Monthly Archives: July 2010

किया योग्यता का दुरूपयोग हुआ मौत से संयोग


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

आपके पास मानने की, जानने की, करने की शक्ति है, अतः आप ऐसे सत्कर्म करो जिन कर्मों से अंतर्यामी परमात्मा संतुष्ट हो, अहंकार पुष्ट न हो, लोभ-मोह न बढ़े, द्वेष, चिंता न बढ़े, ये सब घट जायें। आपके पास जो भी धन, सत्ता योग्यता है, अगर उसके साथ ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य नहीं है तो वह न जाने किस प्रकार तुम्हें धोखा दे जाय कोई पता नहीं।

हरिदास महाराज के दो शिष्य थे बैजू बावरा और तानसेन। दोनों गुरुभाई महान संगीतज्ञ हो गये। बैजू बावरा का जन्म ईस्वी सन् 1542 में चंदेरी (ग्वालियर क्षेत्र, म.प्र.) में हुआ था। बैजू का संगीत और व्यवहार बहुत सुखद था। वह गुरु की कृपा को पचाने में सफल रहा। गुरु से संगीत की विद्या सीखकर बैजू एकांत में चला गया और झोंपड़ी बनाकर संयमी जीवन जीते हुए संगीत का अभ्यास करने लगा। अभ्यास में ऐसा तदाकार हुआ कि संगीत की कला सीखने वाले कई लोग उसके शिष्य बन गये। उनमें गोपाल नायक नाम का एक शिष्य बड़ा प्रतिभा सम्पन्न था। जैसे बैजू ने अपने गुरु हरिदासजी की प्रसन्नता पा ली थी, ऐसे ही गोपाल ने भी बैजू की प्रसन्नता पा ली। सप्ताह बीते, महीने बीते, वर्षों की यात्रा पूरी करके गोपाल ने संगीत-विद्या में निपुणता हासिल कर ली।

अब वक्त हुआ गुरु से विदाई लेने का। गोपाल ने प्रणाम किया। विदाई देते समय बैजू का हृदय भर आया कि यह शिष्य मेरी छाया की तरह था, मेरी विद्या को पचाने में सफल हुआ है पर जाने से रोक तो सकते नहीं। बैजू भरे कंठ, भरी आँखें शिष्य को विदाई देता हुआ बोलाः “पुत्र ! तुझे संगीत की जो विद्या दी है, यह मनुष्य जाति का शोक, मोह, दुःख, चिंता हरने के लिए है। इसका उपयोग जेब भरने या अहंकार पोसने के लिए नहीं करना।” विदाई लेकर गोपाल चला गया।

गोपाल नायक अपने गीत और संगीत के प्रभाव से चारों तरफ जय-जयकार कमाता हुआ कश्मीर के राजा का खास राजगायक था।

जब ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य नहीं होता तब धन मिलता है तो धन की लालसा बढ़ती है, मान मिलता है तो मान की लालसा, सत्ता मिलती है तो सत्ता की लालसा बढ़ती है। उस लालसा-लालसा में आदमी रास्ता चूक जाता है और न करने जैसे कर्म करके बुरी दशा को प्राप्त होता जाता है। इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ मिलेंगी।

अब गोपाल को चारों तरफ यश मिलने लगा तो उसका अहंकार ऐसा फूला, ऐसा फूला कि वह गायकों का सम्मेलन कराता तथा उनके साथ गीत और संगीत का शास्त्रार्थ करता। गायकों को ललकारताः “आओ मेरे सामने ! अगर कोई मुझे हरा देगा तो मैं अपना गला कटवा दूँगा और जो मेरे आगे हारेगा उसको अपना गला कटवाना पड़ेगा।” जो हार जाता उसका सिर कटवा देता। हारने वाले गायकों के सिर कटते तो कई गायक-पत्नियाँ विधवा और गायक-बच्चे अनाथ, लाचार, मोहताज हो जाते लेकिन इसके अहंकार को मजा आता कि मैंने इतने सिर कटवा दिये। मुझे चुनौती देने वाला तो मृत्यु को ही प्राप्त होता है।

