Yearly Archives: 2011

भगवत्स्मृति से भगवत्साक्षात्कार-पूज्य बापू जी


‘भगवद्गीता’ में अर्जुन कहते हैं- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा….. मोह अर्थात् जो उल्टा ज्ञान था, शरीर को मैं मानता था, संसार को सच्चा मानता था, वह मेरा मोह नष्ट हो गया । स्मृतिर्लब्धा… अर्थात् मुझे स्मृति हुई । कैसी स्मृति हुई ? कि ‘मैं सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा हूँ….’ अपने आत्मस्वभाव की स्मृति हुई, ब्रह्मस्वभाव की स्मृति हुई । सभी सत्कर्मों का फल भी यही है कि आपके ब्रह्मस्वभाव की स्मृति जग जाय, आपको ब्रह्मज्ञान हो जाय । संत कबीर जी कहते हैं-

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट ।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ ।।

मन अपने आत्मा-परमात्मा, ईश्वर में लीन हो तो ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय शांति, ईश्वर-प्रसादजा बुद्धि बन जाती है । भगवत्स्मृति करके भगवद्विश्रांति, भगवत्सुख में स्थिति करनी है ।

बुध विश्राम सकल जन रंजनि ।

रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ।। (श्री रामचरित. बाल. कां. 30.3)

भगवत्कथा कलियुग के दोषों को मिटाती है और भगवान की स्मृति का सुख-सामर्थ्य देती है । लक्ष्मणजी ने भगवान राम से पूछा कि

कहहु ग्यान बिराग अरू माया ।

ज्ञान किसको बोलते हैं ? वैराग्य किसको बोलते हैं ? माया किसको बोलते हैं ?

कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ।। (श्री रामचरित. अर.कां. 13.4)

उस भक्ति को कहिये जिसके कारण आपकी दया और सुख का प्रसाद मिले ।

ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ।

ईश्वर किसको बोलते हैं ? जीव किसको बोलते हैं ? इसका सारा भेद मुझे समझाइये ।

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ।। (श्री रामचरित. अर.का. 14)

जिससे भगवान के चरणों में प्रीति हो और हमारा शोक, मोह और भ्रम सदा के लिए मिट जाय ।

राम जी के चरणों में लक्ष्मण जी ने ऐसे प्रश्न किये हैं । राम जी कृपा करके लक्ष्मण को सत्संग सुनाते हैं । जो राम जी का दर्शन करता है, राम जी की सेवा करता है, राम जी का भाई है, उसको भी सत्संग की जरूरत है ।

रावण के पास सोने की लंका, पूरी जमीन-जायदाद, उड़ने की शक्ति थी लेकिन ब्रह्मज्ञान के सुख के अभाव में विकारी आकर्षण नहीं गया । रावण की क्या गति हुई दुनिया जानती है । बड़े-बड़े धनी लोग, बड़े-बड़े सत्तावान लोग भगवद रस और भगवत् सत्संग के बिना दुराचार, विकार व्यसन में पड़कर अपना जन्म-जन्मांतर खराब कर लेते हैं बेचारे !

बिनु सतसंग बिबेक न होई ।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।। (श्री रामचरित. बा.कां. 2.4)

बिना सत्संग के इस जीवात्मा को अपने परमात्मस्वरूप का विवेक नहीं होता  और भगवान की कृपा के बिना सत्संग नहीं मिलता ।

देखें रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 182)

भगवत्शांति, भगवद्ज्ञान, भगवत्सुख के बिना जीवात्मा को सताने वाली यह वासना नहीं मिटती, दुःख नहीं मिटते । श्री राम जी की सेवा करते-करते लक्ष्मण भैया सत्संग में गति करते हैं और प्रश्न पूछते हैं कि माया क्या है, ईश्वर क्या है, ब्रह्म क्या है, जगत क्या है और भगवद् रस में, भगवत्सुख में प्रीति कैसे जगह ?

