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करिश्मा-ए-बाबा आशाराम बापू


(‘सच्चा लेखन’ समाचार पत्र की रिपोर्टिंग)
आशाराम जी बापू को जाँच हेतु एम्स ट्रॉमा सेंटर, दिल्ली ले जाया गया था। बाबा के रेलवे स्टेशने पहुँचने पर वहाँ पर कई हजार भक्त इकट्ठे हो गये। यह विचारणीय विषय है कि इतना कड़ा आरोप लगने के बाद भी आखिर बाबा को भक्त क्यों नहीं छोड़ रहे हैं ? क्या वाकई बाबा किसी विदेशी या राजनैतिक षड्यन्त्र के शिकार हो रहे हैं ? जोधपुर जेल, न्यायालय परिसर, एम्स अस्पताल, रेलवे स्टेशन आदि स्थानों पर उपस्थित विभिन्न क्षेत्रों से आये बाबा के भक्तों व बाबा के विरोधियों से ‘सच्चा लेखन’ समाचार पत्र की टीम रू-बरू हुई। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंशः
भक्तों से प्रश्नः “इतना गम्भीर आरोप लगने के बावजूद आप बाबा को मानते हैं ? क्या बाबा ने आपको कुछ दिया है ?”
उत्तरः “आज से पहले भी बापू जी पर कितने ही आरोप लगे पर क्या कोई भी सत्य साबित हुआ ? ऐसे ही यह भी एक मनगढ़ंत आरोप है, उन्हें फँसाया जा रहा है। बापू जी ने कभी नहीं कहा, ‘आप मेरी पूजा करो।’ उन्होंने तो हमें दीक्षा भी भगवान के नाम की दी। बापू जी ने ही तो हमें भगवान का महत्त्व समझाया है। इसलिए हमारे लिए पहले बापू जी हैं फिर भगवान !”
प्रश्नः “आपको ऐसा क्यों लगता है कि बाबा को कोई फँसाना चाहता है ? वह कौन है और क्यों फँसाना चाहता है ?”
उत्तरः पश्चिमी सभ्यता कल्चर वाले बीड़ी, सिगरेट, पान-मसाला, मांसाहार, शराब आदि अनेकों माध्यमों से भारतवासियों को अपना गुलाम बनाकर भारत की नींव को कमजोर करना चाहते हैं। बापू जी ने समाज को इनकी हकीकत समझाकर जागृत कर दिया। इसलिए इन्होंने हमारे बापू जी के कुप्रचार पर खर्च करना शुरु कर दिया।”
विरोधियों से प्रश्नः “आपको ऐसा क्यों लगता है कि बाबा रेप के आरोपी हैं ? आप क्यों विरोध करते हैं ? क्या आपके साथ भी कभी कुछ गलत हुआ है ?”
उत्तरः “नहीं, हमने तो बस सुना है और आशाराम बापू पर पहले भी कई आरोप लग चुके हैं। बाकी वास्तविकता तो हमने कुछ नहीं देखी।”
प्रश्नः “क्या आप कोई नशा करते हैं ?”
उत्तरः “हम तो प्रतिदिन नशा करते हैं लेकिन आपको इससे क्या मतलब ?”
हमारे समक्ष ऐसे कितने ही बाबा और संत आये, जिन पर किसी प्रकार का कोई आरोप लगा तो उनके समस्त क्रियाकलाप रूक गये और उनके समर्थकों ने उनसे मुँह मोड़ लिया। पर यह बात वास्तव में आश्चर्यजनक है कि इतने गम्भीर आरोप के बावजूद भी बापू आशाराम जी के समर्थक उनका साथ छोड़ने का नाम नहीं ले रहे हैं !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 29, अंक 266
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औषधीय गुणों से भरपूर सहजन


सहजन (मुनगा) की फली खाने में मधुर, कसैली एवं स्वादिष्ट तथा पचने में हलकी, गरम तासीरवाली एवं जठराग्नि प्रदीप्त करने वाली होती है। इसके फूल तथा+ कोमल पत्तों की सब्जी बनायी जाती है। सहजन कफ तथा वायु शामक होने से श्वास, खाँसी, जुकाम आदि कफजन्य विकारों तथा आमवात, संधिवात, सूजनयुक्त दर्द आदि वायुरोगों में विशेष पथ्यकर है। यकृत एवं तिल्ली वृद्धि, मूत्राशय एवं गुर्दे की पथरी, पेट के कृमि, फोड़ा, मोटापा, गंडमाला (कंठमालाझ), गलगंड (घेघा) – इन व्याधियों में इसका सेवन हितकारी है। सहजन में विटामिन ‘ए’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। आयुर्वेद के मतानुसार सहजन वीर्यवर्धक तथा हृदय एवं आँखों के लिए हितकर है।
औषधीय प्रयोगः
सहजन की पत्तियों के 30 मि.ली. रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर रात को सोने से पूर्व 2 माह तक लेने से रतौंधी में लाभ होता है। यह प्रयोग सर्दियों में करना हितकर है।
लौह तत्त्व की कमी से होने वाली रक्ताल्पता (एनीमिया) व विटामिन ‘ए’ की कमी से होने वाले अंधत्व में पत्तियों की सब्जी (अल्प मात्रा में) लाभकारी है।
पत्तों को पानी में पीसकर हलका गर्म करके जोड़ों पर लगाने से वायु की पीड़ा मिटती है।
सहजन के पत्तों का रस लगाकर सिर धोने से बालों की रूसी में लाभ होता है।
सावधानीः सब्जी के लिए ताजी एवं गूदेवाली फली का ही प्रयोग करें। सूखी, बड़े बीजवाली एवं ज्यादा रेशेवाली फली पेट में अफरा करती है। गरम (पित्त) प्रकृति के लोगों के लिए तथा पित्तजन्य विकारों में सहजन निषिद्ध है। सहजन की पत्तियों का उपयोग पित्त-प्रकृतिवाले व्यक्ति वैद्यकीय सलाह से करें। गुर्दे की खराबी में इसका उपयोग नहीं करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 31, अंक 266
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ऐसा महान स्वरूप है !


ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों ने मानव-समाज को ऐसे ऐसे खजाने दे रखे हैं कि संसार के हीरे-मोतियों के खजानों का मूल्य उनके आगे कंकड़-पत्थर जितना भी नहीं है। काली कमली वाले बाबा द्वारा रचित ‘पक्षपातरहित अनुभवप्रकाश’ ग्रंथ जो ‘आध्यात्मिक विष्णु पुराण’ के नाम से भी जाना जाता है, यह वह सद्ग्रंथ है जिसमें अपने परम आनंदमय आत्मस्वरूप के ज्ञान को खुले रूप में मानवमात्र को दिया गया है। यह सद्ग्रंथ पूज्य बापू को परम प्रिय है और पूज्य श्री ने यह ज्ञानामृत ‘ऋषि प्रसाद’ के माध्यम से अपने आत्मीय मानवमात्र तक पहुँचने का निर्देश दिया था। इसे उन्हीं का प्रसाद मानकर हम प्राशन करेंगे-
महर्षि पराशर जी शिष्य मैत्रेय को अपने स्वरूप का वर्णन संतों की स्थिति के माध्यम से बताते हुए कहते हैं कि वामदेव आदि संतों ने ध्रुव को कहाः “काम-क्रोधादिरूप भी हम ही स्वप्नद्रष्टा हैं तथा काम-क्रोध से रहित उनके साक्षीरूप भी हम ही हैं। अमानित्व आदि दैवी गुण तथा दम्भ आद आसुरी गुणरूप भी हम ही हैं और इनसे रहित इनका साक्षीरूप असंगी हम ही चैतन्य हैं। ज्ञान-अज्ञान, शुभ-अशुभ आदि सर्व द्वन्द्वरूप स्वप्न हम ही हैं तथा इनसे रहित इनका द्रष्टारूप भी हम ही स्वप्नद्रष्टा हैं। स्वप्न में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि मूर्तिरूप होकर भी हम स्वप्नद्रष्टा असंग, निर्विकार इनके प्रकाशक चैतन्य साक्षीभूत हैं।
जीव-ईश्वरूप हम चैतन्य जीव-ईश्वर भाव से रहित हैं। आत्मा-अनात्मा भेद सहित भी हम चैतन्य इस भेद से रहित हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक सर्व चेष्टा करते भी हम चैतन्य अकर्ता हैं। स्फुरणरूप भी हम चैतन्य वास्तव में अस्फुरणरूप है। माया से महाकर्ता, महाभोक्ता, महात्यागी हम चैतन्य आत्मा वास्तव में अकर्ता, अभोक्ता, अत्यागी हैं। सर्व देश, काल, वस्तुरूप भी हम पूर्ण चैतन्य आत्मा वास्तव में देश, काल, वस्तु से तथा इनके भेद से रहित हैं। धर्म-अधर्मरूप भी हम चैतन्य वास्तव में धर्म-अधर्म से रहित हैं। सुख-दुःखरूप भी हम अनंत आत्मा वास्तव में सुख-दुःख से रहित हैं।
हम चैतन्य ही इस मन आदि जड़ जगत की चेष्टा कराते हैं, जैसे तंत्री पुरुष जड़ पुतलियों की चेष्टा कराते हैं। हम चैतन्य आधाररहित भी सर्व के आधार हैं। हम चैतन्य ही सर्व मन आदि नाम-रूपमय जगत के प्रकाशक, द्रष्टा, अधिष्ठान हैं। हम चैतन्य का प्रकाशक, द्रष्टा, अधिष्ठान कोई नहीं। इसी से हम चैतन्य स्वयंप्रकाशरूप हैं। भूत, भविष्य, वर्तमान – तीनों कालों के तथा तीनों कालों में विद्यमान पदार्थों के हम चैतन्य ही सिद्धकर्ता हैं। हमारे चैतन्यस्वरूप में ज्ञान-अज्ञान नहीं। जैसे सूर्य में दिन रात नहीं उलटा सूर्य से ही दिन रात्रि की सिद्धि होती है, उसी प्रकार ज्ञान-अज्ञान की हम चैतन्य से ही सिद्धि होती है।
जैसे दो पुरुषों के झगड़े में साक्षी पुरुष को उनकी हानि-लाभ में किंचित भी कर्तव्य नहीं होता, उसी प्रकार सुख-दुःख आदि के साक्षी हम चैतन्य आत्मा को सुख-दुःख की प्राप्ति-निवृत्ति संबंधित किंचिन्मात्र भी कर्तव्य नहीं।”
(‘आध्यात्मिक विष्णु पुराण’ से)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 25, अंक 266
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