बैजू बावरा का दिखाने वाला सत्शिष्य कुशिष्य बन गया। मेरे गुरुदेव का भी एक कहलाने वाला सत्शिष्य ऐसा ही कुशिष्य हो गया था तो गुरुजी ने उसका त्याग कर दिया। वह मुझसे बड़ा था, मैं उसका आदर करता था। बाद में मेरी जरा प्रसिद्धि हुई तो मेरे पास आया लेकिन मैंने उससे किनारा कर लिया। जो मेरे गुरु का नहीं हुआ, वह मेरा कब तक ? गुरुभाई तब तक है जब तक मेरे गुरु की आज्ञ में रहता है। मेरे आश्रम से 40 साल में जो 5-25 लोग भाग गये, वे बगावत करने वाले और धर्मांतरण वालों के हथकंडे बन गये। अब उनकी बातों में मेरे शिष्य थोड़े ही आते हैं। वे तो गुरुभाई तब तक थे जब तक गुरु के सिद्धान्त में रहते थे। गुरु का सिद्धान्त छोड़ा तो हमारा गुरुभाई नहीं है, वह तो हमारा त्याज्य है। जैसे सुबह मल छोड़कर आते हैं तो देखते नहीं हैं। वमन करते हैं तो देखते नहीं हैं कि कितनी कीमती उलटी है।

उस जमाने में मोबाईल की व्यवस्था नहीं थी। बैजू बावरा को गोपाल की करतूतों का जल्दी से पता नहीं चला। कई गायकों के सिर कट गये, कई अबलाएँ विधवा हो गयीं, उनके बच्चे दर-दर की ठोकर खाने वाले मोहताज हो गये तब बात घूमती-घामती बैजू बावरा के कान पड़ी। उसे बड़ा दुःख हुआ कि इस दुष्ट ने मेरी विद्या का उपयोग अहंकार पोसने में किया ! मैंने कहा था कि यह संगीत की विद्या अहंकार पोसने  के लिए नहीं है।

आखिर वह अपने शिष्य को समझाने के लिए पचासों कोस पैदल चलते-चलते वहाँ पहुँचा, जहाँ गोपाल नायक बड़े तामझाम से रहता था।

राजा साहब का खास था गोपाल, इसलिए अंगरक्षकों, सेवकों और टहलुओं से घिरा था। उसे संदेशा भेजा कि तुम्हारे गुरु तुमसे मिलने को आये हैं। गोपाल ने गुरु से मिलना अपना अपमान समझा। बैजू ने पहरेदारों से बहुत आजिजी की और किसी बहाने से अंदर पहुँचने में सफल हो गया। वृद्ध गुरु आये हैं यह देखकर भी वह बैठा रहा, उठकर खड़े होना उसके अहंकार को पसंद नहीं था। वह जोर से चिल्लायाः “अरे, क्या है बूढ़ा !”

बैजू बोलाः “बेटा ! भूल गया क्या ? मैंने भरी आँखें, भरे हृदय से तुझे विदाई दी थी। मैं वही बैजू हूँ गोपाल ! क्यों तू अहंकार में पड़ गया है ! मैंने सुना तूने कइयों के सिर कटवा दिये। बेटा ! इसलिए विद्या नहीं दी थी। मैं तेरी भलाई चाहता हूँ पुत्र !”

गोपालः “पागल कहीं का, क्या बकता है ! यदि तू गायक है या गुरु है तो कल आ जाना राजदरबार में, दिखा देना अपनी गायन कला का शौर्य। अगर हार गया तो सिर कटवा दिया जायेगा। पागल ! बड़ा आया गुरु बनने को !”

नौकरों के द्वारा धक्के मार के बाहर निकलवा दिया। अहंकार कैसा अंधा बना देता है ! लेकिन गुरुओं की क्या बलिहारी है कि एकाध दाँव अपने पास रखते हैं। उस लाचार दिखने वाले बूढ़े ने राजदरबार में घोषणा कर दी कि  ‘कल हम राजगायक के साथ गीत और संगीत का शास्त्रार्थ करेंगे। अगर हम हारेंगे तो राजा साहब हमारा सिर कटवा सकते हैं और अगर वह हारता है तो उसका कटवायें-न-कटवायें स्वतंत्र हैं।’ आखिर गुरु का दिल गुरु होता है, उदार होता है। तामझाम से अपनी विजय-पताका फहराने वाले गोपाल नायक के सामने वह बूढ़ा बेचारा हिलता-डुलता ऐसा लगा मानो, मखमल से पुराने चिथड़े आकर टकरा रहे हैं लेकिन बाहर से देखने में पुराने चिथड़े थे, भीतर से हरिदास गुरु की कृपा उसने सँभाल रखी थी। गुरु से गद्दारी नहीं की थी। गुरु से गद्दारी करने से गुरु की दी हुई विद्या लुप्त हो जाती है, मेरे गुरुभाई के जीवन में मैंने देखा है।