राम जी कहते हैं-

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई ।

सुनहु तात मति मन चित लाई ।। (श्री रामचरित. अर.कां. 14.1)

सुनो लक्ष्मण ! तुम अपने मन को भी लगाओ, अपनी बुद्धि को भी लगाओ, अपने चित्त को भी लगाओ, मैं थोड़े में तुमको सब बताता हूँ ।

भगवान रामचन्द्र जी लक्ष्मण को थोड़े में ही सब बताते हैं । विभीषण मंदोदरी को सत्संग की बात सुनाते हैं, रावण को भी सुनाते हैं । रावण को हनुमान जी भी सत्संग सुनाते हैं । मंदोदरी भी रावण को सत्संग की बात सुनाती है । कई पात्रों ने रावण को सत्संग सुनाया लेकिन रावण ने सत्संग का आदर नहीं किया । अपने अहं में, अपनी मान्यता में, असत्य संसार में, असत्य शरीर में जिसकी प्रीति होती है, वह सत्संग का इतना फायदा नहीं लेता है जितना फायदा सत्यस्वरूप ईश्वर में प्रीति करने वाले ले लेते हैं । जैसी-जैसी अंदर की रूचि होती है वैसी-वैसी व्यवस्था आदमी करता है । सत्संग में आने की रूचि होती है तो इधर पहुँचने की व्यवस्था भी करते हो ।

राजा भर्तृहरि को सत्संग के द्वारा भगवत्प्राप्ति की रूचि हुई तो राज्य छोड़कर भी लग गये और भगवान को पा लिया । राजा भगीरथ ने भी भगवत्प्रीति के बाद लोक-मांगल्य किया । जो राजा होने पर भी नहीं कर पाये ते वह स्थायी लोक-कल्याण भगवत्प्राप्ति के बाद करने में सफल हुए । स्थायी लोक-कल्याण करके वास्तव में समाजोद्धार किया । जो वास्तविक तत्त्व को नहीं पाता, उसकी सेवा से भी वास्तविक कल्याण सम्भव नहीं । राजा भगीरथ राजपाट छोड़कर त्रितल ऋषि के चरणों में ब्रह्मज्ञन पाने के लिए तत्पर हो गये ओ। परमार्थप्राप्ति के बाद गंगा जी को धरती पर ले आये । भगीरथ संकल्प से भागीरथ कहलाये । न जाने कितने करोड़ों लोगों का मंगल कर चुके और आगे भी होता रहेगा । भगवत्प्राप्त महापुरुषों के द्वारा उनकी हयाती के बाद भी सच्ची उन्नति होती रहती है ।

जिसके जीवन में सत्संग का महत्त्व है वह पार हो जाता है । तपस्या से भी ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सत्संग का महत्त्व ज्यादा है । लल्लू-पंजू लोग सत्संग के नाम पर भाषण करते हैं… इधर-उधर के शास्त्रों से उठाया हुआ रटा-रटी का भाषण ! सत्संग तो सत्य का साक्षात्कार किये हुए महापुरुषों का ही होता है । महापुरुषों का साहित्य पढ़कर भाषण करना अलग बात है और महापुरुषों का सत्संग अलग बात है ।

दुनिया में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं लेकिन सबसे श्रेष्ठ है कल्पवृक्ष, जो हर कामना पूरी करता है लेकिन उसमें भी श्रेष्ठ है सत्संग, जो नश्वर आकर्षण और नश्वर कामनाओँ को मिटाकर शाश्वत परमात्मा के प्रेम-प्रसाद से परितृप्त कर देता है । भगवान की और सब कृपाओं से बड़ी कृपा है कि

जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये । (विनय पत्रिकाः 136.10)

जब भगवान बहुत ज्यादा प्रसन्न होते हैं तब संतों का संग देते हैं ।

यह भगवत्कृपा सबसे श्रेष्ठ है, विशेष कृपा है । जैसे माँ कृपा करती है, कभी माँ बच्चे को बहुत प्रेम करती है तो उसके स्तन से दूध बह चलता है, ऐसे ही भगवत्कृपा विशेष होती है तो संतों के सत्संग में आनंद, माधुर्य आने लगता है । राम जी लक्ष्मण को सत्संग की भगवत्कृपामयी प्रसादी देते हैं ।

