जीवन में लाइये भगवद्-लालसा और जिज्ञासा

जीवन में लाइये भगवद्-लालसा और जिज्ञासा


-पूज्य बापू जी

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू ।

सो तेहि मिलन न कछु संदेहु ।। (श्री रामचरित. बा.कां. 258.3)

जिसको जिस पर सत्य स्नेह हो जाता है वह उसे मिलता है, इसमें कोई संदेह नहीं क्योंकि तुम्हारा मन सत्यस्वरूप आत्मदेव से स्फुरित होता है । सत्य प्रेम जिसके प्रति होगा उसकी अवस्था को आप प्राप्त कर सकते हैं । जीवन में चार बातें होती हैं – एक होती है शारीरिक आवश्यकता – भोजन, पानी, वस्त्र और आवास, दूसरी होती है इच्छा, तीसरी भगवद्-लालसा और चौथी जिज्ञासा । आवश्यकता तो सादे भोजन से भी पूरी हो जाती है, सादे पानी से भी पूरी हो जाती है लेकिन शराब पीनी है, कोल्डड्रिंक्स पीने हैं, यह है इच्छा । आवश्यकता है आँधी-तूफान से बचने के लिए घर बनाने की अथवा बाड़े में रहने की लेकिन ऐसा सुंदर घर हो, ऐसा टी.वी. हो, ऐसा फ्रिज हो, यह है इच्छा । इच्छा के पीछे लगने वाले व्यक्ति को नश्वर इच्छाएँ भोगों में नाश कर देती हैं ।

दुनिया में ऐसा कोई सुख-भोग, ऐश-आराम विलास नहीं है कि जिसके पीछे भोक्ता को बलिदान न देना पड़े, समय का शक्ति का, पुण्यों का । इसलिए बुद्धिमान अपने जीवन में उन्नति के लिए व्रत रखते हैं । व्रत से आदमी का संयम बढ़ता है, साहस बढ़ता है, सद्भाव बढ़ता है, संकल्पशक्ति बढ़ती है, श्रद्धा बढ़ती है और सत्य की प्राप्ति हो जाती है ।

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्ष्याप्नोति दक्षिणाम् ।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ।।

‘व्रत से दीक्षा आती है, दक्षता से दृढ़ता आती है, दृढ़ता से श्रद्धा दृढ़ होती है श्रद्धा से सत्यस्वरूप की प्राप्ति होती है ।’ (यजुर्वेदः 19.30)

आवश्यकता पूरी करने के लिए मना नहीं है लेकिन इच्छा की दलदल में फँसने से बचें । जैसे हाथी कीचड़ में धँसता है तो फिर ज्यों-ज्यों पैर चलाता है त्यों-त्यों और धँसता जाता है, ऐसे ही इच्छाएँ करने वाला व्यक्ति भोगों की दलदल में फँस जाता है । बड़े राजा-महाराज थे लेकिन इच्छाओं के गुलाम होने के कारण मरने के बाद कोई गिरगिट बन गया, कोई साँप बन गया, कोई भूत बन गया, कोई पिशाच बन के भटकता है तो कोई गर्भ नहीं मिलता है तो नाली में भटकता रहता है । इच्छा के पीछे एक ज़िंदगी नहीं, हजारों-हजारों ज़िंदगियाँ बरबाद हो गयीं ।

जिसके जीवन में सत्संग नहीं है, उसके जीवन में इच्छाओं का कुसंग बहुत होता है । वस्तु मिले, व्यक्ति मिले, परिस्थिति मिले, यह मिले, वह मिले…. सब होते-होते आखिर संसार से आदमी थक जाता है । निराश होकर मर जाता है । तो आपके अंदर एक है आवश्यकता, वह आसानी से पूरी हो जाती है । दूसरी है इच्छा, जिसे पूरी करते-करते कई नीच योनियों में भटकना पड़ता है । तीसरी बहुत ऊँची चीज़ है आपके जीवन में – भगवद्-लालसा, भगवद्दर्शन की लालसा, भगवत्प्रीति की लालसा, भगवद्धाम की लालसा अर्थात् साकार भगवान की कृपा, दर्शन पाने अथवा उनके धाम में जाने की लालसा । आवश्यकता ऐहिक शरीर की है, इच्छा-वासना विकारों से जूझते-जूझते थकाने वाली है लेकिन भगवत्प्रीति की लालसा कल्याणकारी है ।

