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अंतःकरण की शुद्धि बड़ी उपलब्धि


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

हमारा और परमेश्वर का सनातन संबंध है, सीधा संबंध है। हमारा और वस्तुओं का संबंध, हमारा और व्यक्तियों का संबंध माना हुआ है। माना हुआ संबंध, मान्यताएँ बदलती हैं और वस्तुएँ टूटती-फूटती है, बदल जाती हैं। वास्तविक संबंध किसी भी परिस्थिति में नहीं टूटता। वास्तविक संबंध को जानना है और माने हुए संबंध को अनासक्तभाव से निभाना है। आसक्ति से व्यक्ति की योग्यताएँ क्षीण हो जाती हैं। कर्म के फल की वांछा से अंतःकरण की योग्यता कुंठित हो जाती है और फल तो जितना प्रारब्ध में होगा, वह मिलकर ही रहता है। निष्काम भाव से किये हुए कर्म अंतःकरण की शुद्धि करते हैं। अंतःकरण की शुद्धि-यह बड़ी उपलब्धि है। जैसे लालटेन के काँच की कालिमा हटाकर साफ-सुथरा कर देने से लालटेन का प्रकाश बाहर फैलता है, ऐसे ही अंतःकरण की अशुद्धि मिटाने से परमात्म-प्रकाश, परमात्म-सामर्थ्य, परमात्म-आनंद मतलब परमात्मा का दिव्य प्रसाद उस व्यक्ति के द्वारा निखरता है। परमात्मा तो सब में है और सबका सनातन स्वरूप है। जो नहीं पहचानते हैं, उनका भी वास्तविक स्वरूप परमात्मा ही है।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

‘इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है।’ (गीताः 15.7)

आप भगवान के सनातन अंश है, फिर भी दुःख, मुसीबत, शोक, चिंता, पीड़ा, जन्म, मृत्यु आदि जो कष्ट सह रहे हैं, इन सारे के सारे कष्टों का एक ही कारण है। आपके और ईश्वर के बीच जो अज्ञान है, वही सारी मुसीबतें दे रहा है।

अंतःकरण के तीन दोष हैं – मल, विक्षेप, और आवरण।’ मल माने वासनाओं की भीड़। यह मिले, वह मिले, यह खाऊँ, यह करूँ…. ये इच्छाएँ है, इनसे अंतःकरणरूपी काँच मैला होता है। जितनी इच्छाएँ ज्यादा होती हैं, उतना चित्त ज्यादा विक्षिप्त रहता है, यह है विक्षेप।

तीसरा होता है ‘आवरण’। आवरण क्या होता है कि जो हम हैं, उसको नहीं जानते हैं। जो नहीं हैं, उसको मानते हैं। वास्तव में जो हम हैं – आत्मस्वरूप, उसका फायदा नहीं उठाते हैं और जो नहीं है, उसी को संभाल-सजाकर मर रहे हैं। इसी का नाम है अविद्या। इसके होने से, इसको सँभालने से आदमी को सारे कष्टों का शिकार बनना पड़ता है।

जो सदा विद्यमान न रहे, उस शरीर को मैं मानते हैं और सदा उसको विद्यमान रखना चाहते हैं। जो वस्तु विद्यमान न रहेगी, सदा उसी को सँभालते हैं, क्योंकि अविद्या का प्रभाव है मस्तिष्क में। अब बात रही कि इस अविद्या को दूर कैसे करें ? काँच साफ हो तो प्रकाश ठीक से फैलेगा, ऐसे ही अंतःकरण की शुद्ध हो तो उसमें परमात्मा का प्रकाश होगा। किंतु अंतःकरण मलिन कैसे होता है और शुद्ध कैसे होता है – यह भी हम लोग जानेंगे तभी तो फायदा उठायेंगे ! सुख का लालच और दुःख का भय – इन दो कारणों से अंतःकरण मलिन रहता है। बाहर की वस्तुओं से सुख लेने का लालच और कोई वस्तु या व्यक्ति चला न जाय, उस दुःख का भय, इससे अंतःकरण अशुद्ध होता है। सुख का लालच छोड़ दें और दुःख का भय छोड़ दें बस, अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा। परमात्म-प्रकाश, परमात्म-आनन्द, परमात्म-मस्ती आने लगेगी। इसमें आहार-शुद्धि, मंत्रजप, सेवा, दान-पुण्य – ये सब सहायक चीजें हैं। एक साधन होता है बहिरंग, दूसरा साधन होता है अंतरंग। जैसे तीर्थयात्रा करते हैं तो वह बहिरंग साधन माना जाता है। भगवन्नाम का जप करते हैं तो वह अंतरंग साधन है, क्योंकि उसका प्रभाव हृदय, रक्त और नस-नाड़ियों पर पड़ेगा। मंत्र का अर्थ समझते हैं तो वह और अंतरंग साधन हो जाता है। गुरुप्रदत्त मंत्र का जप यह अंतरंग साधन है। अंतरंग साधन माने आत्मा के निकटवाला साधन। बहिरंग साधन…. जैसे, गाड़ी को बाहर से रोकना। दस पाँच आदमी खड़े होकर गाड़ी को रोक दें, यह बहिरंग है और ब्रेक पर पैर रखकर गाड़ी रोकें यह अंतरंग है। बाहर से धक्का दे के अथवा घोड़ा वोड़ा बाँधकर गाड़ी को घसीटना, दौड़ाना यह बहिरंग है और गाड़ी में इंजन फिट करके पेट्रोल डालकर फिर चलाना यह अंतरंग हो गया। ऐसे ही अंतःकरण की शुद्धि कुछ बहिरंग साधनों से भी होती है किंतु अंतरंग साधनों से जल्दी होती है, आसानी से होती है।