दूसरे दिन गोपाल ने ऐसा राग आलापा की महलों के झरोखों से देखने वाली रानियाँ, दास-दासियाँ वहीं स्तब्ध हो गयीं, राजा गदगद हो गया, प्रजा भी खुश हो गयी। वह संगीत सुनने के लिए जंगल से हिरण भाग-भागकर आ गये। गोपाल ने गीत गाते-गाते हिरणों के गले में हार पहना दिये और उनको पता ही नहीं चला। गीत-संगीत के प्रभाव से वे इतने तन्मय हो गये थे। गीत बंद किया तो हिरण भाग गये। गोपाल ने गुरु को ललकाराः “औ बुड्ढे ! क्या है तेरे पास ? अब तू दिखा कोई जलवा। अगर तुझमें दम है तो उन भागे हुए जंगली हिरणों को अपने राग से वापस बुला और उनके गले की मालाएँ उतार कर दिखा तो मैं कुछ मानूँ, नहीं तो तुझे मेरे आगे परास्त होने का दंड मिलेगा। सिर कटाने को तैयार हो जा।”

जो अपने गुरु को बुड्ढा कहता है समझ लो कि उसकी योग्यताओं का ह्रास शुरु हो गया, उसकी भावना का दिवाला निकला है। उस आदमी का पुण्य प्रभाव क्षीण और मति-गति विकृत हो जाती है।

अब बैजू बावरा ने गुरु हरिदासजी का ध्यान कियाः

ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

गुरु की इजाजत मिल गयी कि ‘अहंकार सजाने, किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि धर्मरक्षा के लिए अपनी विद्या का उपयोग कर सकते हो।’

बैजू बावरा ने तोड़ी राग गाया। ऐसा राग आलापा कि राज भाव समाधि में चला गया, रानियाँ और प्रजा सब स्तब्ध हो गये। आज तक गोपाल ने जो प्रभाव जमा रखा था वह सब फीका हो गया। जो भागे हुए हिरण थे वे वापस आ गये। बैजू खड़े-खड़े गीत गाते गये और उनके गले की मालाएँ उतारकर एक तरफ ढेर कर दिया। हिरण एकटक देखते रहे, उन्हें अपनी सुधबुध न रही।

बाद में भीमपलासी राग गाते-गाते बैजू ने एक पत्थर पर दृष्टि डाली तो वह पत्थर पिघलने लगा जैसे मोम पिघलता है। पिघले हुए उस पत्थऱ पर उसने अपना तानपूरा फेंका और गीत बंद किया तो पत्थर फिर कड़क हो गया और तानपुरा उसमें जम गया।

बैजू बावराः “हे गुणचोर, गुरुद्रोही गोपाल नायक ! अगर तेरे पास है कोई विद्या, बल या अपनी योग्यता तो इस पत्थर को पिघला और मेरा तानपूरा निकाल कर दिखा।” जिसने अहंकार के कारण कइयों की जानें ली थीं और गुरुद्रोह कर रखा था, अब उसके राग  दम ही कहाँ।

गोपाल ने गीत गाते-गाते कई बार पानी के घूँट भरे, सभी कोशिशें की मगर सब नाकाम रहीं। वह गाते-गाते थक गया, न पत्थर पिघला, न साज निकला, आखिर हार गया। राजा की आँखें क्रोध से चमचमाने लगीं। बैजू ने कहाः “राजन् ! इसे माफ कर दें। आखिर मेरा शिष्य है, बालक है। इसे मृत्युदण्ड न दें।”

गोपालः “मृत्युदण्ड तो इस बुड्ढे को दें यह मेरा गुरु बना था और यह विद्या मुझसे छुपाकर रखी। अगर यह विद्या मुझे सिखाता तो आज मैं हारता नहीं।”

बैजू बावराः “हाँ राजन् ! मुझे ही मृत्युदण्ड दे दो कि मैंने ऐसे कुपात्र को विद्या सिखायी जिसने लोकरंजन न करके, लोकेश्वर की भक्ति का प्रचार न करके अपने अहं को सजाया, कर्म को विकर्म बनाया। जिससे कई अबलाओं का सुहाग छिन गया, कई निर्दोष बच्चों के पिता छिन गये और तुम्हारे जैसे कई राजाओं का राज्य, धन-वैभव इसका अहंकार पोसने में लग गया। मैं अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये।”