चौथी होती है ‘जिज्ञासा’ । भगवान क्या है ? यह सृष्टि क्या है ? हम क्या हैं ? आखिर तत्त्व को जानने की जो जिज्ञासा होती है वह सत्य में से प्रकट होती है । सत्य शाश्वत है तो उसकी जिज्ञासा शाश्वत तक ले जाती है ।

भगवान स्नेह-प्रधान, रक्षा करने वाले, हित करने वाले हैं । भगवान के भजन की, भगवान की कृपा की, भगवान के दर्शन की, भगवान के माधुर्य की लालसा होती है तो यह भी ऊँची बात है । लालसा भी ऊँची चीज़ है, जिज्ञासा तो परम ऊँची चीज़ है । आवश्यकता पूरी करना कोई अपराध नहीं, एक ही घाटे की चीज़ है जो है इच्छा । और उस इच्छा-इच्छा में, वासना में और वासना बढ़ाने वाले चलचित्रों, पिक्चरों में आज का जनसमू बेचारा अपने-आपको ऐसे होम रहा है जैसे ट्रैफिक की बत्ती पर पतंगे आकर स्वाहा होते हैं । ऐसे ही देश-विदेश में, विश्व में सब इच्छाओं के पीछे लगे हुए हैं ।

दूसरों का हक छीनना, दगा करना, बेईमानी करना, इनको बोलते हैं ‘प्लुत पाप’ । दिखने में तो अच्छा लगे लेकिन बाद में कठोर दुःख दे, उसको बोलते हैं प्लुत पाप । जैसे रावण के पास सोने की लंका हो गयी, मनचाही उड़ान भरने की सिद्धियाँ आ गयीं. यक्ष-गंधर्व वश हो गये, फिर भी इच्छा पूरी नहीं हुई । सीता जी के प्रति गलत भाव रखा तो रावण संसार से हार गया । इच्छा वाला व्यक्ति देर-सवेर संसार से हार जाता है और नीच गतियों में, नीच योनियों में जाता है ।

आवश्यकता पूरी कर दे और इच्छा की जगह पर भगवत्प्राप्ति की इच्छा कर दे, भगवद्-लालसा को बढ़ावा दे, भगवद्-जिज्ञासा को बढ़ावा दे दे तो छोटे-से-छोटा आदमी, बिल्कुल साधारण से साधारण व्यक्ति भी महान हो जाता है । जैसे कि जंगली काली-कलूट जातियों में भी कुरूप जाति शबर, नाक चपटी, आँखें अंदर, गाल बैठे हुए, जिसे कुरूपता की पराकाष्ठा बोलते हैं, उस शबर जाति की वह लड़की शबरी भीलन इच्छा की गुलाम बनती तो फिर जैसे उसकी उम्र की कई लड़कियाँ खप गयीं संसार में, वह भी खप जाती । लेकिन उसने अपनी आवश्यकतापूर्ति की । रूखा-सूखा खा के, ठंडा पानी पीकर, ठंडा दिमाग रख के भगवान की लालसा को बढ़ाया, मतंग ऋषि की सेवा में रही । और शबरी भीलन इतनी ऊँची उठी कि उसकी भगवद्-लालसा की पूर्ति साकार दर्शन से हुई और जिज्ञासा की पूर्ति हुई गुरु के ज्ञान से । भगवद्-तत्त्व, रामतत्त्व का साक्षात्कार भी हो गया था शबरी को ।