अपने स्वरूप के ऊपर पाँच कोष हैं, कवर हैं (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय)। जैसे बादाम रोगन (तेल) पर पाँच परते होती हैं ! बादाम का फल, उसके ऊपर एक परत, फिर वह हरी हरी गिरी, दो। फिर वह कठोर लकड़ी जैसी गिरी की परत, तीन। फिर बादामी परत, चार फिर वह सफेद गिरी, पाँच। उसके अंदर बादाम का तेल। बादाम के फल की महत्ता क्यों है ? तेल के कारण। ऐसे ही मानव की महत्ता क्यों है, कैसे है ? कि आत्मा के कारण। तो जिसकी अन्नमय कोष में ज्यादा स्थिति है, ऐसे आदमी को बहिरंग साधन अच्छा लगेगा, जैसे – तीर्थयात्रा आदि मेहनत की भक्ति। वह धार्मिक तो होगा लेकिन ध्यान आदि अंतर्मुख करने वाले साधनों में उसे मजा नहीं आयेगा। जिसका मन अन्नमय कोष से कुछ अंदर है, प्राणमय कोष में है, उसको प्राणायाम, आसन, उपवास… यह सब अच्छा लगेगा। जिसकी मनोमय कोष में स्थिति है, उसको भगवान का भजन कीर्तन, मंदिर में जाना, भगवान के नाम का जप, ध्यान अच्छा लगेगा। जिसकी विज्ञानमय कोष में स्थिति है, उसको भगवतत्त्व की कथा वार्ता के विचार उठेंगे। ‘भगवान क्या हैं, कृष्ण क्या हैं, तीर्थ क्या है, मैं क्या हूँ ?’ यह बात समझने का उसमें स्फुरणा भी होगा और यह बात उसे सुनायी भी पड़ेगी। तो अन्नमय कोष में रहने वाला आदमी बहिरंग है। प्राणमय कोष में जीने वाला आदमी उससे थोड़ा अंतरंग है। मनोमय कोष में जीने वाला आदमी उससे और अंतरंग है। विज्ञानमय कोष में जीने वाला आदमी उससे और अंतरंग है। उससे भी आनंदमय कोष में जीनेवाला आदमी और अंतरंग है। आनंदमय कोष में जीनेवाला साधक अगर किसी सदगुरु को मिल जाता है तो काम बन जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 216

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विद्यार्थियों के लिए सृजनात्मक दिशा


हमारे शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है मस्तिष्क। इसमें दो महत्त्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं – पीनियल ग्रंथी तथा पीयूष ग्रंथि।

