Monthly Archives: August 2010

निंदकों, कुप्रचारकों की खुल गयी पोल – ईश्वर ने उगला सच


धर्मांतरणवालों के सुनियोजित षड्यंत्र के तहत आश्रम पर झूठे आरोप लगाने वाले ईश्वर नायक को आखिर न्यायाधीश श्री डी.के. त्रिवेदी जाँच आयोग में विशेष पूछताछ के दौरान सच्चाई को स्वीकार करना ही पड़ा। परम पूज्य बापू जी ने करूणा कृपा कर महामृत्युंजय मंत्र द्वारा मृत्युशय्या पर पड़े ईश्वर नायक को नवजीवन दिया था। उसने माना कि ‘मैं जब कनाडा में बीमार पड़ा और मुझे अस्पताल में भर्ती किया गया तो उस दौरान मेरी पत्नी ने फोन द्वारा पूज्य बापू जी का सम्पर्क किया और उनकी सूचना के अनुसार मेरे बिस्तर के पास मंत्रजप किया, उससे मैं ठीक हो गया। मैं मंत्र की शक्ति में मानता हूँ।’

उसने यह भी कहा कि ‘पूज्य बापू जी पीड़ित व्यक्ति को ठीक करने के लिए उससे अथवा तो उसके मित्र-परिवार के पास से कोई पैसा, वस्तु नहीं लेते। पूज्य बापू जी द्वारा पीड़ित व्यक्ति को दुःख से मुक्त करने का जो कार्य किया जाता है, वह मेरी दृष्टि से पूज्य बापू जी की समाज सेवा का एक कार्य है।’

ईश्वर नायक ने यह भी माना कि आश्रम आने के पूर्व उसकी तथा उसके परिवार के लोगों की मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई थी और व्यक्ति के खुद के कर्मों का उसके शरीर के अवयवों पर असर होता है। जैसे कर्म हों उसके अनुसार उसकी शारीरिक स्थिति में फर्क पड़ता है।

आश्रम के पवित्र वातावरण में रहकर ईश्वर नायक ने सुख-शांति का अनुभव किया। उसने स्वीकार किया कि ‘आश्रम में रहकर साधना करने के दौरान मैंने ऐसी स्थिति का अनुभव किया कि मैं जैसे किसी दिव्य जगत में हूँ। मैं एकदम प्रफुल्लित था और ध्यान में मार्मिक हास्य भी करता। मुझे अदभुत आनंद हुआ। आश्रमवासी सेवक (साधक) शयन के पूर्व शास्त्र की चर्चा, माला द्वारा मंत्रजप और ध्यान करके सोते हैं – यह आश्रम एक नित्यक्रम है।’

साजिशकर्ता ने तथा झूठी कहानियाँ बनाने वाले अखबार ने आश्रम के बड़ बादशाह (वटवृक्ष) के बारे में समाज में मिथ्या भ्रम फैलाये। इस बारे में ईश्वर नायक ने सच्चाई को स्वीकार करते हुए कहा कि ‘आश्रम में स्थित वटवृक्ष की परिक्रमा करने से साधकों के प्रश्नों का निराकरण हुआ है, लौकिक लाभ भी हुए हैं – ऐसा मैं जानता हूँ। वटवृक्ष की महिमा के बारे में लोगों के अनुभवों के पत्र एकत्रित करके मेरी पत्नी ने एक पुस्तक भी लिखनी शुरू की थी।’

ईश्वर नायक ने यह भी स्वीकार किया कि ‘पंचेड़, रतलाम (म.प्र.) के पास कोई एक गाँव में पूज्य बापूजी द्वारा एक भंडारे का आयोजन किया गया था। उसमें अनेक आदिवासी आये और भोजन किया। भोजन कराने के बाद पूज्य बापू जी द्वारा मुझे नोटों का एक बंडल उन आदिवासियों में बाँटने के लिए दिया। उस समय मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि पूज्य बापू जी द्वारा मुझे दिये नोट वहाँ उपस्थित सभी आदिवासियों में बाँटने के बाद भी कम नहीं होते थे ! इससे मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने ऐसा चमत्कार देखा कि नोटों का जो बंडल मुझे बाँटने के लिए दिया गया था, वह बढ़ गया है।’

कृतघ्नता का कोई प्रायश्चित नहीं है। परम पूज्य बापू जी के अनगिनत उपकारों को भूलकर षड्यंत्रकारियों का साथ देने वाले ईश्वर नायक ने स्वयं ही अपने हाथों मानो, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चलायी है, जिससे वह सज्जनों की दृष्टि में धिक्कार का पात्र बन गया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 212