राजाः “गायकराज ! तुम्हारे गीतों से पत्थर पिघल सकता है लेकिन न्याय के इस तख्त पर बैठे राजा का कठोर हृदय तुम नहीं पिघला सकते हो। इस गद्दार को मृत्युदण्ड दिया जायेगा।”

क्रोध से चमचमाती आँखों और उग्र हाथ ने इशारा किया – इस नमकहराम, अहंकारी का शिरोच्छेद कर दो। जल्लादों ने गोपाल का सिर धरती पर गिरा दिया। यह घटना बैजू बावरा सह नहीं सका। जैसे कुपुत्र के जाने से भी माता-पिता के दिल में दुःख होता है, ऐसे ही बैजू बावरा के दिल में दुःख हुआ।

सतलज नदी के तट पर गोपाल का अग्नि संस्कार हुआ। उसकी पत्नी ने प्रार्थना कीः “हे गुरुवर ! मेरे पति ने तो अनर्थ किया लेकिन आप तो करूणामूर्ति हैं, उन्हें क्षमा कर दें। मैं अपने पति की अस्थियों के दर्शन करना चाहती हूँ। अस्थियाँ नदी में चली गयी हैं। आप मेरी सहायता करें।”

बैजू बावरा ने उसे ढाढ़स बँधाया और एक राग की रचना की। वह राग उसकी बेटी मीरा को सिखाया। मीरा को बोलेः “तू यह राग गा और भगवान को प्रार्थना कर कि पिता कि अस्थियाँ जो नदी के तल में पहुँच गयी हैं वे सब एकत्रित होकर किनारे आ जायें।” मीरा ने राग गाया और सारी अस्थियाँ किनारे लग गयीं। आज के विज्ञान के मुँह पर थप्पड़ मारने वाले गायक अपने भारत में थे, अब भी कहीं होंगे।

गोपाल ने गुरु की विद्या को अहंकार पोसने में लगाया, क्या हम-आप ऐसी गलती तो नहीं कर रहे हैं ? श्रीकृष्ण कहते हैं- सावधान !….

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।

‘कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।’

(गीताः 4.17)

आप जो भी कर्म करते हो तो वह ईश्वर की प्रीति के लिए, समाज के हित के लिए करो, न अहं पोसने के लिए, न कर्तृत्व-अभिमान बढ़ाने के लिए, न फल-लिप्सा के लिए और न कर्म-आसक्ति के वशीभूत होकर कर्म करो। क्रियाशक्ति, भावशक्ति और विवेकशक्ति इनका सदुपयोग करने से आप करने की शक्ति, मानने की शक्ति, जानने की शक्ति जहाँ से आती है उस सत्स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,16,17 अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जो गुरु-आज्ञा के जितने करीब होते हैं, उतने वे खुशनसीब होते हैं


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

पूज्य मोटा सन् 1930 में स्वतंत्रता संग्राम में आन्दोलनकारियों के साथ लगे थे तो एक बार साबरमती जेल में गये। साबरमती जेल में जब कैदी ज्यादा हो जाते थे तो उनको खेड़ा जेल में ले जाते थे। जब कैदियों का स्थानांतरण होता तो जेल के एक छोटे-से दरवाजे से सिर झुकाकर गुजरना पड़ता था। जब कैदी एक एक होकर निकलते थे तो सिपाही उनकी पीठ पर इतने जोर से डंडा मारता की कैदी बेचारे चिल्ला उठते। दूसरे कैदी देखकर ही डर जाते थे। अंग्रेज लोग इतना डरा देते ताकि उनका हौसला दब जाय, वे दब्बू होकर रहें और आंदोलन बंद हो जाय। उन कैदियों में पूज्य मोटा का पचासवाँ नम्बर था। उनचास कैदियों के पीछे खड़े-खड़े पूज्य मोटा डंडे की आवाज और कैदियों की करूण पुकार सुन रहे थे। जब उनका आठवाँ नम्बर आया तो मोटा जी सोचने लगे कि अब क्या करूँ ? तो वे जिन्हें अपना गुरु मानते थे, उनकी आवाज आयीः “त्राटक कर !” साथ में कैदी साथी शिवाभाई भी थे। पूज्य मोटा ने उनसे पूछाः “तुम्हें कोई आवाज सुनाई दी ?”

