Monthly Archives: February 2016

मान किसका स्थिर रहता है ?


पूज्य बापू जी

जो मान के योग्य कर्म करता है लेकिन मान की इच्छा नहीं रखता, उसका मान स्थिर हो जाता है। भगवान मान के योग्य कर्म करते हैं लेकिन भगवान में मान की इच्छा नहीं
इसलिए भगवान का मान है। ऐसे ही समर्थ रामदासजी, एकनाथ जी, तुकाराम जी, साँईं लीलाशाह जी बापू, रमण महर्षि जी आदि का मान क्यों है ? क्योंकि वे मान के योग्य कर्म तो करते हैं परंतु उनमें मान की इच्छा नहीं होती। जो करें वह अंतर्यामी ईश्वर की प्रसन्नता पाने के लिए करें। मन से जो विचार करें वह ईश्वर के अनुकूल करें। बुद्धि से जो निर्णय करें वह ईश्वर की हाँ में हाँ करके निर्णय करिये। महाराज ! ईश्वर की हाँ में हाँ कैसे ? कोई बोलेगा कि ‘मेरे को तो आया बुद्धि में तो ईश्वर ने प्रेरणा की।’ तेरी  वासना की प्रेरणा है कि ईश्वर की प्रेरणा है यह कैसे पता चले ? वासना की प्रेरणा ईश्वर की प्रेरणा का चोला पहनकर गड़बड़ करती है। ‘मेरा कुछ नहीं, मुझे अपने लिए नहीं चाहिए’ तो यह समझो ईश्वर की प्रेरणा है। ‘मुझे जो चाहिए वह सब मेरी चाह जल जाय और ईश्वर को जो चाहिए वह होता रहे’-ऐसी सोच हो तभी तो परम कल्याण होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 31 अंक 278

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मनुष्य-जीवन की विलक्षणता


परब्रह्म परमात्मा में, जो अपना स्वरूप ही है, तीन भाव माने जाते हैं – सत्, चित्त और आनंद। मनुष्य में इन्हीं भावों का जब विकास होता है, तभी उसमें 5 अथवा अधिक कलाओं का विकास माना जाता है। यह विकास मनुष्य में ही सम्भव है, अतः मनुष्य शरीर दुर्लभ है।

सत् के विकास में कर्म का विकास है। चित्त के विकास में ज्ञान का विकास है और आनंद के विकास में सुख का विकास है। कर्म, ज्ञान और आनंद का जैसा विकास मनुष्य के जीवन में है, वैसा सृष्टि में कहीं नहीं है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास इसका साक्षी है। यह विकास अभी जारी है इसलिए मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, जिसको प्राप्त करके हम संसार के सम्पूर्ण बंधनों, दुःखों और अनर्थों से छूट सकते हैं।

पेड़-पौधे अपनी खुराक अपने पाँव (नीचे) से ग्रहण करते हैं और ऊपर की ओर बढ़ते हैं। शास्त्र में इनको ऊर्ध्वस्रोत बोलते हैं। प्रकृति ने अभी उन्हें बढ़ने के लिए बहुत सा अवकाश दिया है।

पक्षी आगे से भोजन लेते हैं और वह पीछे जाता है। वे ‘तिर्यक-स्रोत’ हैं। पशु एवं स्वेदज (पसीने से उत्पन्न) प्राणी भी तिर्यक-स्रोत हैं। परंतु मनुष्य ‘अधःस्रोत’ है, वह भोजन ऊपर से लेता है और नीचे की ओर फेंकता है।

विद्वानों ने इसका अर्थ किया है कि प्रकृति स्वयं में प्राणी को जितना उन्नत बना सकती थी, उतना उसने मनुष्य को बना दिया है। इसके आगे मनुष्य अपना स्वयं विकास करे।

वह अपनी बुद्धि को इतनी विकसित कर सकता है कि वह परमेश्वर से एक हो जाय। यह अवसर अन्य प्राणि-शरीर में प्राप्त नहीं है। इसलिए मनुष्य का शरीर मिलना दुर्लभ है।

इस मनुष्य शरीर में आप आनंद की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं, ज्ञान की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं। अविनाशी ईश्वर, पूर्ण ज्ञानस्वरूप ईश्वर, पूर्णानंदस्वरूप ईश्वर आपके हृदय में प्रकट हो सकते है। इसलिए यह मनुष्य का शरीर ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होता है।

हम स्वयं चाह के मनुष्य-शरीर प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य जन्म पाने में हमारी स्वतंत्रता नहीं, तो पूर्वजन्मों के पुण्यों के फल से, ईश्वर की कृपा से (अर्थात् प्रकृति के विकास से धर्म के फलस्वरूप) यह मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है। अतः यह शरीर बड़ा दुर्लभ है। मनुष्य में स्त्री भी है और पुरुष भी। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। किंतु ईश्वर का अनुग्रह दोनों पर है क्योंकि दोनों सदबुद्धिसम्पन्न मनुष्य हैं।

‘श्रीमद्भागवत’ में आया है कि ईश्वर ने अपनी माया से तरह-तरह के शरीर बनाये – वृक्ष, रेंगने वाले कीड़े, पशु-पक्षी, मच्छर आदि परंतु उनको देखकर उसको कोई विशेष आनंद नहीं हुआ। उसे विशेष आनंद तब हुआ जब उसने मनुष्य-शरीर की रचना को देखा, ‘अहा ! मैंने ऐसा शरीर बनाया है जिसमें ब्रह्मानुभूति की योग्यता है।’* * सृष्टवा पुराणि विविधान्य….. (श्रीमद्भागवतः 11.9.28)

