हैं और दया भी करते हैं । भगवान न्यायाकारी हैं यह एक पक्ष हो गया और दयालु हैं यह दूसरा पक्ष हो गया लेकिन वास्तव में भगवान प्राणिमात्र के परम सुहृद हैं । भगवान के वचन हैं-

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।

‘मेरा भक्त मुझको सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है ।’ (गीताः 5.29)

यह अपनी कमजोरी है कि न चाहने पर भी काम-विकार में गिर जाते हैं, न चाहने पर भी क्रोध आ जाता है, न चाहने प भी लोभ में फँस जेत हैं और पुरानी आदतों में फिसल जाते हैं । यदि वे आदतें खटकती हैं तो आप भगवान को पुकारोः ‘हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे अनन्त ! माधव !….’ वे आपकी मदद करेंगे क्योंकि भगवान दयालु हैं । भगवान का नाम और सत्संग ये दो साधन हैं, ये आपके ऊपर दया की वृष्टि करा देंगे । यदि वे आदतें आपको नहीं खटकती हैं और आप भगवान को मानते ही नहीं हैं तो न्यायकारी भगवान का दण्डचक्र घूमेगा । दण्ड आकर  पाप का फल भुगताकर चला जायेगा, दया आकर पुण्य का फल देकर चली जायेगी लेकिन भगवान उतने ही नहीं हैं, भगवान प्राणिमात्र के परम सुहृद हैं ।

एक बात खास याद रखना कि भगवान ने आपको खुशामदखोर बनने के लिए धरती पर जन्म नहीं दिया है । यह वहम घुस गया है कि हम जरा भगवान की पूजा करें, खुशामद करें तो भगवान खुश होंगे, जैसे अफसर की, नेता की खुशामद करके लोग अपना काम बनाते हैं । इस प्रकार की मानसिकता बहुत तुच्छ है । भगवान आपको दास बनाकर, खुशामद कराके आपका भला करने वालों में से नहीं हैं । भगवान ने आपको खुशामदखोरी के लिए पैदा नहीं किया है, आपको अपने स्वरूप का अमृत देने के लिए पैदा किया है । भगवान ने आपको अपना दोस्त बनाने के लिए पैदा किया है ।

तस्माद्योगी भवार्जुन । (गीताः 6.46)

‘इसलिए तू योगी हो’ अर्थात् मेरे से योग कर, मेरे से मिल । गुलाम को मिलाया जाता है क्या ? नहीं…. अपने से सजातीय को मिलाया जाता है । (जीव और ईश्वर की जाति एक है ।)

ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ।।

अतः भगवान सुहृद भी हैं । जो अपनी गलती को ढूँढता है, स्वीकारता है और निकालने का प्रयास करता है, उस पर भगवान की दया होती है । जो अपने अपराध को मानता है, पश्चाताप करता है और प्रायश्चित्त के लिए छटपटाता है उस पर भी भगवान दया करते हैं । जो अपने अपराध को अपराध नहीं मानता, भूल को भूल नहीं मानता, उसके लिए भगवान न्यायकारी हो जाते हैं । गलतियाँ करोगे तो भगवान हृदय की धड़कनें बढ़ा देंगे । अगर प्रायश्चित्त करोगे और मार्गदर्शन माँगोगे तो निर्भयता मिलेगी । अतः भगवान दयालु भी हैं, न्यायप्रिय भी हैं और परम सुहृद भी हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 203

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