मैं अरु तोर मोर तैं माया ।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।। (श्री रामचरित. अर. कां. 14.1)

शरीर को मैं मानते हैं, संसार को सच्चा मानते हैं । ‘यह मेरा है, यह तेरा है’, इसी झूठे ज्ञान को माया बोलते हैं, धोखा । जैसे सभी तरंगे पानी हैं, ऐसे ही सब लोग चैतन्य हैं । शरीर में आकर जीने की इच्छा करता है वह जीव है और माया को वश करके जो चैतन्य संसार का नियमन करता है उसको ईश्वर बोलते हैं ।

जीव ईश्वर नहीं बनता है लेकिन जीवात्मा और ईश्वर का आत्मा दोनों एक हैं । जीवात्मा ईश्वर के आत्मा से अपने मिलन का अनुभव करके मुक्तात्मा हो जाता है । जीव-ईश्वर एक हैं तो ऐसा नहीं कि जीव चतुर्भुजी होकर सृष्टि कर लेगा । जीव चतुर्भुजी नारायण की आकृति धारण करके ईश्वर के धाम में जा सकता है लेकिन ईश्वर का सृष्टि करने का सामर्थ्य तो ईश्वरीय सत्ता के पास ही होता है । जैसे केबिन का आकाश और घड़े का आकाश एक है तो घड़ा केबिन नहीं बन सकता और केबिन घड़ा नहीं बन सकती, लेकिन केबिन और घड़ा हटा दो तो आकाश दोनों का एक है । ऐसे ही गंगू तेली का तेल का धंधा छोड़ दो और राजा भोज की राजगद्दी छोड़ दो तो मानवता तो दोनों में एक हैं । ऐसे ही छोटा बुलबुला बड़ी तरंग नहीं बनता, बड़ी तरंग छोटा बुलबला नहीं है फिर भी दोनों पानीरूप से एक हैं ।

नाक में पहनी आधे ग्राम की बाली भी सोना है और हाथ में पहना 50 ग्राम का कंगन भी सोना है । बाली कंगन नहीं है, कंगन बाली नहीं है लेकिन दोनों सोना हैं, ऐसे ही जीव और ईश्वर दोनों चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं । ऐसे जो ब्रह्मस्वभाव का चिंतन करता है वह दुःखों से, शोकों से पार हो जाता है । उसकी बुद्धि ब्रह्ममय हो जाती है ।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।

इस प्रकार का सत्संग-प्रसाद भगवान राम जी ने लक्ष्मण को दिया ।

भगवान में प्रीति कैसे हो ? अऩेक में एक देखें और एक में से ही अनेक की लीला देखें तो भगवान की जहाँ-तहाँ स्मृति होती है । इससे भगवत्प्रसादजा मति बन जाती है । मति से ही आदमी की ऊँचाई-नीचाई होती है । छोटी मति होती है तो छोटा जीवन होता है, ऊँची मति होती है तो ऊँचा जीवन होता है । राजसी मति होती है तो राजसी, सात्त्विक मति होती है तो सात्त्विक जीवन होता है । भगवत्-अर्थदा मति होती है तो भगवत्-अर्थदा जीवन होता है, भगवत्प्रसादाजा मति बनती है ।

ज्यों-जयों सत्संग सुनते हैं, ध्यान करते हैं और नियम करते हैं त्यों-त्यों अपनी मति भगवान के प्रसाद से पावन हो जाती है । जैसे बच्चा ज्यों-ज्यों ध्यान से पढ़ता है त्यों-त्यों वह उस विषय में मास्टरी ले लेता है, एम. ए. हो जाता है, ऐसे ही सत्संग से भगवत्स्मृति हो जाती है और भगवत्साक्षात्कार होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 16-18 अंक 226

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आत्मनिर्भर बनें


हाथी शेर अपेक्षा अधिक बलवान है । उसका शरीर बड़ा और भारी है फिर भी अकेला शेर दर्जनों हाथियों को मारने-भगाने में समर्थ होता है । शेर की ताकत का रहस्य क्या है ?

