(अवतरण दिवसः 23 अप्रैल 2011)
मानवमात्र आत्मिक शांति हेतु प्रयत्नशील है। जो मनुष्य-जीवन के परम-लक्ष्य परमात्मप्राप्ति तक पहुँच जाते हैं, वे परमात्मा में रमण करते हैं। जिनका अब कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया है, जिनको अपने लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है, जिनका अस्तित्वमात्र लोक-कल्याणकारी बना हुआ है, वे संत-महापुरुष कहलाते हैं, क्योंकि उनमें परमात्म-तत्त्व जगा है। महान इसलिए क्योंकि वे सदैव महान तत्त्व ‘आत्मा’ में अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में स्थित होते हैं।
यही महान तत्त्व, आत्मतत्त्व जिस मानव-शरीर में खिल उठता है वह फिर सामान्य शरीर नहीं कहलाता। फिर उन्हें कोई भगवान व्यास, आद्य शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, संत कबीर तो कोई भगवत्पाद पूज्य लीलाशाहजी महाराज कहता है। फिर उनका शरीर तो क्या, उनके सम्पर्क में रहने वाली जड़ वस्तुएँ वस्त्र, पादुकाएँ आदि भी पूज्य बन जाती हैं !
इस अवनितल पर विशेषकर इस भारतभूमि का तो सौभाग्य ही रहा है कि यहाँ अति प्राचीनकाल से लेकर आज तक ऐसी दिव्य विभूतियों का अवतरण होता ही रहा है। आधुनिक काल में भी संत-अवतरण की यह दिव्य परम्परा अवरुद्ध नहीं हुई है। आज भी ऐसे महान संतों से यह तपोभूमि भारत वंचित नहीं है, यह हमारे और मानव-जाति के लिए परम सौभाग्य की बात है।
पूज्य संत श्री आसारामजी बापू भी संतों की ऐसी मनोहर पुष्पमालिका के एक पूर्ण विकसित, सुरभित, प्रफुल्लित पुष्प हैं। पूज्य श्री अमाप आत्मिक प्रेम के स्रोत हैं। उनके चहुँओर ओर एक ऐसा प्रेममय आत्मीयतापूर्ण वातावरण हर समय रहता है कि आने वाले भक्त-श्रद्धालुजन निःसंकोच अपने अंतर से वर्षों से दबे हुए दुःख, शोक तथा चिंताओं की गठरी खोल देते हैं और हलके हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं- “बापू जी ! आपके पास न मालूम ऐसा कौन सा जादू है कि हम फिर-फिर से आये बिना नहीं रह पाते।”
पूज्यश्री कहते हैं- “भाई ! मेरे पास ऐसा कुछ भी जादू या गुप्त मंत्र नहीं है। जो संत तुलसीदास जी, संत कबीरजी के पास था वही मेरे पास भी है। वशीकरण मंत्र प्रेम को…..
बस इतना ही मंत्र है। सबको प्रेम चाहिए। वह प्रेम मैं लुटाता हूँ। सब कुछ तो पहले ही लुटा चुका हूँ इसलिए मुझे ऐसा अखूट प्रेम का धन ‘आत्मधन’ मिला है कि उसे कितना भी लुटाओ, खुटता नहीं, समाप्त नहीं होता। लोग अपने-अपने स्वार्थ को नाप-तौलकर प्रेम करते हैं किंतु इधर तो कोई स्वार्थ है नहीं। हमने सारे स्वार्थ उस परम प्यारे प्रभु के स्वार्थ के साथ एक कर दिये हैं। जिसके हाथ में सबके प्रेम और आनन्द की चाबी है उस प्रभु को हमने अपना बना लिया है, इसलिए मुक्तहस्त प्रेम बाँटता हूँ। आप भी सबको निःस्वार्थ भाव से, आत्मभाव से देखने और प्रेम करने की यह कला सीख लो।”
ऐसे महापुरुष जिस ईश्वरीय आनंद में सदा मग्न रहते हैं, वही आनंद वे अपने आसपास भी लुटाते रहते हैं। जो ठीक ढंग से उन्हें थोड़ा भी समझ पाते हैं, वे उनसे लाभ लेकर साधना में आगे बढ़ते रहते हैं।
जिनका अहं गल गया है, जो भीतर से मिटे हैं, जिनका देहाध्यास विसर्जित हो चुका है ऐसे महापुरुषों के द्वारा ही विश्व में महान कार्यों का सृजन होता रहता है। ऐसे संतों के कारण ही इस पृथ्वी में रस है और दुनिया में जो थोड़ी-बहुत खुशी और रौनक देखने को मिलती है वह भी ऐसे महापुरुषों के प्रकट या गुप्त अस्तित्त्व के कारण ही है। ‘जिस क्षण विश्व से ऐसे महापुरुषों का लोप होगा, उसी क्षण दुनिया घिनौना नरक बन जायेगी और शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी।’ – ऐसा स्वामी विवेकानन्द ने कहा था।
विनोद-विनोद में ऐसे महापुरुष मनुष्यों को आत्मज्ञान का जो अमृत परोसते जाते हैं, उसका संसार में कोई मुकाबला नहीं है।