पीनियल ग्रंथी भ्रू-मध्य (दोनों भौहों के बीच जहाँ तक तिलक किया जाता है) में अवस्थित होती है। योग में इस ग्रंथि का संबंध आज्ञाचक्र से है। यह ग्रंथि बच्चों में बहुत क्रियाशील होती है किंतु 8-9 वर्ष की उम्र के बाद इसका ह्रास प्रारम्भ हो जाता है और पीयूष ग्रंथि अधिक सक्रिय हो जाती है। इससे बच्चों के मनोभाव तीव्र हो जाते हैं। यही कारण है जिससे कई बच्चे भावनात्मक रूप से असंतुलित हो जाते हैं और किशोरावस्था में या किशोरावस्था प्राप्त होते ही व्याकुल हो जाते हैं तथा न करने जैसे काम कर बैठते हैं। पीनियल ग्रंथि के विकास तथा उसके क्षय में विलम्ब हेतु व पीयूष ग्रंथि के नियंत्रण हेतु 7-8 वर्ष की उम्र से बालकों में भगवन्नाम-जप, कीर्तन, मुद्राएँ, आज्ञाचक्र पर ध्यान आदि के अभ्यास के संस्कार डालना आवश्यक है। इनसे होने वाले लाभ इस प्रकार हैं

ज्ञानमुद्राः हमारे दोनों अँगूठों के अग्रभाग में मस्तिष्क, पीयूष ग्रंथि और पीनियल ग्रंथि से संबंधित तीन मुख्य बिंदु हैं। इन बिंदुओं पर दबाव डाला जाय तो मस्तिष्क में चुम्बकीय प्रवाह बहने लगता है, जो कि मस्तिष्क तथा पीनियल ग्रंथि को अधिक क्रियाशील बनाता है। इससे स्मरणशक्ति, एकाग्रता व विचारशक्ति का विकास होता है। जब हम ज्ञानमुद्रा में बैठते हैं तब  अँगूठे के इसी भाग पर तर्जनी का दबाव पड़ता है और उपर्युक्त सभी लाभ हमें सहज में ही मिल जाते हैं।

जपः माला पर भगवन्नाम जप करने में अँगूठे और अनामिका से माला पकड़कर मध्यमा से घुमाने पर हर मनके का घर्षण उन्हीं बिंदुओं पर होता है।

कीर्तनः कीर्तन में दोनों हाथों से ताली बजाने पर हाथों के सभी एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और हमारे शरीर के समस्त अवयव बैटरी की तरह ऊर्जा सम्पन्न (रिचार्ज) होकर क्रियाशील हो उठते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियाँ भी ठीक से कार्य करने लगती हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ जाती है तथा रोग होने की सम्भावना कम हो जाती है। बालकों द्वारा एक साथ मिलकर प्रभु-वंदन और संकीर्तन करने में एक स्वर से उठी हुई तुमुल ध्वनियाँ वातावरण में पवित्र लहरें उत्पन्न करने में समर्थ होती हैं तथा इस समय मन ध्वनि पर एकाग्र होता है, जिससे स्मरणशक्ति तथा श्रवणशक्ति विकसित होती है। इसीलिए विद्यालयों में सम्मिलित भगवत्प्रार्थना को महत्त्वपूर्ण माना गया है।

आज्ञाचक्र पर ध्यानः ज्ञानमुद्रा में पद्मासन या सुखासन में बैठकर आज्ञाचक्र पर अपने इष्टदेव अथवा गुरूदेव का ध्यान करने का भी यही महत्त्व है। ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः – एकलव्य की सफलता का यह रहस्य सुप्रसिद्ध ही है। एकाग्रता अथवा ध्यान मन के उपद्रवों तथा चंचलताओं को समाप्त करने और उसकी शक्तियों को सृजनात्मक दिशा प्रदान करने में बड़ा सहायक होता है। ध्यान के द्वारा बुद्धि गुणांक(I.Q.) का चमत्कारिक ढंग से विकास होता है, यह प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक तथ्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 215

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शीत ऋतु विशेष


(शीत ऋतुः 23 अक्तूबर से 17 फरवरी)

शीत ऋतु में पाचन शक्ति प्रबल रहती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक व बलवर्धक आहार वर्ष भर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। आइये, इस ऋतु में अपनी सेहत बनाने के लिए कुछ सरल प्रयोग जानें।

बल, सौंदर्य व आयुवर्धक प्रयोगः शरद पूर्णिमा के बाद पुष्ट हुए आँवलों के रस 4 चम्मच, शुद्ध शहद 2 चम्मच् व गाय का घी 1 चम्मच मिलाकर नियमित सेवन करें। इससे बल, वर्ण, ओज, कांति व दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है।

