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भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान


(पं. मदनमोहन मालवीय जयंतीः 25 दिसम्बर 2011)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय जी हिन्दू धर्म व संस्कृति के अनन्य पुजारी थे । उन्होंने अपना सारा जीवन भारत माता की सेवा में अर्पित कर दिया था । वे जितने उदार, विनम्र, निभिमानी, परदुःखकातर एवं मृदु थे उतने ही संयमी, दृढ़, स्वाभिमानी व अविचल योद्धा भी थे । मालवीय जी के जीवन में हिन्दू धर्म व संस्कृति का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था ।

एक बार कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने मालवीय जी के कार्यकाल से प्रसन्न होकर उनको एक पत्र भेजा । उसे पढ़कर मालवीय जी असमंजस में पड़ते हुए धीमी आवाज में बोलेः “उन्होंने यह तो अजीब प्रस्ताव रखा है । क्या कहूँ, क्या लिखूँ ?”

पास बैठे एक मित्र ने पूछाः “पंडित जी ! ऐसी क्या अजीब बात लिखी है ?”

“कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय मेरी सनातन उपाधि छीनकर एक नयी उपाधि देना चाहते हैं । इस पत्र में लिखा है कि ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ आपको ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि से अलंकृत करके आपको गौरवान्वित करना चाहता है ।”

तभी एक अन्य सज्जन ने हाथ जोड़कर कहाः “प्रस्ताव तो उचित ही है । आप ना मत कर दीजियेगा । यह तो हम वाराणसीवासियों के लिए विशेष गर्व की बात होगी ।”

मालवीय जी बोलेः “अरे ! तुम तो बहुत ही भोले हो भैया ! इसमें वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी । यह तो वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है ।” और तुरन्त ही उन्होंने उस पत्र का उत्तर लिखाः ‘मान्य महोदय ! आपके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद । मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर न मानते हुए आप उस पर पुनर्विचार कीजियेगा । मुझे आपका यह प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है । मैं जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूँ । जो भी ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है, उसके लिए ‘पंडित’ से बढ़कर अन्य कोई भी उपाधि नहीं हो सकती । मैं ‘डॉक्टर मदनमोहन मालवीय’ कहलाने की अपेक्षा ‘पंडित मदनमोहन मालवीय कहलवाना अधिक पसंद करूँगा । आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर करते हुए इसे ‘पंडित’ ही बना रहने देंगे ।’

मालवीय जी की कार्य करने की शैली बड़ी मधुर और सरल थी । सहयोगी स्वभाव एवं अन्य सदगुणों के कारण आलोचक भी उनके कायल हो जाते थे । वृद्धावस्था में जब मालवीय जी तत्कालीन वायसराय की परिषद (काउंसिल) के वरिष्ठ पार्षद (काउंसलर) थे, तब उनकी गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय ने एक दिन कहाः “पंडित मालवीय ! हिज मेजेस्टी की सरकार आपको ‘सर’ की उपाधि से अलंकृत करना चाहती है ।”

मालवीय जी मुस्कराते हुए बोलेः “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं, किंतु वंश-परम्परा से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं त्यागना चाहता । मुझे ‘पंडित’ की उपाधि ईश्वर ने प्रदान की है । मैं इसे त्यागकर उसके बंदे की दी गयी उपाधि को क्यों स्वीकार करूँ !”

वाइसराय यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया । थोड़ी देर बाद बोलाः “आपका निर्णय सुनकर हमें आपके पांडित्य पर जो मान था वह दुगना हो गया । आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उस उपाधि की गौरव-गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं ।”

इसी प्रकार एक बार काशी के पंडितों की एक सभा ने मालवीय जी का नागरिक अभिनंदन कर उन्हें ‘पंडितराज’ की उपाधि दिये जाने का प्रस्ताव रखा । यह सुनकर वे बोलेः “अरे पंडितो ! पांडित्य का मखौल क्यों बना रहे हो ? पंडित की उपाधि तो स्वतः ही विशेषणातीत है । इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिये ।”

सभी का सिर नीचे झुक गया । इस प्रकार उनके जीवन में कई बार ऐसी घटनाएँ घटीं  परंतु वे न तो डॉक्टर बने, न सर हुए और न ही पंडितराज, बल्कि इन सबसे ऊपर स्वाभिमान के साथ जीवन भर अपनी संस्कृति से विरासत में मिले ‘पांडित्य’ का गौरव बढ़ाते रहे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011,  पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 228

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भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानो


(आत्मनिष्ठ बापू जी के मुखारविंद से निःसृत ज्ञानगंगा)

भगवान कहते हैं-

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युजन्मदाश्रयः ।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।