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हवा और आरोग्य


हवा का प्रभाव उसकी गति व दिशा के अनुसार स्वास्थ्य तथा वातावरण आदि पर पड़ता है। अत्यधिक खुली हवा शरीर में रूक्षता उत्पन्न करती है, वर्ण बिगाड़ती है, अंगों को शिथिल करती है, पित्त मिटाती है, पसीना दूर करती है। जहाँ हवा का आवागमन न हो वह स्थान उपरोक्त गुणधर्मों से विपरीत प्रभाव डालता है।

ग्रीष्म ऋतु में इच्छानुसार खुली हवा का सेवन करें व शरद ऋतु में मध्यम हवा हो ऐसे स्थान पर रहें। आयु और आरोग्य की रक्षा हेतु जहाँ अधिक गति से हवा नहीं बहती हो, ऐसे मध्यम हवायुक्त स्थान पर निवास करें। यह सदैव हितकर है।

निर्वातमायुषे सेव्यमारोग्याय च सर्वदा।

(भावप्रकाश)

भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने वाली हवा का स्वास्थ्य पर प्रभाव

पूर्व दिशा की हवाः भारी, गर्म, स्निग्ध, दाहकारक, रक्त तथा पित्त को दूषित करने वाली होती है। परिश्रमी, कफ के रोगों से पीड़ित तथा कृश व दुर्बल लोगों के लिए हितकर है। यह हवा चर्मरोग, बवासीर, कृमिरोग, मधुमेह, आमवात, संधिवात इत्यादि को बढ़ाती है।

दक्षिण दिशा की हवाः खाद्य पदार्थों में मधुरता बढ़ाती है। पित्त व रक्त के विकारों में लाभप्रद है। वीर्यवान, बलप्रद व आँखों के लिए हितकर है।

पश्चिम दिशा की हवाः तीक्ष्ण, शोषक व हलकी होती है। यह कफ, पित्त, चर्बी एवं बल को घटाती है व वायु की वृद्धि करती है।

उत्तर दिशा की हवाः शीत, स्निग्ध, दोषों को अत्यन्त कुपित करने वाली, स्निग्धकारक व शरीर में लचीलापन लाने वाली है। स्वस्थ मनुष्य के लिए लाभप्रद व मधुर है।

अग्नि कोण की हवा दाहकारक एवं रूक्ष है। नैऋत्य कोण की हवा रूक्ष है परंतु जलन पैदा नहीं करती। वायव्य कोण की हवा कटु और ईशान कोण की हवा तिक्त है।

ब्राह्म मुहूर्त (सूर्योदय से सवा दो घंटे पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का समय) में सभी दिशाओं की हवा सब प्रकार के दोषों से रहित होती है। अतः इस वेला में वायुसेवन बहुत ही हितकर होता है। वायु की शुद्धि प्रभातकाल में तथा सूर्य की किरणों, वर्षा, वृक्षों एवं ऋतु-परिवर्तन से होती है।

पंखे की हवा तीव्र होती है। ऐसी हवा उदानवायु को विकृत करती है और व्यानवायु की गति को रोक देती है, जिससे चक्कर आने लगते हैं तथा शरीर के जोड़ों को आक्रान्त करने वाली गठिया आदि रोग हो जाते हैं।

खस, मोर के पंखों तथा बेंत के पंखों की हवा स्निग्ध एवं हृदय को आनन्द देने वाली होती है।

अशुद्ध स्थान की वायु का सेवन करने से पाचन-दोष, खाँसी, फेफड़ों का प्रदाह तथा दुर्बलता आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति अपनी नासिका की सिधाई में 21 इंच की दूरी तक की वायु ग्रहण करता है और फेंकता है। अतः इस बात को सदैव ध्यान में रखकर अशुद्ध स्थान की वायु के सेवन से बचना चाहिए।

जो लोग अन्य किसी भी प्रकार की कोई कसरत नहीं कर सकते, उनके लिए टहलने की कसरत बहुत जरूरी है। इससे सिर से लेकर पैरों तक की करीब 200 मांसपेशियों की स्वाभाविक ही हलकी-हलकी कसरत हो जाती है। टहलते समय हृदय की धड़कन की गति 1 मिनट में 72 बार से बढ़कर 82 बार हो जाती है और श्वास भी तेजी से चलने लगता है, जिससे अधिक आक्सीजन रक्त में पहुँचकर उसे साफ करता है।

