(आत्मनिष्ठ बापू जी के मुखारविंद से निःसृत ज्ञानगंगा)
भगवान कहते हैं-
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युजन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।
‘हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन ।’ (गीताः 7.1)
अब यहाँ ध्यान देने योग्य जैसी बात है कि भगवान बोलते हैं, ‘मुझमें….’ । अगर भगवान का ‘मैं’ हमने ठीक से समझा और हमारे में आसक्ति का जोर है तो हम भगवान के किसी रूप को भगवान समझेंगे तथा हमारे चित्त में द्वेष है तो कहेंगे कि भगवान कितने अहंकारी हैं, कहते हैं कि मेरे में ही आसक्त हो ।
श्रीकृष्ण का ‘मैं’ जब तक समझ नहीं आता अथवा श्रीकृष्ण के ‘मैं’ की तरफ जब तक नज़र नहीं जाती, तब तक श्रीकृष्ण के उपदेश को अथवा श्रीकृष्ण के इस अदभुत इशारे को हम समझ नहीं सकते । मय्यासक्तमनाः पार्थ…. मुझमें आसक्त…. मेरे में जिसकी प्रीति है । हमारे में राग है तो श्रीकृष्ण के साकार रूप में ही प्रीति होगी और हमारे में द्वेष है तो कहेंगे श्रीकृष्ण बोलते हैं, ‘मेरे में ही प्रीति….’ यह तो एकदेशीयता हुई । सच पूछो तो श्रीकृष्ण का जो ‘मैं’ है, वह एकदेशीयता को तोड़कर व्यापकता की खबरें सुनाने वाला है ।
श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ कही नहीं, श्रीकृष्ण के द्वारा ‘गीता’ गूँज गयी । हम कुछ करते हैं तो या तो अनुकूल करते हैं या प्रतिकूल करते हैं । करने वाले परिच्छिन्न जीव रहते हैं । श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो परिच्छिन्नता को मौजूद रखकर कुछ कहें । श्रीकृष्ण का तो इतना खुला जीवन है, इतनी सहजता है, स्वाभाविकता है कि वे ही कह सकते हैं कि मेरे में आसक्त हो । आसक्ति शब्द, प्रीति शब्द…. शब्द तो बेचारे नन्हें पड़ जाते हैं, अर्थ हमें लगाना पड़ता है । जो हमारी बोलचाल की भाषा है वही श्रीकृष्ण बोलेंगे, वही गुरु बोलेंगे ।
भाषा तो बेचारी अधूरी है, अर्थ भी उसमें हमारी बुद्धि के अनुसार लगता है लेकिन हमारी बुद्धि जब हमारे व्यक्तित्व का, हमारी देह के दायरे का आकर्षण छोड़ दे तो फिर कुछ समझने के काबिल हो पाते हैं और समझने के काबिल होते-होते यह समझा जाता है कि हम जो कुछ समझते हैं वह कुछ नहीं । आज तक जो हमने समझा है, जाना वह कुछ नहीं । जिसको जानने से सब जाना जाता है वह हमने नहीं जाना, जिसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया, जिसको समझने से सब समझा जाता है उसको नहीं समझा । तो बुद्धि में यदि अकड़ है तो तुच्छ-तुच्छ जानकारियाँ एकत्रित करके हम अपने को विद्वान या ज्ञानी या जानकार मान लेते हैं । अगर बुद्धि में परमात्मा के प्रति प्रेम है, आकांक्षाएँ नहीं हैं तो फिर हमने जो कुछ जाना है उसकी कीमत हमको नहीं दिखती, जिससे जाना जाता है उसको समझने की हमारे क्षमता आती है ।
भगवान बोलते हैं- मय्यासक्तमनाः पार्थ…. अर्थात् मेरे में जिसकी प्रीति है… उपवास में पानी पीने में, न पीने में, खाने में अथवा न खाने में, मिठाई में अथवा तीखे में – यह खण्ड-खण्ड में प्रीति नहीं, मुझ अखण्ड में जिसकी प्रीति हुई है ऐसे अर्जुन ! मैं तेरे को अपना समग्र स्वरूप सुनाता हूँ । और जिसने भगवान के समग्र स्वरूप को जान लिया, उसको और कुछ जानना बाकी नहीं बचता । जिसने उस एक को, समग्र स्वरूप को न जाना और बाकी सब कुछ जाना, हजार-हजार, लाख-लाख जाना तो उसका लाख-लाख जानना सब बेकार हो जाता है ।
जिसने एक को जान लिया उसने और किसी को नहीं जाना तो भी चल जाता है । रामकृष्ण परमहंस ने एक को जाना, बाकी का न जाना तो भी काम चल गया । हिटलर ने बाकी बहुत कुछ जाना, एक को नहीं जाना तो मरा मुसीबत में । विश्वामित्र जी ने एक को जाना तो भगवान राम और लक्ष्मण पैरचम्मी कर रहे हैं । रावण ने एक को नहीं जानकर बहुत-बहुत जाना तो हर बारह महीने में दे दियासिलाई !
अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में जो फैल रहा है वही तुम्हारे हृदय में बस रहा है लेकिन हमारी संसार की जो आसक्तियाँ हैं, मान्यताएँ हैं उनको छोड़ने की युक्ति हमको नहीं है ।
श्वास छोड़ते समय भावना करें कि ‘मेरी इच्छाएँ, अहंकार, वासना अलविदा…. अब तो सर्वत्र मेरा परमात्मा है, मेरा आत्मा ही रह गया है । इच्छाएँ-वासनाएँ चली गयीं तो ईश्वर ही तो रह गया । मैं ईश्वर में डूब रहा हूँ, मेरा आत्मा ही परमात्मा है । ॐ आनंद आनंद….’ इस प्रकार का भाव करके जो ध्यान करता है, चुप होता है वह भगवान में प्रीतिवाला हो जाता है । रस आने लगेगा तो मन उस तरफ लगेगा । मन को रस चाहिए । इस ढंग से यदि तुम मन को रस लेना सिखा दो तो भगवान में प्रीति हो जायेगी और भगवान का समग्र स्वरूप संत जब बतायेंगे और भगवान के वाक्य जब तुम सुनोगे तो समग्र स्वरूप का साक्षात्कार हो जायेगा ।
जितना हेत हराम से, उतना हरि होये ।
कह कबीर ता दास, पला न पकड़े कोय ।।
फिर यमदूत की क्या ताकत है कि तुम्हें मार सके, मौत की क्या ताकत है कि तुम्हें आँख दिखा सके ! वह तो तुम्हारे शरीर से गुजरेगी लेकिन तुम उसके साक्षी होकर अपने स्वरूप में जगमगाते रहोगे ।
भगवान बोलते हैं- मय्यासक्तामनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः । जो मेरे में… ‘मेरे में’ माना रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण अपने को उस रूप में ‘मैं’ नहीं कह रहे थे । श्रीकृष्ण का ‘मैं’ तो समग्र ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है, सबके दिलों में फैला हुआ है । हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझमे आसक्तचित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, सम्पूर्ण बल, सम्पूर्ण ऐश्वर्य आदि जिसकी सत्ता से चमक रहा है, जिसका है उसको जान ले तो तेरा बेड़ा पार हो जायेगा ।
यह कठिन नहीं है, बड़ा आसान है । इसको जानने अथवा परमात्मा को पाने जैसा दुनिया में और कोई सरल कार्य नहीं लेकिन मनुष्य इतना छोटी बुद्धि का हो गया कि थोड़ी-थोड़ी चीजों में उलझ जाता है । ईंट, चूना, लोहा, लक्कड़ के मकान में जिंदगी खो देगा, मिटने वाले मित्रों में समय खो देगा, जलने वाले शरीर में समय खो देगा इसलिए ज्ञान दुर्लभ हो जाता है, वरना यह दुर्लभ नहीं ।
तुम्हें कोई सम्राट दिखता है, कोई शहंशाह दिखता है, कोई धनवान दिखता है तो उसके धन को और शहंशाही को अपने से पृथक नहीं मानकर उस धन और शहंशाही की इच्छाओं और वासनाओं को बढ़ाकर नहीं लेकिन उस धन और शाहाना नज़र को अपनी नज़र समझकर तुम मज़ा लूटो । किसी का धन देख के, किसी का सौंदर्य देख के, किसी की सत्ता देख के तुम वैसा बनने की कोशिश करोगे तो बनते-बनते युग बीत जायेंगे, वह रहेगा नहीं लेकिन जो धनवान है, सत्तावान है, ऐश्वर्यवान है उसमें भी मैं ही उस रूप में मज़ा ले रहा हूँ – ऐसा सोचोगे तो बेड़ा जल्दी पार हो जायेगा ।
समग्र ऐश्वर्य, समग्र सत्ता, समग्र रूप सच पूछो तो उस तुम्हारे चैतन्य के ही हैं । जैसे रात्रि के स्वप्न में तुम देखते हो कि कोई कनाडा का प्रधानमंत्री है, कोई भारत का राष्ट्रपति है लेकिन वे सब स्वप्न में तुम्हारे बनाये हुए हैं । तुम्हीं ने सत्ता दी है उनको । स्वप्न में तो तुम्हारी चैतन्य सत्ता ने स्वप्न समष्टि को सत्ता दी, ऐसे ही जाग्रत में तुम तो लगते हो व्यष्टि…. ‘मैं एक छोटा व्यक्ति और ये बड़े-बड़े ।’ तुम अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते हो तब तुम छोटे दिखते हो और वे बड़े-बड़े दिखते हैं । तुम अपने को जानो तो तुमको पता चलेगा कि ये सब मेरे बनाये हुए पुतले हैं ।
संसार तजल्ली1 है मेरी….. अंदर-बाहर मैं ही हूँ ।
सब मुझी से सत्ता पाते हैं….. हर हर ॐ हर हर ॐ…
1 प्रकाश, प्रताप
ऐसा अनुभव करने के लिए भगवान में प्रीति हो जाय, भगवान में अनन्य भाव हो जाय । मूर्तियाँ अन्य-अन्य, रूप अन्य-अन्य, रंग अन्य-अन्य, भाव अन्य-अन्य… उन सबको देखने वाला एक अनन्य आत्मा मैं ही तो हूँ । जैसे तुम्हारे शरीर में अन्य-अन्य को देखने वाले तुम अनन्य हो, अन्य नहीं हो ऐसे ही सबकी देहों में भी तुम्हीं हो । इस प्रकार का यदि तुम्हें अनुभव होने लगे, अरे महाराज ! फिर तो तुम्हारी जिस पर नज़र पड़े न, वह भी निहाल हो जाय, वह भी खुशहाल हो जाय ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 228
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