‘हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन ।’ (गीताः 7.1)

अब यहाँ ध्यान देने योग्य जैसी बात है कि भगवान बोलते हैं, ‘मुझमें….’ । अगर भगवान का ‘मैं’ हमने ठीक से समझा और हमारे में आसक्ति का जोर है तो हम भगवान के किसी रूप को भगवान समझेंगे तथा हमारे चित्त में द्वेष है तो कहेंगे कि भगवान कितने अहंकारी हैं, कहते हैं कि मेरे में ही आसक्त हो ।

श्रीकृष्ण का ‘मैं’ जब तक समझ नहीं आता अथवा श्रीकृष्ण के ‘मैं’ की तरफ जब तक नज़र नहीं जाती, तब तक श्रीकृष्ण के उपदेश को अथवा श्रीकृष्ण के इस अदभुत इशारे को हम समझ नहीं सकते । मय्यासक्तमनाः पार्थ…. मुझमें आसक्त…. मेरे में जिसकी प्रीति है । हमारे में राग है तो श्रीकृष्ण के साकार रूप में ही प्रीति होगी और हमारे में द्वेष है तो कहेंगे श्रीकृष्ण बोलते हैं, ‘मेरे में ही प्रीति….’ यह तो एकदेशीयता हुई । सच पूछो तो श्रीकृष्ण का जो ‘मैं’ है, वह एकदेशीयता को तोड़कर व्यापकता की खबरें सुनाने  वाला है ।

श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ कही नहीं, श्रीकृष्ण के द्वारा ‘गीता’ गूँज गयी । हम कुछ करते हैं तो या तो अनुकूल करते हैं या प्रतिकूल करते हैं । करने वाले परिच्छिन्न जीव रहते हैं । श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो परिच्छिन्नता को मौजूद रखकर कुछ कहें । श्रीकृष्ण का तो इतना खुला जीवन है, इतनी सहजता है, स्वाभाविकता है कि वे ही कह सकते हैं कि मेरे में आसक्त हो । आसक्ति शब्द, प्रीति शब्द…. शब्द तो बेचारे नन्हें पड़ जाते हैं, अर्थ हमें लगाना पड़ता है । जो हमारी बोलचाल की भाषा है वही श्रीकृष्ण बोलेंगे, वही गुरु बोलेंगे ।

भाषा तो बेचारी अधूरी है, अर्थ भी उसमें हमारी बुद्धि के अनुसार लगता है लेकिन हमारी बुद्धि जब हमारे व्यक्तित्व का, हमारी देह के दायरे का आकर्षण छोड़ दे तो फिर कुछ समझने के काबिल हो पाते हैं और समझने के काबिल  होते-होते यह समझा जाता है कि हम जो कुछ समझते हैं वह कुछ नहीं । आज तक जो हमने समझा है, जाना वह कुछ नहीं । जिसको जानने से सब जाना जाता है वह हमने नहीं जाना, जिसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया, जिसको समझने से सब समझा जाता है उसको नहीं समझा । तो बुद्धि में यदि अकड़ है तो तुच्छ-तुच्छ जानकारियाँ एकत्रित करके हम अपने को विद्वान या ज्ञानी या जानकार मान लेते हैं । अगर बुद्धि में परमात्मा के प्रति प्रेम है, आकांक्षाएँ नहीं हैं तो फिर हमने जो कुछ जाना है उसकी कीमत हमको नहीं दिखती, जिससे जाना जाता है उसको समझने की हमारे क्षमता आती है ।

भगवान बोलते हैं- मय्यासक्तमनाः पार्थ…. अर्थात् मेरे में जिसकी प्रीति है… उपवास में पानी पीने में, न पीने में, खाने में अथवा न खाने में, मिठाई में अथवा तीखे में – यह खण्ड-खण्ड में प्रीति नहीं, मुझ अखण्ड में जिसकी प्रीति हुई है ऐसे अर्जुन ! मैं तेरे को अपना समग्र स्वरूप सुनाता हूँ । और जिसने भगवान के समग्र स्वरूप को जान लिया, उसको और कुछ जानना बाकी नहीं बचता । जिसने उस एक को, समग्र स्वरूप को न जाना और बाकी सब कुछ जाना, हजार-हजार, लाख-लाख जाना तो उसका लाख-लाख जानना सब बेकार हो जाता है ।

जिसने एक को जान लिया उसने और किसी को नहीं जाना तो भी चल जाता है । रामकृष्ण परमहंस ने एक को जाना, बाकी का न जाना तो भी काम चल गया । हिटलर ने बाकी बहुत कुछ जाना, एक को नहीं जाना तो मरा मुसीबत में । विश्वामित्र जी ने एक को जाना तो भगवान राम और लक्ष्मण पैरचम्मी कर रहे हैं । रावण ने एक को नहीं जानकर बहुत-बहुत जाना तो हर बारह महीने में दे दियासिलाई !

अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में जो फैल रहा है वही तुम्हारे हृदय में बस रहा है लेकिन हमारी संसार की जो आसक्तियाँ हैं, मान्यताएँ हैं उनको छोड़ने की युक्ति हमको नहीं है ।

श्वास छोड़ते समय भावना करें कि ‘मेरी इच्छाएँ, अहंकार, वासना अलविदा…. अब तो सर्वत्र मेरा परमात्मा है, मेरा आत्मा ही रह गया है । इच्छाएँ-वासनाएँ चली गयीं तो ईश्वर ही तो रह गया । मैं ईश्वर में डूब रहा हूँ, मेरा आत्मा ही परमात्मा है । ॐ आनंद आनंद….’ इस प्रकार का भाव करके जो ध्यान करता है, चुप होता है वह भगवान में प्रीतिवाला हो जाता है । रस आने लगेगा तो मन उस तरफ लगेगा । मन को रस चाहिए । इस ढंग से यदि तुम मन को रस लेना सिखा दो तो भगवान में प्रीति हो जायेगी और भगवान का समग्र स्वरूप संत जब बतायेंगे और भगवान के वाक्य जब तुम सुनोगे तो समग्र स्वरूप का साक्षात्कार हो जायेगा ।

जितना हेत हराम से, उतना हरि होये ।

कह कबीर ता दास, पला न पकड़े कोय ।।

फिर यमदूत की क्या ताकत है कि तुम्हें मार सके, मौत की क्या ताकत है कि तुम्हें आँख दिखा सके ! वह तो तुम्हारे शरीर से गुजरेगी लेकिन तुम उसके साक्षी होकर अपने स्वरूप में जगमगाते रहोगे ।

भगवान बोलते हैं- मय्यासक्तामनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः । जो मेरे में… ‘मेरे में’ माना रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण अपने को उस रूप में ‘मैं’ नहीं कह रहे थे । श्रीकृष्ण का ‘मैं’ तो समग्र ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है, सबके दिलों में फैला हुआ है । हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमे आसक्तचित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, सम्पूर्ण  बल, सम्पूर्ण ऐश्वर्य आदि जिसकी सत्ता से चमक रहा है, जिसका है उसको जान ले तो तेरा बेड़ा पार हो जायेगा ।

यह कठिन नहीं है, बड़ा आसान है । इसको जानने अथवा परमात्मा को पाने जैसा दुनिया में और कोई सरल कार्य नहीं लेकिन मनुष्य इतना छोटी बुद्धि का हो गया कि थोड़ी-थोड़ी चीजों में उलझ जाता है । ईंट, चूना, लोहा, लक्कड़ के मकान में जिंदगी खो देगा, मिटने वाले मित्रों में समय खो देगा, जलने वाले शरीर में समय खो देगा इसलिए ज्ञान दुर्लभ हो जाता है, वरना यह दुर्लभ नहीं ।

तुम्हें कोई सम्राट दिखता है, कोई शहंशाह दिखता है, कोई धनवान दिखता है तो उसके धन को और शहंशाही को अपने से पृथक नहीं मानकर उस धन और शहंशाही की इच्छाओं और वासनाओं को बढ़ाकर नहीं लेकिन उस धन और शाहाना नज़र को अपनी नज़र समझकर तुम मज़ा लूटो । किसी का धन देख के, किसी का सौंदर्य देख के, किसी की सत्ता देख के तुम वैसा बनने की कोशिश करोगे तो बनते-बनते युग बीत जायेंगे, वह रहेगा नहीं लेकिन जो धनवान है, सत्तावान है, ऐश्वर्यवान है उसमें भी मैं ही उस रूप में मज़ा ले रहा हूँ – ऐसा सोचोगे तो बेड़ा जल्दी पार हो जायेगा ।

समग्र ऐश्वर्य, समग्र सत्ता, समग्र रूप सच पूछो तो उस तुम्हारे चैतन्य के ही हैं । जैसे रात्रि के स्वप्न में तुम देखते हो कि कोई कनाडा का प्रधानमंत्री है, कोई भारत का राष्ट्रपति है लेकिन वे सब स्वप्न में तुम्हारे बनाये हुए हैं । तुम्हीं ने सत्ता दी है उनको । स्वप्न में तो तुम्हारी चैतन्य सत्ता ने स्वप्न समष्टि को सत्ता दी, ऐसे ही जाग्रत में तुम तो लगते हो व्यष्टि…. ‘मैं एक छोटा व्यक्ति और ये बड़े-बड़े ।’ तुम अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते हो तब तुम छोटे दिखते हो और वे बड़े-बड़े दिखते हैं । तुम अपने को जानो तो तुमको पता चलेगा कि ये सब मेरे बनाये हुए पुतले हैं ।