टहलना कसरत की सर्वोत्तम पद्धति मानी गयी है क्योंकि कसरत की अन्य पद्धतियों की अपेक्षा टहलने से हृदय पर कम जोर पड़ता है तथा शरीर के एक दो नहीं बल्कि सभी अंग अत्यंत सरल और स्वाभाविक तरीके से सशक्त हो जाते हैं।

चतुर्मास में स्वास्थ्य रक्षा

चतुर्मास में आकाश बादलों से ढका रहता है, जिससे उचित मात्रा में जीवनशक्ति नहीं मिल पाती तथा हानिकारक जंतुओं का नाश नहीं होता। अतः चतुर्मास रोग फैलाने वाला काल माना जाता है। इसमें फैले रोगों का विस्फोट शरद ऋतु में होता है।

जीवनशक्ति बढ़ाने के उपायः

साधारणतया चतुर्मास में पाचनशक्ति मंद रहती है। अतः आहार कम करना चाहिए। पन्द्रह दिन में एक दिन उपवास करना चाहिए।

चतुर्मास में जामुन, कश्मीरी सेब आदि फल होते हैं। उनका यथोचित सेवन करें।

हरी घास पर खूब चलें। इससे घास और पैरों की नसों के बीच विशेष प्रकार का आदान-प्रदान होता है, जिससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

गर्मियों में शरीर के सभी अवयव शरीर शुद्धि का कार्य करते हैं, मगर चतुर्मास शुद्धि का कार्य केवल आँतों, गुर्दों एवं फेफड़ों को ही करना होता है। इसलिए सुबह उठने पर, घूमते समय और सुबह-शाम नहाते समय गहरे श्वास लेने चाहिए। चतुर्मास में दो बार स्नान करना बहुत ही हितकर है। इस ऋतु में रात्रि में जल्दी सोना और सुबह जल्दी उठना बहुत आवश्यक है।

अपान मुद्रा

जो बढ़ाये पवित्रता, सात्त्विकता

लाभः इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर की अंदरूनी सफाई में मदद मिलती है। आँतों में फँसे मल और विषैले पदार्थों को आसानी से बाहर निकालने में यह मुद्रा काफी असरदार है। इसके फलस्वरूप शारीरिक व मानसिक पवित्रता में वृद्धि होती है और अभ्यासकर्ता में सात्त्विक गुणों का समावेश होने लगता है। मूत्र-उत्सर्जन में कठिनाई, वायुदोष, अम्लदोष (पित्तदोष), पेटदर्द, कब्जियत और मधुमेह जैसी बीमारियों में भी यह मुद्रा काफी लाभदायक सिद्ध हुई है। जिन्हें पसीना न आने के कारण परेशानी होती हो, वे इस मुद्रा के अभ्यास से जल्द ही उससे छुटकारा पा सकते हैं। यदि छाती और गले में कफ जम गया हो तो इस मुद्रा के अभ्यास से ऐसे उपद्रवी कफ को भी सहज ही शरीर से बाहर किया जा सकता है।

इसका नियमित अभ्यास कैंसर जैसी भयानक बीमारी की भी रोकथाम करने में सहायक है।

विधिः अँगूठे के अग्रभाग से मध्यमा और अनामिका (छोटी उँगली के पासवाली उँगली) के अग्रभागों को स्पर्श करें। बाकी की दो उँगलियाँ सहजावस्था में सीधी रखें।

अवधिः इस मुद्रा का अभ्यास किसी भी समय, कितनी भी अवधि के लिए कर सकते हैं परंतु प्रतिदिन नियमित रूप से करें।

पुनर्नवा

शरीरं पुनर्नवं करोति इति पुनर्नवा।

जो अपने रक्तवर्धक एवं रसायन गुणों द्वारा सम्पूर्ण शरीर को नवीन स्वरूप प्रदान करे, वह है ‘पुनर्नवा’। यह हिन्दी में साटी, साँठ, गदहपुरना, विषखपरा, गुजराती में साटोड़ी, मराठी में घेटुली तथा अंग्रेजी में हॉगवीड नाम से जानी जाती है।