आत्मसाक्षात्कारी पुरुष भगवान के विग्रह में नहीं विलीन नहीं होते क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी पुरुष अपने चिन्मय स्वभाव को जान लेते हैं । भक्त चिन्मय भगवान की भक्ति से, भाव से अपने शरीर को चिन्मय बना देते हैं । ज्ञानी का शरीर सामान्य व्यक्तियों की तरह रहेगा, दिखेगा लेकिन भक्त का शरीर अंत समय चिन्मय सत्ता में विलय भी हो सकता है, अंतर्धान भी हो सकता है ।

भक्त भगवान की चिन्मय सत्ता में, लालसा में इतना पवित्र हो जाता है कि उसको हर चीज़ में अपने भगवान की स्मृति का प्रभाव दिखाई देता है । संत कबीर जी ने सखूबाई की सराहना सुनी कि सखूबाई संत है । कितने भी कष्ट, मुसीबतें, पीड़ाएँ सास की तरफ से, ससुर की तरफ से, पति की तरफ से आयीं पर उसको ये पीड़ाएँ पीड़ाएँ नहीं लगतीं । भगवद्भक्ति की लालसा से वह बहुत ऊँचाई को पायी हुई थी । उस सखूबाई के दर्शन के लिए कबीर जी काशी से कराड (महाराष्ट्र) पहुँचे ।

कबीर जी ने देखा कि सखूबाई घर में तो हैं नहीं ! उन्होंने पूछाः “सखूबाई कहाँ गयी ?” बोलेः “कंडे बेचने गयी है ।” कबीर जी ने सोचा, ‘हद हो गयी ! हमने तो सुना था कि बड़ी भक्त है और यह तो कंडे बेचने जा रही है बाजार में ! चलो देखें कि कैसे कंडे बेचती है ।’

देखा कि एक माई के साथ उसकी लड़ाई हो रही है । बराबर भिड़ी हैं दोनों आमने-सामने । कबीर जी ने सिर पर हाथ रखा कि ‘सुनी-सुनायी बात के पीछे यहाँ तक आना पड़ा !’

कबीर जी ने पूछाः “जो दो-चार कंडों के लिए लड़ रही है, वही सखूबाई है ?”

बोलेः “हाँ ।”

कबीर जी ने कदम पीछे किये तो सखूबाई ने कहाः “कबीर जी ! कबीर जी !! रुकिये । आप तो काशी से आये हैं न ?”

कबीर जी बोलेः “बाई ! तू कैसे जान गयी ?”

वह बोलीः “महाराज ! आपके अंतरात्मा में जो है, वही यहाँ है न ! हमारा आपस में झगड़ा हो रहा है । आप तो संत आदमी हैं, हमारा न्याय करो ।”

कबीर जी ने कहाः “हद हो गयी ! मैं आया था दर्शन करने और मेरे को कैसे पता चले कि तुम्हारे कंडे कौन-से हैं ?”

सखूबाई बोलीः “महाराज ! बड़ा सरल उपाय है । कंडे को कान पर रखो, बारीकी से सुनो । और आप तो सुरता की साधना भी किये हुए हो । जिससे मेरे इष्टदेव की ध्वनि आती हो, वह कंडा मेरा है । जिससे ध्वनि न निकले, वह इसका ।”

कबीर जी ने देखा कि किसी-किसी कंडे से ध्वनि आ रही है । सामने वाली बाई दादागिरी करके इसके कंडे चुरा रही थी । सखूबाई का सिद्धांत ठीक है । जुल्म करना नहीं और जुल्म सहना नहीं ! सखूबाई से सत्संग करके कबीर जी बड़े प्रसन्न हुए ।

यह है भक्त की लालसा का प्रभाव ! लालसा में भगवान के चिंतन-चिंतन में भक्त के जीवन में विलक्षण प्रकट होने लगते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 226

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *