Monthly Archives: February 2015

गुरु का बंधन परम स्वतन्त्रता है – पूज्य बापू जी


गुरु और भगवान का बंधन, बंधन नहीं है, वह तो प्रेम से, धर्म से, स्वयं अपनी मर्जी से स्वीकारा गया ज्ञान-प्रकाशदायी अनुशासन है। विकारों के बंधन से छूटने के लिए शास्त्र, गुरु और भगवान के बंधन में रहना हजारों स्वतंत्रताओं से ज्यादा हितकारी है।
मैं गुरु के बंधन में रहा। दाढ़ी बाल तब छँटवाता जब गुरु जी की आज्ञा आती, ऐसा बंधन मैंने स्वयं स्वीकार क्या था। सत्य का बंधन स्वीकार किया, वह बाँधता नहीं मुक्त कर देता है। अगर गुरु जी की कृपा का बंधन मैं स्वीकार नहीं करता और उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर देता तो मैं विकारों के बंधन में आ जाता लेकिन उनका आज्ञा का पालन किया तो करोड़ो लोगों की सेवा करने में गुरु महाराज मुझे सफल कर रहे हैं, निमित्त बना रहे हैं। यह प्रत्यक्ष है।
मैंने बंधन स्वीकार किया लेकिन बंधन रहा नहीं, हृदय में मुक्तात्मा गुरु प्रकट हो गये। तो गुरु की आज्ञा पालना यह बंधन नहीं है, सारे बंधनों से मुक्त करने वाला तोहफा है। गुरु की अधीनता को छोड़कर चल दिये तो वे स्वतंत्र नहीं हैं, महापराधीन हैं, मन व इन्द्रियों के विकारों के अधीन हो जाते हैं। जिन्हें सदगुरु मिले हैं वे परम स्वतंत्रता का राजमार्ग पा चुके हैं, उन्हें बधाई हो !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 26, अंक 266
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

क्या जाने वो कैसो रे………


(भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज का प्राकट्य दिवसः 16 मार्च 2015)
ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के क्रियाकलाप सहज होते हैं। उनके श्रीमुख से निकली सहज वाणी ओभी ईश्वरीय वाणी होती है। उससे कितनों का भला हो जाता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है यह घटना
एक बार जेतपुर (गुजरात) में ‘अखिल भारत लोअर सिंध पंचायत’ का सम्मेलन था, जहाँ साँईं श्री लीलाशाहजी भी उपस्थित थे। सिंधी समाज एवं भक्तों के दृढ़ आग्रह की वजह से लगभग हर सम्मेलन में स्वामी जी जरूर जाते थे तथा समस्त कार्यवाही उनकी देखरेख में चलती थी।
उस सम्मेलन में किसी ने प्रधान को एक चाँदी की डिब्बी भेंट में दी थी। डिब्बी का सदुपयोग समाज के लिए हो इस उद्देश्य से साँईं श्री लीलाशाहजी ने उसे नीलाम करके उससे मिलने वाले पैसों को सामाजिक कार्य में लगाने की युक्ति अपनायी। महापुरुषों से प्राप्त प्रसाद की महत्ता कौन कितनी समझता है यह देखने तथा सेवा में अधिक से अधिक योगदान हो इसलिए नीलामी की जिम्मेदारी साँईं जी ने स्वयं ले ली। वे बड़े ही सहज ढंग से डिब्बी हाथ में लेकर सम्मेलन में आये हुए सदस्यों को कहने लगे कि “इसकी बड़ी बोली लगाओ।” कभी कभी तो स्वयं ही किसी-किसी भक्त से कहते कि “तुम्हारी बोली इतनी या इतनी ?” इस प्रकार आखिर में वह डिब्बी, जिसकी कीमत 50 रूपये से अधिक न थी, वह 500 रूपये में अहमदाबाद के एक कपड़ा व्यवसायी भक्त ने ली।
सचमुच, जिनके लिए सारा ब्रह्माण्ड तिनके के समान है, जिनके लिए तीनों कालों में जगत बना ही नहीं, केवल स्वप्नवत मिथ्या है, ऐसे ब्रह्मनिष्ठ संत छोटे से छोटे कार्य को भी एक कुलीन राजकुमार की नाईं करते हैं, एक कलाकार के रूप में अपना किरदार बखूबी निभाते हैं। लेकिन उनकी ऐसी लौकिक क्रियाओं के पीछे छुपे रहस्यों को बाह्य दृष्टि से नापने-तौलने वाले लोग समझ नहीं पाते।
शाम के समय जब स्वामी जी ने अपने निवास पर आये तो एक सेवक ने कहाः “स्वामी जी ! आज तो आपने ऑक्शनर्स जैसी भूमिका निभायी।”
स्वामी जी ने पूछाः “ऑक्शनर्स क्या ?”
“स्वामी जी ! ऑक्शनर्स माने जो नीलामी करने वाले होते हैं, वे ऐसे ही अपने सामान की तारीफ करके उसका मूल्य बढ़ाने में अपनी कला दिखाते हैं।”
“भला ऐसा मैंने क्या किया ?”
“स्वामी जी ! आप ऐसे कह रहे थे कि जैसे यह डिब्बी नहीं साक्षात लक्ष्मी है लक्ष्मी !….”
यह सुन स्वामी जी थोड़ा मुस्कराये, फिर शांत हो गये। ऐसे प्रश्नों का कभी महापुरुष जवाब न भी दें लेकिन प्रकृति अवश्य उत्तर देती है। उस समय स्वामी जी की वह रहस्यमयी मुसकराहट कोई समझ नहीं पाया लेकिन कुछ समय बाद पता चला कि जिसने वह डिब्बी ली थी वह व्यापारी तो मालामाल हो गया है ! तब उस सेवक को हुआ कि ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की लीलाओं को मानुषी बुद्धि से तौलना असम्भव है। इसीलिए गुरुवाणी में आता हैः
ब्रह्मगिआनी की मिति कउनु बखानै।
ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों में कर्तापन नहीं होता। निःस्वार्थ, निखालिस ब्रह्मवेत्ताओं की ऐसी लीलाएँ जहाँ एक और लोकमांगल्यकारी होती हैं, वहीं दूसरी ओर भक्तों को आनंदित-आह्लादित, उन्नत कर देती हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 14, अंक 266
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