संसार तजल्ली1 है मेरी….. अंदर-बाहर मैं ही हूँ ।

सब मुझी से सत्ता पाते हैं….. हर हर ॐ हर हर ॐ…

1 प्रकाश, प्रताप

ऐसा अनुभव करने के लिए भगवान में प्रीति हो जाय, भगवान में अनन्य भाव हो जाय । मूर्तियाँ अन्य-अन्य, रूप अन्य-अन्य, रंग अन्य-अन्य, भाव अन्य-अन्य… उन सबको देखने वाला एक अनन्य आत्मा मैं ही तो हूँ । जैसे तुम्हारे शरीर में अन्य-अन्य को देखने वाले तुम अनन्य हो, अन्य नहीं हो ऐसे ही सबकी देहों में भी तुम्हीं हो । इस प्रकार का यदि तुम्हें अनुभव होने लगे, अरे महाराज ! फिर तो तुम्हारी जिस पर नज़र पड़े न, वह भी निहाल हो जाय, वह भी खुशहाल हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 228

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विश्व को नंदनवन बनाने के लिए…


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

सनातन धर्म की सोलह कलाएँ हैं। आत्मदेव के, परमेश्वर के सत्स्वभाव की चार कलाएँ हैं- स्वयं रहें और दूसरों को रहने दें, मरने से डरें नहीं और दूसरों को डरायें नहीं। चित् की चार कलाएँ हैं – आप ज्ञान, स्वभाव में रहें और दूसरों ज्ञान-सम्पन्न करें, आप अज्ञानी नहीं बनें और दूसरों को अज्ञानी बनायें नहीं।

आप  हैं तो दूसरों को भी होने दो क्योंकि सत्, सत्, सत् अनेक नहीं हैं, आकृतियाँ अनेक हैं। सागर एक है लहरे अनेक हैं, मिट्टी एक है उसके बर्तन अनेक हैं – ऐसे ही जो सत् यहाँ है, वही सर्वत्र है। जिस सत् की सत्ता से मेरी आँखें देखती हैं, उसी सत् की सत्ता से आपकी देखती हैं। आँखें छोटी-बड़ी हो सकती हैं, शरीर की आकृतियाँ अलग-अलग हो सकती हैं किंतु जिस चैतन्य से मेरे हृदय की धड़कनें चलती हैं, उसी से  आपकी चलती हैं। इससे हम आप एक ही हैं। ऐसे ही मेरे दिमाग में जहाँ से ज्ञान से आता है, कीड़ी के दिमाग में बी उसी सत्ता से ज्ञान आता है। कीड़ी किसी स्कूल कॉलेज में सीखने पढ़ने नहीं जाती लेकिन वह हवाओं से परिस्थितियाँ जानकर अपने अण्डे लेकर सुरक्षित जगह पर चली जाती है। शक्कर, नमक को पहचानने का ज्ञान कीड़ी में भी है। नमक छिटक दो, राख छिटक दो तो कीड़ी भाग जायेगी और शक्कर या गुड़ का बूरा छिटक दो तो वह चिपक जायेगी, तो कीड़ी को भी तो ज्ञान है !

तो सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप सत्ता वही की वही है, अब किससे वैर करोगे ? कीड़ी से वैर करोगे कि पड़ोसी से वैर करोगे ? सासु से वैर करोगी कि देवरानी से वैर करोगी ? वैर ऊपर से आता है। राग, द्वेष, भय, लोभ – ये विकार आते हैं, चले जाते हैं। तुम सदा क्रोधी नहीं रह सकते, सदा कामी नहीं रह सकते, सदा लोभी नहीं रह सकते, सदा चिंतित नहीं रह सकते, लेकिन तुम अपने को एक पल भी छोड़ नहीं सकते। तुम सदा हो, ये विकार सदा नहीं हैं।

बचपन बदल गया, जवानी बदल गयी, दुःख बदल गये, सुख बदल गये, काम बदल गया, क्रोध बदल गया, लोभ बदल गया, भय बदल गया, चिंता बदल गयी, पदोन्नति (प्रमोशन) का लालच बदल गया, बुढ़ापे की चिंता बदल गयी अथवा गरीबी बदल गयी, अमीरी बदल गयी लेकिन उनको देखने वाला आप नहीं बदले। तो आप सत् हैं, चेतनस्वरूप परमेश्वर है, अल्लाह है, गॉड है।