उन्होंने कहाः “मुझे तो कुछ सुनाई नहीं पड़ा।” मोटा को लगा क ‘मेरे मन की कल्पना होगी।’ जब सातवाँ नम्बर आया तो फिर से आवाज आयी की त्राटक कर ! तब उन्हें पता चला कि यह मेरे गुरुदेव धूनीवाले दादा केशवानंदजी ने प्रेरणा की है। जब उनके ऊपर डंडा लगने का मौका आया तो मोटा ने गुरुदेव का सुमिरन करके डंडा मारने वाले की आँखों में झाँका, निर्भय होकर ॐकार का जप किया। उन्हें मारने के लिए सिपाही ने डंडा ऊपर तो उठाया लेकिन मारने की हिम्मत नहीं हुई। सिपाही देखता ही रह गया ! बड़े अधिकारी ने उसे डाँटा कि, “क्या करता है ! मार !” सिपाही ने कहा कि “मैं नहीं मार सकता हूँ।” तो बड़े अधिकारी ने डंडा उठाया। मोटा जी ने उसकी भी आँखों में निर्भीक होकर झाँका। ॐकार का चिंतन करते हुए, गुरू के साथ मन जोड़कर देखा तो वह भी डंडा मारने में सफल नहीं हुआ। अधिकारी जेलर के पास गया और बोलाः “एक ऐसा कैदी आया है पता नहीं उसके पास क्या शक्ति है कि हम उसको डंडा नहीं मार सकते हैं।”

उस समय अंग्रेज शासन था इसलिए वे लोगों को बहतु सताते थे। सरकारी पिट्ठू भारत को आजाद करानेवालों को तो अपना दुश्मन मानते थे। जेलर बोलाः “ले आओ इधर !”

“तू कौन है, क्या करता है, कैदी है कि क्या है ? तेरे पास क्या जादू है ?”

जेलर ने सिर से पैर तक घूर-घूरकर देखा। मोटा ने जेलर की आँखों में देखा और कहाः “भाई ! हम तो कुछ नहीं करते, हम तो भगवान का नाम लेते हैं। सबमें ईश्वर है, वह ईश्वर हमारा बुरा नहीं चाहेंगे। आपके अंदर भी हमारा ईश्वर है – ऐसा चिन्तन करके खड़े थे तो उसी ईश्वर की सत्ता से उन्होंने हमको डंडा नहीं मारा और आप भी स्नेह करने लगेंगे।”

जेलर कुछ प्रभावित हुआ और बोलाः “तुम तो इतने अच्छे आदमी हो, फिर इन आंदोलनकारियों के साथ कैसे जुड़े ?”

पूज्य मोटाः “हमने सोचा कि देखें जरा क्या होता है, मान-अपमान का चित्त पर क्या असर होता है ? सबमें ब्रह्म है, आत्मा है, परमेश्वर है, एक सत्ता है तो उसका जरा प्रयोग करने के लिए हम इस आंदोलन में दो साल से जुड़ गये। जेल की सी क्लास की रोटियाँ खाते हैं। ‘सी’ क्लास में लोगों को कैसे-कैसे प्रताड़ित किया जाता है, वह भी हम देखते हैं।

जेलर तो पानी-पानी हो गया। उसने रजिस्टर मँगाया और लिख दिया कि ‘मोटा जी को ‘ए’ क्लास की ट्रीटमेंट दी जाय। इनके भोजन में घी होगा, गुड़ होगा। इनको रात को दूध मिलना चाहिए। इनके बिस्तर पर मच्छरदानी होनी चाहिए।’ एक नम्बर के कैदी को जो सुख सुविधाएँ मिलती हैं, वे सारी लिख दीं और उनके लिए सिफारिश लिख दी। तब से पूज्य मोटा को ‘ए’ क्लास का खाना-पीना मिलने लगा लेकिन वे उसे अपने साथियों में बाँट देते थे और स्वयं “सी” क्लास का भोजन करते कि ‘अनेकों शरीरों में वही-का-वही है। ‘सी’ क्लास, ‘बी’ क्लास, ‘ए’ क्लास सब ऊपर-ऊपर की है। पानी की तरंग, बुलबुले, झाग, भँवर ऊपर-ऊपर है, समुद्र में गहराई में तो पानी एक-का-एक है।

सब घट मेरा साइयाँ खाली घट न कोय।

बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।

कबीरा कुआँ एक है पनिहारी अनेक।

न्यारे न्यारे बरतनों में पानी एक का एक।।

ॐ आनंद…. ॐ माधुर्य…..