मस्तिष्क शक्तिवर्धक प्रयोगः 6 से 10 काली मिर्च, 2 बादाम, 2 छोटी इलायची, 1 गुलाब का फूल व आधा चम्मच खसखस रात को एक कुल्हड़ में पानी में भिगोकर रखें। सुबह बादाम के छिलके उतारकर सबको मिलाकर पीस लें व गर्म दूध के साथ मिश्री मिलाकर पियें। इसके बाद 2 घंटे तक कुछ न खायें। इससे मस्तिष्क की थकान दूर होकर तरावट आती है एवं शक्ति बढ़ती है। यह प्रयोग 2-3 हफ्ते नियमित करें।

स्फूर्तिदायक पेयः 2 चम्मच मेथीदाना 200 मि.ली. पानी में रात भिगोकर रखें। सुबह धीमी आँच पर चौथाई पानी शेष रहने तक उबालें। छानकर गुनगुना रहने पर 2 चम्मच शुद्ध शहद मिलाकर पियें। दिन भर शक्ति व स्फूर्ति बनी रहेगी।

पौष्टिक नाश्ताः चना, मूँग, मोठ यह सब मिलाकर एक कटोरी, एक मुट्ठी भर मूँगफली व एक चम्मच तिल (काले हों तो उत्तम) रात भर पानी में भिगोकर रखें। सुबह नमक मिलाकर भाप लें, उबाल लें। इसमें हरा धनिया, पालक व पत्तागोभी काटकर तथा चुकंदर, मूली एवं गाजर कद्दूकश करके मिला दें। ऊपर से काली मिर्च बुरककर नींबू निचोड़ दें। चार व्यक्तियों के लिए नाश्ता तैयार है। इसे खूब चबा-चबाकर खायें। यह नाश्ता सभी प्रकार खनिज-द्रव्यों, प्रोटीन्स, विटामिन्स व आवश्यक कैलरीज की पूर्ति करता है। जिनकी उम्र 60 साल से अधिक है व जिनकी पाचनशक्ति कमजोर है, उनको नाश्ता नहीं करना चाहिए।

शक्ति संवर्धक आहारः बाजरे के आटे में तिल मिलाकर बनायी गयी रोटी पुराने गुड़ व घी के साथ खाना, यह शक्ति-संवर्धन का उत्तम स्रोत है। 100 ग्राम बाजरे से 45 मि.ग्रा कैल्शियम, 5 मि.ग्रा. लौह व 361 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। तिल व गुड़ में भी कैल्शियम व लौह प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

सर्दियों में पत्तों सहित ताजी, कोमल मूली का सेवन शक्तिवर्धक सरल साधन है। मूली में गंधक, पोटैशियम, आयोडीन, कैल्शियम, लौह, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम आदि खनिज विपुल मात्रा में पाये जाते हैं। अस्थि-निर्माण में इनकी विशेष आवश्यकता होती है। (पुरानी, पकी मूली अथवा सूखी (बड़ी, मोटी) मूली त्रिदोष-प्रकोपक होने के कारण त्याज्य है।)

बल-वीर्य-पुष्टिवर्धक प्रयोगः शीत ऋतु में दही का सेवन लाभदायी है। दही में दूध से डेढ़ गुना अधिक कैल्शियम पाया जाता है। यह दूध की अपेक्षा जल्दी पच जाता है। शीघ्र शक्ति प्रदान करने वाले द्रव्यों में से दही एक है। ताजे, मधुर दही में थोड़ी मिश्री मिलाकर मथ लें (इससे दही के दोष नष्ट हो जाते हैं) व दोपहर में भोजन के साथ खायें। इससे शरीर पुष्ट हो जाता है।

सावधानीः आम, अजीर्ण, कफ, सर्दी-जुकाम, रक्तपित्त, गुर्दे व यकृत की बीमारी एवं हृदयरोग वालों को दही का सेवन नहीं करना चाहिए।

इन प्रयोगों में देश (स्थान), व्यक्ति की उम्र, प्रकृति व पाचन के अनुसार द्रव्यों की मात्रा कम या अधिक ली जा सकती है।

शीत ऋतु में उपयोगी अश्वगंधा पाक

लाभः सर्दियों में अश्वगंधा से बने हुए पाक का सेवन करने से पूरे वर्ष शरीर में शक्ति, स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है।

यह पाक शक्तिवर्धक, वीर्यवर्धक, स्नायु व मांसपेशियों को ताकत देने वाला एवं कद बढ़ाने वाला एक पौष्टिक रसायन है। यह धातु की कमजोरी, शारीरिक-मानसिक कमजोरी आदि के लिए उत्तम औषधि है। इसमें कैल्शियम, लौह तथा जीवनसत्त्व (विटामिन्स) भी प्रचुर मात्रा में होते हैं।