हाथी अपने शरीर पर भरोसा करता है, जबकि शेर अपनी शक्ति (प्राणबल) पर भरोसा करता है । हाथी झुण्ड बनाकर चलते हैं और जब विश्राम करते हैं तो एक हाथी को पहरेदार के रूप में नियुक्त करते हैं । उन्हें सदा यह डर लगा रहता कि कहीं शेर उन पर आक्रमण न कर दे ।

यदि हाथी को अपनी ताकत पर भरोसा हो तो वह कई शेरों को सूँड से उठाकर पटक सकता है, अपने पैरों से कुचल सकता है । परंतु बेचारे हाथी को अपने पर विश्वास नहीं होता, इसलिए उसमें सदा साहस का अभाव बना रहता है ।

स्वयं को नीच, अधम, दुःखी, पापी या अभागा नहीं मानना चाहिए । आप अपनी आंतरिक शक्ति पर पूर्ण विश्वास करें । स्वामी रामतीर्थ कहते हैं- ‘यदि कोई मुझसे एक शब्द में तत्त्वज्ञान पूछे तो मैं कहूँगा कि आत्मनिर्भरता या आत्मबोध । यह सत्य है, सर्वथा सत्य है कि जब आप स्वयं अपनी सहायता करते हैं तभी परमात्मा आपकी सहायता करता है ।’ दैव आपकी सहायता करने के लिए बाध्य है, लेकिन तब जब आप स्वयं पर निर्भर रहें । आप सभी सब कुछ पा सकते हैं । आपके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है ।

एक बार दो सगे भाई मुकद्दमेबाजी के कारण न्यायाधीश के सम्मुख आये । उनमें से एक बहुत धनवान था जबकि दूसरा कंगाल । न्यायाधीश ने धनवान से प्रश्न कियाः “तुम इतने धनी हो तो तुम्हारा भाई निर्धन कैसे ?”

धनवान ने कहाः “पाँच वर्ष पहले हमें एक समान पैतृक सम्पत्ति प्राप्त हुई थी । मेरा भाई स्वयं को धनवान मानकर सुस्त हो गया । उसने सभी कार्य अपने नौकरों के सुपुर्द कर दिये । उसे जब भी कोई काम करना होता तो वह अपने नौकरों को बुलाकर कहताः ‘जाओ, यह काम करो, जाओ वह काम करो ।’ इस प्रकार वह सुख-आराम, विषय-विकारों में समय गँवाने लगा । इसके विपरीत मैं किसी सेवक पर निर्भर नहीं हुआ । मैं अपने काम अधिक-से-अधिक स्वयं करता रहा । यदि सेवक के सहयोग की आवश्यकता होती तो कहता थाः ‘आओ-आओ ! यह काम करने में मेरी मदद करो ।’

भाई सदा जाओ-जाओ कहता रहा और मैं आओ-आओ कहता रहा । इसलिए मेरे पास नौकर चाकर, इष्ट मित्र व धन सम्पत्ति आती गयी, जबकि मेरा भाई अपना सब गँवा बैठा ।”

जब हम दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं तब कहते हैं- ‘जाओ-जाओ’ । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु दूर चली जाती है व जब आत्मनिर्भर बनते हैं, तब संसार के सभी पदार्थ हमारी ओर खिंचे चले आते हैं ।

यदि आप अपने को निर्धन, तुच्छ जीव मानते हैं तो आप वही हो जायेंगे । इसके विपरीत यदि आप आत्मसम्मान की भावना से परिपूर्ण हैं तथा आत्मनिर्भर हैं तो आपको सम्मान, स्नेह, सफलता प्राप्त होती है । स्वयं को दीन-हीन, दुर्बल, भाग्यहीन कभी न समझें । आप जैसा सोचेंगे वैसे ही बन जायेंगे । सदगुरु-कृपा से स्वयं को नित्यमुक्त अविनाशी आत्मा जानेंगे तो मुक्त हो जायेंगे ।

जब तक आप बाह्य शक्तियों पर निर्भर रहेंगे, परावलम्बी रहेंगे तब तक आपके कार्यों का परिणाम असफलता ही रहेगा ।

सत्य में सदैव विश्वास रखें । जब आप हृदय में विराजमान ईश्वर पर भरोसा करते हुए शरीर को काम में नियुक्त कर देंगे तो आपकी सफलता निश्चित हो जायेगी । स्वयं पर विश्वास करें, स्वयं पर निर्भर होने की आदत डालें । फिर देखिये, सफलता कैसे नहीं मिलती !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 27, 30 अंक 226

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जीवन में लाइये भगवद्-लालसा और जिज्ञासा


-पूज्य बापू जी

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू ।

सो तेहि मिलन न कछु संदेहु ।। (श्री रामचरित. बा.कां. 258.3)

जिसको जिस पर सत्य स्नेह हो जाता है वह उसे मिलता है, इसमें कोई संदेह नहीं क्योंकि तुम्हारा मन सत्यस्वरूप आत्मदेव से स्फुरित होता है । सत्य प्रेम जिसके प्रति होगा उसकी अवस्था को आप प्राप्त कर सकते हैं । जीवन में चार बातें होती हैं – एक होती है शारीरिक आवश्यकता – भोजन, पानी, वस्त्र और आवास, दूसरी होती है इच्छा, तीसरी भगवद्-लालसा और चौथी जिज्ञासा । आवश्यकता तो सादे भोजन से भी पूरी हो जाती है, सादे पानी से भी पूरी हो जाती है लेकिन शराब पीनी है, कोल्डड्रिंक्स पीने हैं, यह है इच्छा । आवश्यकता है आँधी-तूफान से बचने के लिए घर बनाने की अथवा बाड़े में रहने की लेकिन ऐसा सुंदर घर हो, ऐसा टी.वी. हो, ऐसा फ्रिज हो, यह है इच्छा । इच्छा के पीछे लगने वाले व्यक्ति को नश्वर इच्छाएँ भोगों में नाश कर देती हैं ।

दुनिया में ऐसा कोई सुख-भोग, ऐश-आराम विलास नहीं है कि जिसके पीछे भोक्ता को बलिदान न देना पड़े, समय का शक्ति का, पुण्यों का । इसलिए बुद्धिमान अपने जीवन में उन्नति के लिए व्रत रखते हैं । व्रत से आदमी का संयम बढ़ता है, साहस बढ़ता है, सद्भाव बढ़ता है, संकल्पशक्ति बढ़ती है, श्रद्धा बढ़ती है और सत्य की प्राप्ति हो जाती है ।

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्ष्याप्नोति दक्षिणाम् ।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ।।

‘व्रत से दीक्षा आती है, दक्षता से दृढ़ता आती है, दृढ़ता से श्रद्धा दृढ़ होती है श्रद्धा से सत्यस्वरूप की प्राप्ति होती है ।’ (यजुर्वेदः 19.30)

आवश्यकता पूरी करने के लिए मना नहीं है लेकिन इच्छा की दलदल में फँसने से बचें । जैसे हाथी कीचड़ में धँसता है तो फिर ज्यों-ज्यों पैर चलाता है त्यों-त्यों और धँसता जाता है, ऐसे ही इच्छाएँ करने वाला व्यक्ति भोगों की दलदल में फँस जाता है । बड़े राजा-महाराज थे लेकिन इच्छाओं के गुलाम होने के कारण मरने के बाद कोई गिरगिट बन गया, कोई साँप बन गया, कोई भूत बन गया, कोई पिशाच बन के भटकता है तो कोई गर्भ नहीं मिलता है तो नाली में भटकता रहता है । इच्छा के पीछे एक ज़िंदगी नहीं, हजारों-हजारों ज़िंदगियाँ बरबाद हो गयीं ।