शिष्य को जिस दिन से ब्रह्मज्ञानी गुरु से दीक्षा मिल जाती है, उस दिन से गुरू हर क्षण उसके साथ होते हैं, पर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। संसार की झंझटों से तो क्या जन्म-मरण से भी मुक्ति दिला देते हैं-

सभी शिष्य रक्षा पाते हैं,

व्याप्त गुरू बचाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हृदयमंदिर की यात्रा कब करोगे ?


(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

कलकत्ता में दो भाई रहते थे। दोनों के पास खूब धन-सम्पदा थी। उनके बीच इकलौता बैटा था प्राणकृष्ण सिंह। ये दोनों भाइयों की सम्पत्ति के एकमात्र उत्तराधिकारी थे। उनके यहाँ भी एक ही लड़का था। उसका नाम था कृष्णचंद्र सिंह। उनके दादा जी, पिता उन्हें प्यार से ‘लाला’ कहकर पुकारते और नौकर-चाकर ‘लालाबाबू’ कहते थे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद लालाबाबू की वर्धमान कलेक्टरी के सेरेस्तादार पद पर नियुक्ति हो गयी। बाद में उड़ीसा के सर्वोच्च दीवान के पद पर भी उन्हें नियुक्त किया गया।

समय बीता, लालाबाबू के पिताजी का स्वर्गवास हो गया। पिता की जमींदारी और सारी सम्पदा की देखभाल का भार इनके ऊपर आ गया। इनके दादाजी अंग्रेज शासन काल में दीवान थे और बड़ी धन-सम्पदा के मालिक थे।

लालाबाबू कलकत्ता में अपने कामकाज से समय निकाल कर शाम को गंगाजी के किनारे घूमने निकल जाते। पाँच-पचीस मुनीम, मैनेजर और खुशामदखोर साथ चलते। नौकर-चाकर आरामदायक कुर्सी लगा देते, चाँदी का हुक्का रख देते। लालाबाबू आराम से हुक्का गुड़गुड़ाते और गंगाजी की लहरों का आनन्द लेते।

एक शाम को लालाबाबू गंगा किनारे बैठे थे। कोई माई अपने कुटुम्बी को जगा रही थीः “लाला ! शाम हो गयी, कब तक सोओगे, जागो। दे ह्वै गयी, दिन बीतो जाय रियो है। लालाबाबू ! देर ह्वै गयी, जागो !”

पुण्यात्मा लालाबाबू ने सोचा कि ‘सच है, देर हो रही है। जिंदगी का उत्तरकाल शुरु हो रहा है, बाल सफेद हो रहे हैं, अब जागना चाहिए। समाज की चीज धन-दौलत, वाहवाही…. ये कब तक !”

घर आये और कुटुम्बियों से कहाः “अब मैं वृंदावन जाऊँगा। जीवन की साँझ हो रही है, देर हो रही है। मेरे को जागना है।”

सब छोड़-छाड़कर वृंदावन में आ गये। भिक्षुक लोग जैसे भिक्षा माँगते हैं, ऐसे अन्नक्षेत्रों से टुकड़ा माँगकर खाते और ‘राधे-राधे, राधे-कृष्ण, राधे-राधे-राधे…..’ का जप कीर्तन करते। देखा कि ‘अब मैं टुकड़ा माँगकर खाता हूँ पर और साधु-संत भी भिक्षा माँग रहे हैं। घर पर खूब सम्पदा है, वहाँ से धन मँगाकर साधु-संतों के लिए अन्नक्षेत्र और उनके निवास के लिए कुछ आश्रम-वाश्रम बनवायें।’

रंगजी के मंदिर में दर्शन करने गये तो मन में हुआ कि ‘सेठ लक्ष्मीचंद ने यह मंदिर बनवाया है, मैं खूब धन लगाकर इससे भी बढ़िया मंदिर बनवाऊँ।’

घर से कुछ सम्पदा मँगाकर लालाबाबू ने बाँके बिहारी जी का मंदिर बनवाया। अब भगवान को पाने की तड़प ने लालाबाबू की जिज्ञासा जगायी कि अगर ठाकुरजी की प्राण प्रतिष्ठा विधिपूर्वक हुई है तो मूर्ति में प्राण चलने चाहिए।