रसायन प्रयोगः हमेशा उत्तम स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए रोज सुबह पुनर्नवा के मूल या पत्तों का 2 चम्मच (10 मि.ली.) रस पीयें अथवा पुनर्नवा के मूल का चूर्ण 2 से 4 ग्राम की मात्रा में दूध या पानी से लें या सप्ताह में 1 दिन पुनर्नवा की सब्जी बना के खायें। इन दिनों में यह बहुत सरलता से उपलब्ध हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 28,29,30 अंक 212

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ज्ञान की दृष्टि बना लो


(ज्ञानसिन्धु पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

जान लिया कीचड़ में कोई सार नहीं, जान लिया तरंग बनकर किनारों से टकराने में सार नहीं, अब तो मुझे जलराशि में ही अच्छा लगता है। भीड़भाड़ में विकारी लोगों के बीच रहना अच्छा नहीं लगता। एकांत में या तो फिर भगवान की मस्ती में जीनेवाले मस् साधकों के बीच रहना अच्छा लगता है, बाकी फिर हमें और कहीं अच्छा नहीं लगता। अब इन्द्रियों के प्रदेश में ज्यादा जीना, घूमना अच्छा नहीं लगता। इन्द्रियातीत आत्मभाव में, आत्मज्ञान में ही सुख का अनुभव है। ‘आओ सेठ ! बैठो सेठ ! फलाना सेठ !’ – ऐसे लोगों के पास अब सेठपने का अहं को पोसने में मजा नहीं आता। अब तो मजा आता है कि मिट जायें….

मिल जाये कोई पीर फकीर, पहुँचा दे भवपार।

जीवन की शाम हो जाय उसके पहले अपने जीवनतत्त्व में विश्रांति मिल जाय बस ! अब ‘फलानी जगह का यह चेयरमैन है, फलाने का यह है….’ – यह सब देख लिया खिलवाड़। अपने को सता के देख लिया, खपा के देख लिया। अभी देखना बाकी है तो फिर जरा करके देख लो। अब तक तो करके देख लिया आजीवन। अनुभवी आदमी एक थप्पड़ से चेत जाता है, नहीं तो फिर दूसरा मिलता है, तीसरा मिलता है।

संसार में प्रकृति थप्पड़ मार-मार के भी तुम्हें परमेश्वर पद में पहुँचाना चाहती है। अगर समझ के पहुँचते हो तो आराम से तुम्हें खेलते-कूदते ले जाने के लिए वह प्रकृति देवी तैयार है। नहीं मानते हो, मोह ममता करते हो तो वह चीज छीन के थप्पड़ मार के भी तुमको जगाने के लिए उत्सुक रहती है वह महामाया, क्योंकि वह तो आखिर परमेश्वर की आह्लादिनी शक्ति ! कोई  तुम्हारे शत्रु की तो है नहीं। माया कहो, प्रकृति कहो, है तो परमेश्वर की आह्लादिनी शक्ति, है तो उसी का अभिन्न अंग ! जैसे जल की चाहे कैसी भी तरंगें हो सागर में, है तो जल का ही विवर्त। परिणाम नहीं विवर्त, परिणाम तो बदल जाता है, विवर्त नहीं बदलता। जैसे दही दूध का परिणाम है, ऐसे ही भगवान का परिणाम जगत नहीं है। भगवान का विवर्त है जगत। वस्तु में अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह विवर्त है। सीपी में रूपा दिखना रस्सी में साँप दिखना विवर्त है।

ताना बुनते हैं न सूत का, तो कपड़े के एक छेड़े से दूसरे छेड़े तक अनेक आड़े-सीधे, गोलाकार, चौरसाकार या लम्बचौरस, जो भी तानाबुनी है सब सूत ही सूत होता है। ऐसे ही जगत में जो भी कुछ तानाबुनी है, सब ब्रह्म ही ब्रह्म की है। फिर मृत्यु कहाँ है ? जन्म भी कहाँ है ? अपना कहाँ ? पराया कहाँ ?

एक जगह महात्मा गाँधी का सूत के कपड़े में सूत का बना हुआ चित्र देखा गया। अब महात्मा गाँधी की वह चप्पल भी सूत है तो हाथ में डंडा भी सूत है और आँख पर चश्मा भी सूत है, जो धोती पहनी है वह भी सूत है और जो हड्डियाँ दिख रही हैं वे भी सूत ही सूत हैं। ऐसे ही सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।