अश्वगंधा अत्यन्त वाजीकर अर्थात शुक्रधातु की त्वरित वृद्धि करने वाला रसायन है। इसके सेवन से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है एवं वीर्यदोष दूर होते हैं। धातु की कमजोरी, स्वप्नदोष, पेशाब के साथ धातु जाना आदि विकारों में इसका प्रयोग बहुत ही लाभदायी है।

यह पाक अपने मधुर व स्निग्ध गुणों से रस-रक्तादि सप्तधातुओं की वृद्धि करता है। अतः मांसपेशियों की कमजोरी, रोगों के बाद आने वाली दुर्बलता तथा कुपोषण के कारण आने वाली कृशता आदि में विशेष उपयोगी है। इससे विशेषतः मांस व शुक्र धातु की वृद्धि होती है। अतः यह राज्यक्ष्मा(क्षयरोग) में भी लाभदायी है। क्षयरोग में अश्वगंधा पाक के साथ ‘सुवर्ण मालती’ गोली का प्रयोग करें। किफायती दामों में शुद्ध ‘सुवर्ण मालती’ व ‘अश्वगंधा चूर्ण’ आश्रम के सभी उपचार केन्द्रों व स्टॉलों पर उपलब्ध हैं।

जब धातुओं का क्षय होने से वात का प्रकोप होकर शरीर में दर्द होता है, तब यह दवा बहुत लाभ करती है। इसका असर वातवाहिनी नाड़ी पर विशेष होता है। अगर वायु की विशेष तकलीफ है तो इसके साथ ‘महायोगराज गुगल’ गोली का प्रयोग करें।

इसके सेवन से नींद भी अच्छी आती है। यह वातशामक तथा रसायन होने के कारण विस्मृति, यादशक्ति की कमी, उन्माद, मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) आदि मनोविकारों में भी लाभदायी है। दूध के साथ सेवन करने से शरीर में लाल रक्तकणों की वृद्धि होती है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है, शरीर में शक्ति आती है व कांति बढ़ती है। सर्दियों में इसका लाभ अवश्य उठायें।

विधिः 480 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण को 6 लीटर गाये के दूध में, दूध गाढ़ा होने तक पकायें। दालचीनी (तज), तेजपत्ता, नागकेशर और इलायची का चूर्ण प्रत्येक 15-15 ग्राम मात्रा में लें। जायफल, केसर, वंशलोचन, मोचरस, जटामांसी, चंदन, खैरसार (कत्था), जावित्री (जावंत्री), पीपरामूल, लौंग, कंकोल (कबाब चीनी), शुद्ध भिलावे की मिंगी, अखरोट की गिरी, सिंघाड़ा, गोखरू का महीन चूर्ण प्रत्येक 7.5-7.5 ग्राम की मात्रा में लें। रस सिंदूर, अभ्रकभस्म, नागभस्म, बंगभस्म, लौहभस्म प्रत्येक 7.5-7.5 ग्राम की मात्रा में लें। उपर्युक्त सभी चूर्ण व भस्म मिलाकर अश्वगंधा से सिद्ध किये दूध में मिला दें। 3 किलो मिश्री अथवा चीनी की चाशनी बना लें। जब चाशनी बनकर तैयार हो जाय तब उसमें से 1-2 बूँद निकालकर उँगली से देखें, लच्छेदार तार छूटने लगें तब इस चाशनी में उपर्युक्त मिश्रण मिला दें। कलछी से खूब घोंटे, जिससे सब अच्छी तरह से मिल जाये। इस समय पाक के नीचे तेज अग्नि न हो। सब औषधियाँ अच्छी तरह से मिल जाने के बाद पाक को चूल्हे से उतार लें।

परीक्षणः पूर्वोक्त प्रकार से औषधियाँ डालकर जब पाक तैयार हो जाता है, तब वह कलछी से उठाने पर तार-सा बँधकर उठता है। थोड़ा ठंडा करके 1-2 बूँद पानी में डालने से उसमें डूबकर एक जगह बैठ जाता है, फैलता नहीं। ठंडा होने पर उँगली से दबाने पर उसमें उँगलियों की रेखाओं के निशान बन जाते हैं।

पाक को थाली में रखकर ठंडा करें। ठंडा होने पर चीनी मिट्टी या काँच के बर्तन में भरकर रखें, प्लास्टिक में नहीं। 10 से 15 ग्राम पाक सुबह शहद या गाय के दूध के साथ लें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 215

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