सर्दियों के दिन थे। लालाबाबू ने पूजारी को मक्खन की एक टिक्की दी और बोलेः “ठाकुर जी के सिर पर रखो। यदि प्राण चलते हैं तो शरीर में गर्मी होती है, मस्तक की गर्मी से मक्खन पिघलेगा।”

उनकी सदभावना से ठाकुरजी के सिर पर रखा हुआ मक्खन पिघलने लगा। वे बड़े भाव विभोर हो गये और जोर जोर से पुकारने लगेः “जय हो प्रभु ! जय हो !! राधे गोविन्द, राधे-राधे, राधे-गोविन्द-राधे, कृष्ण-कण्हैया लाल की जय !” दण्डवत प्रणाम करके ठाकुरजी के चरणों में गिर पड़े। जैसे तुलसीदास जी के कहने से भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी छोड़ दी और धनुष उठाया था, ऐसे ही बाँके बिहारी ने प्रार्थना सुन ली। बाँके बिहारी की मूर्ति से शरीर की गर्मी का प्रमाण मिल गया। मन में संतोष हुआ कि ठाकुर जी में प्राण प्रतिष्ठा हुई है, मूर्ति में चैतन्य जागृत हो गया है।

कुछ दिनों बाद फिर परीक्षा का विचार आया। पुजारी को पतली सी रूई दी और बोलेः “ठाकुर जी की नासिका पर रखो। अगर प्राण-प्रतिष्ठा हुई है तो शरीर में प्राण भी चलने चाहिए। देखें, ठाकुर जी श्वास लेते हैं कि नहीं।”

पुजारी ने रूई रखी तो देखते हैं कि ठाकुरजी की मूर्ति के निःश्वास से रूई हिल रही है ! लालाबाबू अहोभाव से भर गये। लेकिन कुछ समय के बाद देखा कि ‘अब भी ठाकुरजी के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। मेरे सदभाव से, संकल्प से, शुद्ध पूजा से ठाकुरजी की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का तो मैं एहसास करता हूँ परंतु मेरे प्राण, मन ठाकुर जी में रमण करें तब तो बात बने।’

उस समय कृष्णदासजी महाराज प्रसिद्ध थे वृंदावन में। लालाबाबू उनके पास गये और प्रार्थना कीः “महाराज ! मुझे भगवान से मिलाओ, भगवान के दर्शन कराओ, भगवान के स्वरूप का ज्ञान, भगवान की प्रीति का दान दे दो।”

कृष्णदास जी महाराज बोलेः “अभी समय नहीं हुआ है, समय होगा तो मैं तुम्हें खुद आकर दीक्षा दे दूँगा।”

लालाबाबू सोचने लगे कि ‘सब कुछ छोड़कर आया हूँ, पढ़ा लिखा हूँ, सदभाव से ठाकुरजी   मममें प्राण-प्रतिष्ठा का एहसास भी मुझे हो गया किंतु गुरु जी मुझे बोलते हैं कि अभी समय नहीं हुआ है, मैं दीक्षा के योग्य नहीं हुआ हूँ। क्या कमी है ?’

अपनी कमी खोजने जाओ ईमानदारी से तो जल्दी मिल जायेगी। हम अपनी कमी जितनी जानते हैं उतना हमारे कुटुम्बी नहीं जानते, पड़ोसी नहीं जानते, दूसरे नहीं जानते। अपनी कमी पर चादर रखने से हमारी मति-गति और जिज्ञासा दब जाती है। अगर अपनी कमी निकालकर फेंक दें तो हमारे हृदय में परमेश्वर यूँ छलकते हुए प्रकटते हो जायें ! जैसे बोर करने से मिट्टी, कंकड़ हट जाते हैं तो पानी के झरने अंदर मिल जाते हैं और खूब नित्य नवीन जलधारा मिलती रहती है, ऐसे ही अपनी कमी निकालें तो नित्य नवीन सुख, नित्य नवीन प्रेमरस, ज्ञानरस और आरोग्य रस मिलता रहता है। लेकिन हमने वासनाओं से पर्दे से, इच्छाओं के कंकड़ और मिट्टी से उसे दबाकर रखा है, इसलिए स्वास्थ्य के लिए औषधि लेनी पड़ती है, ज्ञान के लिए पोथे रटने पड़ते हैं, प्रसन्नता के लिए क्लबों में भटकना पड़ता है। जिसके जीवन में भगवदरस आ गया उसको प्रसन्नता के लिए क्लबों में नहीं जाना पड़ता, वह निगाह डाल दे तो लोगों में प्रसन्नता छा जाय।

लालाबाबू कमी खोजते गये तो पाया कि ‘मेरे में कमी तो है। लक्ष्मीचंद सेठ ने रंगजी का मंदिर बनवाया और मैंने उनके प्रति प्रतिस्पर्धी भाव रखा। उनके साथ मुकद्दमेबाजी भी की। मुकद्दमे में जीत गया, मेरे में यह अहं भी है।’

जब तक अहं रहता है तब तक ठाकुरजी की प्राप्ति नहीं होती।

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा तुझसे पूछे कि बंदे ! तरी रजा क्या है ?

