जीवन में सत्त्व हो

जीवन में सत्त्व हो


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

श्रुत्वा सत्त्वं पुराणं सेवया सत्त्वं वस्तुनः।

अनुकृत्या च साधूनां सदवृत्तिः प्रजायते।।

‘जीवन में पुराण आदि सात्त्विक शास्त्रों के श्रवण से, सात्त्विक वस्तु के सेवन से और साधु पुरुषों के अनुसार वर्तन करने से सात्त्विक वृत्ति उत्पन्न होती है।’

आदमी में तामसी और राजसी वृत्ति जब जोर पकड़ती है तो वह खिन्न, अशांत और बीमार होता है, उद्विग्न होता है। सब कुछ होते हुए भी दरिद्र रहता है और जब सत्त्वगुण बढ़ता है तो सब कुछ होते हुए अथवा कुछ न होते हुए भी महा शोभा को पाता है।

सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्।

सत्त्वगुण से ज्ञान में प्रगति होती है।

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।

आहार शुद्ध होने पर सत्त्वगुण बढ़ता है।

जिह्वा का आहार भोजन है और आँखों का आहार दृश्य है। कानों का आहार शब्द है, नाक का आहार गन्ध है और त्वचा का आहार स्पर्श है। स्पर्श करने की इच्छा है तो ठाकुर जी के चरणों को स्पर्श करें, ठाकुर जी को चढ़ाये हुए पुष्पों को आँखों पर लगायें। देखने की इच्छा है तो प्रभु के रूप को निहारें अथवा जो रूप दिखे उसमें प्रभु की भावना करें। बोलने की इच्छा है तो प्रभु के विषय में बोलें और सुनने की इच्छा है तो प्रभु के विषय में सुनें। पंचदशी में आया हैः तच्चिंतनं… उसी का चिंतन करें। तत्कथनम्। उसी का कथन करें। अन्योन्यं तत्प्रबोधनम्। उसी के विषय में परस्पर विचार-विमर्श करें। ऐसा करने वाले को जल्दी से जल्दी परमात्म-साक्षात्कार हो जाता है। उसका बेड़ा पार हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 23 अंक 215

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