गुरुतत्त्व – ब्रह्मलीन स्वामी शिवानंद जी

गुरुतत्त्व – ब्रह्मलीन स्वामी शिवानंद जी


जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने ले पुत्र या पौत्र खुश होता है, इसी प्रकार गुरु की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है । गुरु, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं होता है । गुरु ही ईश्वर है । उनको केवल मानव ही नहीं मानना । जिस स्थान में गुरु निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास है । जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है । उनके पावन चरणों का पानी गंगा जी स्वयं है । उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्ता ब्रह्मा स्वयं ही है ।

गुरु की मूर्ति ध्यान का मूल है । गुरु के चरणकमल पूजा का मूल हैं । गुरु का वचन मंत्र का मूल है और गुरु की कृपा मोक्ष का मूल है ।

गुरु तीर्थस्थान हैं । गुरु अग्नि हैं । गुरु सूर्य हैं । गुरु समस्त जगत हैं । समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरु के चरणकमलों में बस रहे हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरु की देह में स्थित हैं । केवल शिव ही गुरु हैं ।

गुरु और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है । जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते हैं, वे शिक्षागुरु हैं । सबमें सर्वोच्च गुरु वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और उसका अर्थ एवं रहस्य समझा जाता है । उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।

अगर गुरु प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं और गुरु नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं । गुरु इष्टदेवता के पितामह हैं ।

जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम हैं, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर साक्षात्कार हुआ है वे गुरु हैं ।

बुरे चरित्रवाला व्यक्ति गुरु नहीं हो सकता । शक्तिशाली शिष्यों को कभी शक्तिशाली गुरुओं की कमी नहीं रहती । शिष्य को गुरु में जितनी श्रद्धा होती है उतने फल की उसे प्राप्ति होती है । किसी आदमी के पास अगर यूनिर्वसिटी की उपलब्धियाँ हों तो इससे वह गुरु की कसौटी करने की योग्यता वाला नहीं बन जाता । गुरु के आध्यात्मिक ज्ञान की कसौटी करना, यह किसी भी मनुष्य के लिए मूर्खता एवं उद्दण्डता की पराकाष्ठा है । ऐसा व्यक्ति दुनियावी ज्ञान के मिथ्या-अभिमान से अंध बना हुआ है ।

आत्मानुभवी गुरुओं से लाभ लेना बुद्धिमानी है और उन पर दोषारोपण करना मति-गति की नीचता है ।

न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् ।

यं तु रक्षितुमिच्छिन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम् ।।

‘देवता लोग चरवाहों की तरह डण्डा लेकर पहरा नहीं देते । वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं ।’ (विदुर नीतिः 3.40)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 17 अंक 203

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