पूज्य बापू जी का जीवन इस धरती पर मनुष्य जाति के लिए दिव्य प्रेरणा स्रोत है, आनंद का अखूट झरना है। उनका सान्निध्य संसार के लोगों के हृदयों में ज्ञान की वर्षा करता है, उन्हें शांतिरस से सींचता है, प्रेम को पल्लवित करता है, सूझबूझ को सात्त्विक रस से खींचता है, समत्व की सुरभि, विवेक का प्रकाश तथा श्रद्धा और सजगता का सत्त्व भरता है। उनके सत्संग-सान्निध्य और आत्मिक दृष्टिपातमात्रक से लोगों के हृदय में स्फूर्ति तथा नवजीवन का संचार होता है। उनकी हर अँगड़ाई तथा क्रिया में मानव का हित छिपा रहता है। उनके दर्शनमात्र से जीवन से निराश और मुरझाये हुए लाखों-लाखों हृदय नवीन चेतना लेकर खिल उठते हैं। जैसे विशाल समुद्र में कोई जहाज भटक जाय, उसी प्रकार संसार की भूलभुलैया में भटके हुए लोगों के लिए पूज्य श्री का जीवन एक दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है। उनके सान्निध्य में आने वाला हर व्यक्ति उनकी महस के महक उठता है।
पूज्य बापू जी एक ऐसे विशाल वटवृक्ष की भाँति इस धरती पर फैले हुए खड़े हैं, जिसके नीचे हजारों-हजारों यात्राओं तथा दुःखों के ताप से, संसार से तप्त हुए लोग विश्राम ले-लेकर अपने वास्तविक गंतव्य स्थान की ओर गति कर रहे हैं। देवर्षि नारद जी कहते हैं-
संसारतापे तप्तानां योगः परमौषधः।
संसार के त्रिविध तापों से तपे हुए लोगों के लिए पूज्य बापू जी का सत्संग-योग परम अमृत का काम करता है। रंक से लेकर राजा तक और बाल से लेकर वृद्ध तक सभी पूज्य श्री की कृपा के पात्र बनकर अपने जीवन को ईश्वरीय सुख की ओर ले जा रहे हैं। अमीर-गरीब, सभी जाति, सभी सम्प्रदाय, सभी धर्मों के लोग उनके ज्ञान का, आत्मानंद का, आत्मानुभव और योग-सामर्थ्य का प्रसाद लेते हैं। वह स्थान धन्य है जिनकी कोख से वे प्रकट हुए हैं। वह मनुष्य बड़भागी हैं जो उनके सम्पर्क में आता है। वह वाणी धन्य है जो उनका स्तवन करती है। वे आँखें धन्य हैं जो उनका दर्शन करती है और वे कान धन्य हैं जिनको उनके उपदेशामृत-पान करने का अवसर मिलता है।
वे सदैव परमात्मा में स्थित रहते हुए जगत के अनंत दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए ज्ञान, भक्ति, योग, कीर्तन, ध्यान, आनंद-उल्लास की धारा बहाते रहते हैं, समस्त दुःखों के मूल अज्ञान का नाश करते हैं। उनकी वाणी से निरंतर ज्ञानामृत झरता है। वे जो उपदेश देते हैं वह पावन शास्त्र हो जाता है। उनके नेत्रों से प्रेममयी, शीतल, सुखद ज्योति निकलती है। उनके हृदय से प्रेम तथा आत्मानंद के स्रोत(झरने) फूटते हैं। उनके मस्तिष्क से विश्व-कल्याण के विचार प्रसूत होते हैं। जिस पर उनकी दृष्टि पड़ती है, उसके मन, बुद्धि, अंतःकरण पावन होने लगते हैं। जो उनके सम्पर्क में आ जाता है, वह पाप-ताप से मुक्त होकर पवित्रात्मा होने लगता है। उपनिषद कहती हैः
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावराणापिमुच्यंते किं पुनः प्राकृता जनाः।।
‘ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !’
उन महापुरुषों के भीतर इतना आनंद भरा होता है कि उन्हें आनंद हेतु संसार की ओर आँख खोलने की भी इच्छा नहीं होती। जिस सुख के लिए संसार के लोग अविरत भागदौड़ करते हैं, रात दिन एक कर देते हैं, एड़ी से चोटी तक का पसीना बहाते हैं फिर भी वास्तविक सुख नहीं ले पाते केवल सुखाभास ही उन्हें मिलता है, वह सच्चा सुख, वह आनन्द उन महापुरुषों में अथाह रूप से हिलोरें लेता है और उनका सत्संग-दर्शन करने वालों पर भी बरसता रहता है।
धन्य है ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने सब स्वार्थों की, मोह-ममता की, अहं की होली जला दी और परमात्म-ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर दुस्तर माया से पार हो गये तथा मनुष्य-जीवन के अंतिम लक्ष्य उस परम निर्भय आत्मपद में आरूढ़ हो गये। लाख-लाख बंदन हैं ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों को जो संसार के त्रिताप से तपे लोगों को उस परम निर्भय पद की ओर ले चलते हैं। कोटि-कोटि प्रणाम हैं ऐसे महापुरुषों को जो अपने एकांत को न्योछावर करके, अपनी ब्रह्मानंद की मस्ती को छोड़कर भी दूसरों की भटकती नाव को किनारे ले जा रहे हैं। हम स्वयं आत्मशांति में तृप्त हों, आत्मा की गहराई में उतरें, सुख-दुःख के थपेड़ों को सपना समझकर उनके साक्षी सोऽहं स्वभाव का अनुभव करके अपने मुक्तात्मा जितात्मा, तृप्तात्मा स्वभाव का अनुभव कर पायें, उसे जान पायें – ऐसी उन महापुरुष के श्रीचरणों में प्रार्थना है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 220
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