किसके जीवन का अंत कैसा ? – पूज्य बापू जी


‘खाया-पिया और मजे से जियेंगे, गुरु वरु कुछ नहीं है…..’, ऐसे लोगों को विषयी व्यक्तियों के जीवन का अंत कैसे होता है ? बोलेः अतृप्ति, असफलता, पाप के संग्रह में तथा दुःख, चिंता और निराशा की आग और अफसोस से समाप्त हो जाता है निगुरे लोगों का जीवन। और जिनको गुरुदीक्षा मिलती है उनका जीवन कैसा होता है ?
गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परं धनम्।।
‘गुरु ही परम ब्रह्म हैं, गुरु ही परा गति हैं, गुरु ही परा विद्या हैं और गुरु को ही परम धन कहा गया है।’ (द्वयोपनिषद् 5)
गुरु ही सर्वोत्तम अविनाशी तत्त्व हैं, परम आश्रय-स्थल हैं तथा परम ज्ञान के उपदेष्टा हने के कारण गुरु महान होते हैं। और जो गुरु की शरण लेते हैं वे ‘अ-महान’ कैसे होंगे ? वे कीट-पतंग की योनि में क्यों जायेंगे ? वे हाथी-घोड़ा, चूहा-बिल्ला क्यों बनेंगे ?
राजा नृग गिरगिट बन गये। राजा अज बुद्धिमान थे लेकिन मरने के बाद साँप बन गये। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन मानवतावादी थे, मैं उनको प्यार भी करता हूँ। उनकी प्रसिद्धि करने वाली संस्थाओं में मुझे ले गये, मैं देख के भी आया। लेकिन अभी वे बेचारे व्हाइट हाउस में प्रेत होकर घूम रहे हैं क्योंकि गुरु बिना का जीवन था। तो यह उपनिषद् की बात सार्थक व सच्ची नजर आती है।
वे लोग अकाल मर जाते हैं जो असंयमी हैं, अकाल विफल हो जाते हैं जो आवेशी होते हैं। वे अकारण ही तपते रहते हैं जो ईर्ष्यालू होते हैं। वे अकारण ही फिसलते रहते हैं जो अति लोभी होते हैं। वे अकारण ही उलझते रहते हैं जो तृष्णावान हैं। जो अशिष्ट और आलसी हैं, वे संसार से हारकर कई नीच योनियों को पाते हैं लेकिन जिनमें संयम है, शांति है, ईर्ष्या और लोभ का अभाव है, तृष्णा, निष्ठुरता, अशिष्टता और आलस्य का अभाव है, वे गुरु-तत्त्व के माधुर्य में, आनंद में और साक्षात्कार में सफल हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 26, अंक 266
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