आनंद की चार कलाएँ हैं – आप आनंद में रहें और दूसरों को आनंद दें, आप दुःखी न रहें और दूसरों को दुःखी न करें।

आपका मिलना व्यर्थ न जाय, जिससे मिलें उसको कुछ-न-कुछ आनंद की किरणें दें, आनंद, ज्ञान, सत्संग की प्रसादी बाँटें। अपना असली स्वभाव जागृत करें। काम, क्रोध ये नाम-रूप के हैं, नकली हैं। नकली में आप उलझें नहीं और दूसरे को उलझाये नहीं। असली में आप जाग जायें और दूसरों को उसमें जागृत होने में मदद करें।

‘ऐसा हो जायेगा, वैसा हो जायेगा…..’ जिन विचारों से अपने मन में दुःख पैदा होता है, उनको झाड़कर फेंक दो और जिन कर्मों व विचारों से दूसरों को दुःख होता है, उनको भी हटा दो। यह आपके असली स्वभाव को जागृत करने की विशेष कुंजी है।

और चौथी है अभेद दृष्टि की कलाएँ। आप मेल-मिलाप से रहें और मेल-मिलाप करायें, स्वयं फूटे नहीं और दूसरों में फूट न डालें क्योंकि शरीर भिन्न-भिन्न हैं, मन भिन्न-भिन्न हैं, बुद्धियाँ भिन्न-भिन्न हैं किंतु सत्स्वभाव सबका वही है।

ये बातें आज के किसी नेता के जीवन में आ जायें तो बस, भविष्य का इंतजार करने की जरूरत नहीं है, अभी से सतयुग शुरु हो जायेगा, अभी से भारत विश्वगुरु बनने लग जायेगा। ये विचार आकाश में जायेंगे, देर-सवेर ये विचार ही वातावरण में बदलाहट भी लायेंगे। जैसे निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी न करें।…. – इन विचारों ने कई घरों में सुख-शांति और मधुरता ला दी, ऐसी ही ये सत्संग के विचार भी दूर-दूर तक जायेंगे और वातावरण में बदलाव लायेंगे। इसलिए अगर आप इतने लोग मिल के 10 मिनट बैठकर यह चिंतन करो कि ‘मैं सत् हूँ, शरीर पैदा होकर बदल जाता है पर मैं नहीं बदलता। मैं चेतन हूँ, आनंद हूँ और मेरा अस्तित्व है। ऐसे ही सभी में मेरे आत्मा का अस्तित्व है।

पक्षियों की आकृति बदलती है परंतु पक्षी भी ईश्वरस्वरूप हैं, पशु भी ईश्वरस्वरूप हैं, पेड़-पौधे भी सत्स्वरूप हैं, चेतनस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं, सभी परमात्मा हैं। जैसे रात्रि के स्वप्न में हमारा ही सच्चिदानंद अनेक पेड़-पौधे, भिन्न-भिन्न आकृतिवाले व्यक्ति, माइयाँ, भाई, बाल-बच्चे बन जाता है, ऐसी ही यह जाग्रत में मेरा विभु परमेश्वर ही परमेश्वर है। सब दूर, सब रूपों में वह ईश्वर ही ईश्वर है। हे पेड़-पौधो ! तुम भी ईश्वर हो, हे जीव-जंतुओ ! तुम भी ईश्वर हो, हे माई-भाइयो ! तुम भी ईश्वर हो, सभी ईश्वर का ही रूप हैं। ईश्वर सर्वव्यापक हैं, किसी को अपने से अलग नहीं कर सकते। अगर आप पाँच दस मिनट यह चिंतन करोगे तो वातावरण में स्वर्गीय सुख और शांति आ जायेगी और ये स्वर्गीय सुख-शांति आ जायेगी और ये स्वर्गीय सुख शांति के आंदोलन लाखों-करोड़ों आत्माओं को पवित्र कर देंगे। द्वेष, चिंता, भय, कठिनाइयाँ ऐसे चली जायेंगी जैसे सूरज उगते ही अँधेरा गायब हो जाता है।

एक तो सब वासुदेव है और दूसरा यह आत्मा ही वासुदेव ब्रह्म है और तीसरा जो भी काम करो तत्परता से करो, लापरवाही को दूर रखो। अपने को और दूसरों को इन सोलह संस्कारों में सहायक बनाने के लिए तत्पर हो जाओ। फिर भगवान तो यूँ मिलते हैं ! बिछड़े ही नहीं तो अब मिलने के लिए देर कहाँ है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 226

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