जिसके जीवन में सत्संग नहीं है, उसके जीवन में इच्छाओं का कुसंग बहुत होता है । वस्तु मिले, व्यक्ति मिले, परिस्थिति मिले, यह मिले, वह मिले…. सब होते-होते आखिर संसार से आदमी थक जाता है । निराश होकर मर जाता है । तो आपके अंदर एक है आवश्यकता, वह आसानी से पूरी हो जाती है । दूसरी है इच्छा, जिसे पूरी करते-करते कई नीच योनियों में भटकना पड़ता है । तीसरी बहुत ऊँची चीज़ है आपके जीवन में – भगवद्-लालसा, भगवद्दर्शन की लालसा, भगवत्प्रीति की लालसा, भगवद्धाम की लालसा अर्थात् साकार भगवान की कृपा, दर्शन पाने अथवा उनके धाम में जाने की लालसा । आवश्यकता ऐहिक शरीर की है, इच्छा-वासना विकारों से जूझते-जूझते थकाने वाली है लेकिन भगवत्प्रीति की लालसा कल्याणकारी है ।

चौथी होती है ‘जिज्ञासा’ । भगवान क्या है ? यह सृष्टि क्या है ? हम क्या हैं ? आखिर तत्त्व को जानने की जो जिज्ञासा होती है वह सत्य में से प्रकट होती है । सत्य शाश्वत है तो उसकी जिज्ञासा शाश्वत तक ले जाती है ।

भगवान स्नेह-प्रधान, रक्षा करने वाले, हित करने वाले हैं । भगवान के भजन की, भगवान की कृपा की, भगवान के दर्शन की, भगवान के माधुर्य की लालसा होती है तो यह भी ऊँची बात है । लालसा भी ऊँची चीज़ है, जिज्ञासा तो परम ऊँची चीज़ है । आवश्यकता पूरी करना कोई अपराध नहीं, एक ही घाटे की चीज़ है जो है इच्छा । और उस इच्छा-इच्छा में, वासना में और वासना बढ़ाने वाले चलचित्रों, पिक्चरों में आज का जनसमू बेचारा अपने-आपको ऐसे होम रहा है जैसे ट्रैफिक की बत्ती पर पतंगे आकर स्वाहा होते हैं । ऐसे ही देश-विदेश में, विश्व में सब इच्छाओं के पीछे लगे हुए हैं ।

दूसरों का हक छीनना, दगा करना, बेईमानी करना, इनको बोलते हैं ‘प्लुत पाप’ । दिखने में तो अच्छा लगे लेकिन बाद में कठोर दुःख दे, उसको बोलते हैं प्लुत पाप । जैसे रावण के पास सोने की लंका हो गयी, मनचाही उड़ान भरने की सिद्धियाँ आ गयीं. यक्ष-गंधर्व वश हो गये, फिर भी इच्छा पूरी नहीं हुई । सीता जी के प्रति गलत भाव रखा तो रावण संसार से हार गया । इच्छा वाला व्यक्ति देर-सवेर संसार से हार जाता है और नीच गतियों में, नीच योनियों में जाता है ।

आवश्यकता पूरी कर दे और इच्छा की जगह पर भगवत्प्राप्ति की इच्छा कर दे, भगवद्-लालसा को बढ़ावा दे, भगवद्-जिज्ञासा को बढ़ावा दे दे तो छोटे-से-छोटा आदमी, बिल्कुल साधारण से साधारण व्यक्ति भी महान हो जाता है । जैसे कि जंगली काली-कलूट जातियों में भी कुरूप जाति शबर, नाक चपटी, आँखें अंदर, गाल बैठे हुए, जिसे कुरूपता की पराकाष्ठा बोलते हैं, उस शबर जाति की वह लड़की शबरी भीलन इच्छा की गुलाम बनती तो फिर जैसे उसकी उम्र की कई लड़कियाँ खप गयीं संसार में, वह भी खप जाती । लेकिन उसने अपनी आवश्यकतापूर्ति की । रूखा-सूखा खा के, ठंडा पानी पीकर, ठंडा दिमाग रख के भगवान की लालसा को बढ़ाया, मतंग ऋषि की सेवा में रही । और शबरी भीलन इतनी ऊँची उठी कि उसकी भगवद्-लालसा की पूर्ति साकार दर्शन से हुई और जिज्ञासा की पूर्ति हुई गुरु के ज्ञान से । भगवद्-तत्त्व, रामतत्त्व का साक्षात्कार भी हो गया था शबरी को ।