सब प्राणी केवल ऐन्द्रिक विषयों को ही जानते हैं किंतु अतीन्द्रिय वस्तु परमेश्वर के दर्शन करने का जो यंत्र है – प्रमाण वृत्ति, वह मनुष्य के अतिरिक्त और किसी प्राणी के पास नहीं है। न उनके पास साधन-चतुष्टय का अभ्यास है, न उनके पास वेद-शास्त्रादि का श्रवण है, न तो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इस ब्रह्माकार वृत्ति के उदय होने की कोई सामग्री ही उनके पास है। अतः मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई प्राणी ब्रह्मानुभूति की योग्यता नहीं रखता। इसलिए केवल मनुष्य योनि में ही तत्त्वज्ञान हो सकता है।

ईश्वर का यह बड़ा अनुग्रह है कि उसने हमको यह मनुष्य का शरीर प्रदान किया है। यह तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए ही है क्योंकि अन्य योनियों से मनुष्य की विलक्षणता इसी योग्यता में है। अन्य बातें तो सभी योनियों में उपलब्ध हो जाती हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016,  पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 278

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एक शक्ति जो मनुष्य की अपेक्षा उच्चतर है


श्री रमण महर्षि

गुरु का अनुग्रह तुमको जल से बाहर निकालने के लिए सहायता हेतु बढ़ाये गये हाथ के समान है अथवा वह अविद्या को दूर करने के लिए तुम्हारे (ईश्वर प्राप्ति के) मार्ग को सरल कर देता है। गुरु, अनुग्रह, ईश्वर आदि की यह सब चर्चा क्या है ? क्या गुरु तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हारे कान में धीरे से कुछ कह देते हैं ? तुम उसका अनुमान अपने जैसा ही कर लेते हो चूँकि तुम एक देह के साथ हो, तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए कुछ निश्चित कार्य करने के लिए वे भी एक देह है। उनका कार्य आंतरिक है।

गुरु की प्राप्ति किस प्रकार होती है ? परमात्मा, जो सर्वव्यापी है, अपने अनुग्रह में अपने प्रिय भक्त पर करुणा करता है और भक्त के मापदंड के अनुसार अपने-आपको प्राणी के रूप में प्रकट करता है। भक्त सोचता है कि वे मनुष्य हैं और देहों के मध्य जैसे संबंध होते हैं वैसे संबंध की आशा करता है परंतु गुरु, जो कि ईश्वर अथवा आत्मा के अवतार हैं, अंदर से कार्य करते हैं। व्यक्ति की उसके मार्ग की भूलों को देखने में सहायता करते हैं और जब तक उसे अंदर आत्मा का साक्षात नहीं हो जाय, तब तक सन्मार्ग पर चलने के लिए उसका मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे साक्षात्कार के पश्चात शिष्य को अनुभव होता है, ‘पहले मैं चिंतित रहता था, आज मैं वही पूर्ववत् आत्मा ही हूँ पर किसी भी वस्तु से प्रभावित नहीं हूँ। जो दुःखी था, वह कहाँ है ? वह कहीं भी नहीं दिखता।’

अब हमारा क्या कर्तव्य है ? केवल गुरु के वचनों का पालन करो, अंदर प्रयत्न करो। गुरु अंदर भी है और बाहर भी। इस प्रकार वे तुम्हारे लिए अंदर अग्रसर होने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं और तुम्हें केन्द्र तक खींचने के लिए अंतरंग को उद्यत करते हैं। इस प्रकार गुरु बाहर से धक्का देते हैं और अंदर से खींचते हैं, जिससे तुम केन्द्र पर स्थिर हो सको।

सुषुप्ति में तुम अंदर केन्द्रित होते हो। जाग्रत होने के साथ ही तुम्हारा मन बहिर्मुख होता है एवं इस, उस तथा अन्य समस्त वस्तुओं पर विचार करने लगता है। इसका निरोध आवश्यक है। यह उसी शक्ति के द्वारा सम्भव हो सकता है जो अंदर तथा बाहर दोनों ओर कार्य कर सकती है। क्या उसका एक देह से तादात्म्य किया जा सकता है ? हम सोचते हैं कि ‘हम अपने प्रयास से जगत पर विजय पा सकते हैं।’ जब हम बाहर से हताश हो जाते हैं और अंतर्मुख होते हैं तो हमें लगता है, ‘ओह ! ओह ! एक शक्ति है जो मनुष्य की अपेक्षा उच्चतर है।’ उच्चतर शक्ति का अस्तित्व स्वीकृत एवं मान्य करना ही होगा। अहंकार अत्यंत शक्तिशाली हाथी है तथा इसे सिंह से कम कोई भी वश नहीं कर सकता, जो इस उदाहरण में गुरु के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है, जिनका दर्शनमात्र हाथी को कम्पित कर खत्म कर देता है। समय आने पर ही हमें यह मालूम होगा कि जब हम नहीं होते हैं तभी हमारा ऐश्वर्य (महानता, सामर्थ्य) होता है। उस अवस्था को प्राप्त करने हेतु मनुष्य को अपने-आपको समर्पित करते हुए कहना होगा, ‘प्रभु ! आप मेरे आश्रयदाता हैं !’ तब गुरु देखते हैं कि ‘यह व्यक्ति कृपापात्र है’ और कृपा करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 24 अंक 278

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