अभी खुदी अहंवाली है, खुदी ईश्वर में नहीं खोयी।

रंगजी के मंदिर के बाहर अन्न क्षेत्र में गरीब गुरबों को भोजन मिलता था। जहाँ सब याचक लोग कतार में खड़े रहते थे, वहाँ जाकर वे खड़े रह गये। नौकर ने सेठ लक्ष्मीचंद को बताया कि “लालाबाबू जिन्होंने रंगजी के मंदिर जैसे ही भव्य मंदिर बनवाया, साधु-संतों के लिए सदावर्त खोला, वे स्वयं भिक्षा माँगने के लिए अपने यहाँ खड़े हैं।”

सेठ लक्ष्मी चंद कच्चा सीधा, पक्की रसोई और सौ अशर्फियाँ लेकर हाजिर हो गये कि “महाराज ! स्वीकार करें।”

लालाबाबू बोलेः “यह आप मुझ भिक्षुक के लिए लाये हैं ! भिक्षुक को यह शोभा नहीं देता। आप इतना सारा सामान उठाकर लाये हैं, यह आप मेरी सम्पदा का स्वागत कर रहे हैं। इसका मैं अधिकारी नहीं हूँ। मैंने तो आपसे मुकद्दमेबाजी की थी, अब आप मुझे क्षमा कीजिए। एक भिक्षुक, तुच्छ भिक्षुक, आपके द्वार का भिखारी मानकर मुट्ठी भर अन्न दे दीजिए। मैं उसी से निर्वाह कर लूँगा।”

ये नम्रता के, अहंशून्यता के वचन सुनकर लक्ष्मीचंद सेठ के हृदय में छुपे हुए हृदयेश्वर का, परमात्म-सत्ता का भक्तिभाव छलका। आँखों में आँसू, हृदय में प्यार…

लक्ष्मीचंद बोलेः “यह क्या कह रहे हो लालाबाबू !”

लालाबाबू ने कहाः “लक्ष्मीचंद ! क्षमा करो, मैं आपका गुनहगार हूँ।”

दो और दो चार आँखें लेकिन प्रेमस्वरूप परमात्मा दोनों के द्वारा रसमय होकर छलक रहा है, द्रवीभूत हो रहा है। दोनों गले लगे और दोनों एक दूसरे के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने लगे। इतने में कृष्णदास महाराज आये और बोलेः “लालाबाबू ! आ जाओ, दीक्षा का समय हो गया है।”

कृष्णदास जी ने लालाबाबू को दीक्षा दी और कहाः “भगवान को प्राप्त करना है तो किसी से मिलो मत, जब तक ईश्वरप्राप्ति न हो तब तक इसी गुफा में रहो। भिक्षा तुम्हें हम यहीं भिजवा देंगे।”

अमीरी की तो ऐसी की, सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की, कृष्णदास की गुफा में आ बैठे।।

सातत्य…. भक्ति में सातत्य ! हम लोग थोड़ी भक्ति करते हैं, थोड़ा साधन करते हैं और बहुत सा असाधन करते हैं इसलिए ईश्वरप्राप्ति का रास्ता लम्बा हो जाता है, नहीं तो ईश्वर तो हमारा आत्मा है। जिसको हम कभी छोड़ नहीं सकते वह परमात्मा है और जिसको सदा न रख सकें उसी का नाम संसार है।

तो लालाबाबू ने अपना कल्याण कर लिया। ब्रह्मज्ञानी गुरु के चरणों में पहुँच गये और हृदय मंदिर की यात्रा की। पुत्रों और पत्नी के मोहपाश में न पड़े, प्रभुप्रेम में पावन हुए। लालाबाबू ने तो अपना काम बना लिया। अब हम इस माया से निपटकर किस दिन कल्याण के मार्ग पर चलेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 20,21,22 अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