आत्मसाक्षात्कारी पुरुष भगवान के विग्रह में नहीं विलीन नहीं होते क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी पुरुष अपने चिन्मय स्वभाव को जान लेते हैं । भक्त चिन्मय भगवान की भक्ति से, भाव से अपने शरीर को चिन्मय बना देते हैं । ज्ञानी का शरीर सामान्य व्यक्तियों की तरह रहेगा, दिखेगा लेकिन भक्त का शरीर अंत समय चिन्मय सत्ता में विलय भी हो सकता है, अंतर्धान भी हो सकता है ।

भक्त भगवान की चिन्मय सत्ता में, लालसा में इतना पवित्र हो जाता है कि उसको हर चीज़ में अपने भगवान की स्मृति का प्रभाव दिखाई देता है । संत कबीर जी ने सखूबाई की सराहना सुनी कि सखूबाई संत है । कितने भी कष्ट, मुसीबतें, पीड़ाएँ सास की तरफ से, ससुर की तरफ से, पति की तरफ से आयीं पर उसको ये पीड़ाएँ पीड़ाएँ नहीं लगतीं । भगवद्भक्ति की लालसा से वह बहुत ऊँचाई को पायी हुई थी । उस सखूबाई के दर्शन के लिए कबीर जी काशी से कराड (महाराष्ट्र) पहुँचे ।

कबीर जी ने देखा कि सखूबाई घर में तो हैं नहीं ! उन्होंने पूछाः “सखूबाई कहाँ गयी ?” बोलेः “कंडे बेचने गयी है ।” कबीर जी ने सोचा, ‘हद हो गयी ! हमने तो सुना था कि बड़ी भक्त है और यह तो कंडे बेचने जा रही है बाजार में ! चलो देखें कि कैसे कंडे बेचती है ।’

देखा कि एक माई के साथ उसकी लड़ाई हो रही है । बराबर भिड़ी हैं दोनों आमने-सामने । कबीर जी ने सिर पर हाथ रखा कि ‘सुनी-सुनायी बात के पीछे यहाँ तक आना पड़ा !’

कबीर जी ने पूछाः “जो दो-चार कंडों के लिए लड़ रही है, वही सखूबाई है ?”

बोलेः “हाँ ।”

कबीर जी ने कदम पीछे किये तो सखूबाई ने कहाः “कबीर जी ! कबीर जी !! रुकिये । आप तो काशी से आये हैं न ?”

कबीर जी बोलेः “बाई ! तू कैसे जान गयी ?”

वह बोलीः “महाराज ! आपके अंतरात्मा में जो है, वही यहाँ है न ! हमारा आपस में झगड़ा हो रहा है । आप तो संत आदमी हैं, हमारा न्याय करो ।”

कबीर जी ने कहाः “हद हो गयी ! मैं आया था दर्शन करने और मेरे को कैसे पता चले कि तुम्हारे कंडे कौन-से हैं ?”

सखूबाई बोलीः “महाराज ! बड़ा सरल उपाय है । कंडे को कान पर रखो, बारीकी से सुनो । और आप तो सुरता की साधना भी किये हुए हो । जिससे मेरे इष्टदेव की ध्वनि आती हो, वह कंडा मेरा है । जिससे ध्वनि न निकले, वह इसका ।”

कबीर जी ने देखा कि किसी-किसी कंडे से ध्वनि आ रही है । सामने वाली बाई दादागिरी करके इसके कंडे चुरा रही थी । सखूबाई का सिद्धांत ठीक है । जुल्म करना नहीं और जुल्म सहना नहीं ! सखूबाई से सत्संग करके कबीर जी बड़े प्रसन्न हुए ।

यह है भक्त की लालसा का प्रभाव ! लालसा में भगवान के चिंतन-चिंतन में भक्त के जीवन में विलक्षण प्रकट होने लगते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 226

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