खाँड का खिलौना राजा बना है और महाराजा ! ताज पहना है, रथ पर बैठा है। वाइसराय बना है, ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा है, टोपा पहना है। अब महाराज ! टिकट चेकर भी बना है खाँड का। उस वाइसराय को थप्पड़ मारकर टोपा तोड़ दो और मुँह में डालो तो स्वाद खाँड का आयेगा और टिकट चेकर का टिकट माँगने का हाथ उठा के मुँह में डालो तो स्वाद खाँड का ही आयेगा। उन खिलौनों में से घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिल्ला, ऊँट, हाथी, साहब-साहिबा…. कोई भी मुँह में डालो तो स्वाद खाँड का आयेगा। ऐसे ही ब्रह्मज्ञान की दृष्टि बना लो, फिर जहाँ भी दृष्टि जायेगी परमेश्वर का ही ब्रह्मानंद आयेगा। जिसको एक जगह अपना प्रियतम, प्रिय मिलता है तो कितना आनंदित होता है ! कभी-कभी अपना प्रिय मिलता है, अपनी प्रिय वस्तु मिलती है, प्रिय व्यक्ति मिलता है, प्रिय जगह मिलती है तो कितना सुखद लगता है ! ज्ञानी को तो सब जगह अपना परम प्रिय मिलता रहता है, इसलिए वे परमानंद में मस्त रहते हैं। ज्ञान से तो आपको सदा सर्वत्र प्रिय-ही-प्रिय मिलेगा, जबकि वस्तुओं में तो कभी प्रिय वस्तु मिली तो भी छूट जायेगी। प्रिय वस्तु भोगते-भोगते शरीर दुर्बल हो जायेगा, निराशा आ जायेगी लेकिन ज्ञान की दृष्टि जगी, प्रेम की सरिता बही तो आपको सर्वत्र अपना प्यारा ही प्यारा दिखेगा।

एक आदमी जो अपने-आपको विषय विकार विलास में, सम्पूर्ण शरीर के सुखों में खर्च रहा है वह भी गलत जगह पर है, गलत जगह पर उसके पैर पड़े हैं। भविष्य उसका दुःखद और अँधकारमय होगा। दूसरा आदमी वह है जो सब कुछ छोड़कर निर्जन जंगल में रहता है। अपने शरीर को सुखाता है, मन को तपाता है, ‘संसार खराब है, यह मायाजाल है…. यह ऐसा है, यह वैसा है…. इससे बचो’ – ऐसा करके जो बिल्कुल त्याग करता है, ज्ञानसहित नहीं लेकिन एक धारा में बहते हुए त्याग करता है, वह भी कहीं गलत रास्ते की यात्रा करता है। बुद्धिमान तो वह है जो सबमें सब होकर बैठा है उस सर्वाधिष्ठान पर दृष्टि डाले। मोह-ममता का त्याग, संकीर्णता का त्याग, अहंकार का त्याग, उद्वेग-आवेश का त्याग… और वह त्याग तब सिद्ध होगा जब ज्ञान की दृष्टि से देखोगे, संकीर्णता मिटेगी। परमात्मा की दृष्टि से देखोगे तो मोह-ममता मिटेगी और सर्वेश्वर के ज्ञान से पल्लवित, पावन होकर तुम्हारा हृदय और मस्तिष्क जब तालबद्ध होंगे, तब तुम सब कुछ देते, लेते, खाते महात्यागी और महाभोगी, महान एकांती और महान-महान प्रवृत्ति करने वाले – दोनों की अनुभूतियाँ एक साथ करोगे।

त्यागी एक अलग छोर पर है, भोगी दूसरे छोर पर है लेकिन बुद्धिमान, ज्ञानवान, सत्शिष्य और साधक त्याग और भोग दोनों को साधन बनाकर जिससे त्याग और भोग दिखते हैं उस परम पद में जग जाते हैं। त्याग भोग जाके नहीं, सो विद्वान अरोग। भोग का रोग भी नहीं और त्याग का आवेश भी नहीं, ऐसे जो ज्ञानी हैं वे विद्वान निरोग होते हैं। ‘मैं त्यागी हूँ’ – ऐसा भाव भी जिनको नहीं है, ‘मैं भोगी हूँ’ – ऐसा भाव भी जिनको नहीं है, जो भोग और त्याग दोनों को इन्द्रियों का खिलवाड़ समझते हैं, मन का फुरना समझते हैं और सर्वत्र व्याप्त अपने सर्वेश्वर की सत्ता को अपने से अभिन्न मानते हैं, ऐसे धीर ज्ञानी के जो सत्शिष्य होते हैं, वे हर हाल में हर स्थिति में सुखद अनुभव, सुखद दृष्टि पा लेते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 212

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