जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाती है ‘गीता’

जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाती है ‘गीता’


 

(श्रीमद् भगवद्गीता जयंती : १० दिसम्बर )

पूज्य बापूजी की सारगर्भित अमृतवाणी

‘यह मेरा ह्रदय है’ – ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा हो तो वह गीता का ग्रंथ है | गीता में ह्रदयं पार्थ | ‘गीता मेरा ह्रदय है |’ अन्य किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने यह नहीं कहा है कि ‘यह मेरा ह्रदय है |’

भगवान आदिनारायण की नाभि से हाथों में वेद धारण किये ब्रह्माजी प्रकटे, ऐसी पौराणिक कथाएँ आपने – हमने सुनी, कहीं हैं | लेकिन नाभि की अपेक्षा ह्रदय व्यक्ति के और भी निकट होता है | भगवान ने ब्रह्माजी को तो प्रकट किया नाभि से लेकिन गीता के लिए कहते हैं :

गीता में ह्रदयं पार्थ |गीता मेरा ह्रदय है |’

परम्परा तो यह है कि यज्ञशाला में, मन्दिर में, धर्मस्थान पर धर्म – कर्म की प्राप्ति होती है लेकिन गीता ने गजब कर दिया – धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे…. युद्ध के मैदान को धर्मक्षेत्र बना दिया | पद्धति तो यह थी कि एकांत अरण्य में, गिरि ० गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर योग प्रकट हो लेकिन युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया | परम्परा तो यह है कि शिष्य नीचे बैठे और गुरु ऊपर बैठे | शिष्य शांत हो और गुरु अपने – आपमें तृप्त हो तब तत्त्वज्ञान होता है लेकिन गीता ने कमाल कर दिया है | हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं | किंकर्तव्यविमूढ़ता से आक्रांत मतिवाला अर्जुन ऊपर बैठा है और गीताकार भगवान नीचे बैठे हैं | अर्जुन रथी है और गीताकार सारथी हैं | कितनी करुणा छलकी होगी उस ईश्वर को, उस नारायण को अपने सखा अर्जुन व मानव – जाति के लिए ! केवल घोड़ागाड़ी ही चलाने को तैयार नहीं अपितु आज्ञा मानने को भी तैयार ! नर कहता है कि ;दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को ले चलो |’ रथ को चलाकर दोंन सेनाओं के बीच लाया है | कौन ? नारायण ! नर का सेवक बनकर नारायण रथ चला रहा है और उसी नारायण ने अपने वचनों में कहा :

गीता में ह्रदयं पार्थ |

पौराणिक कथाओं में मैंने पढ़ा है, संतों के मुख से मैंने सुना है, भगवान कहते हैं : ‘मुझे वैकुण्ठ इतना प्रिय नहीं, मुझे लक्ष्मी इतनी प्रिय नहीं, जितना मेरी गीता का ज्ञान कहनेवाला मुझे प्यारा लगता है |’ कैसा होगा उस गीतकार का गीता के प्रति प्रेम !

गीता पढकर १९८५ – ८६ में गीताकार की भूमि को प्रणाम करने के  लिए कनाडा के प्रधानमंत्री मि. पीअर टुडो भारत आये थे | जीवन की शाम हो जाय और देह को दफनाया जाय उससे पहले अज्ञानता को दफनाने के लिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और एकांत में चले गये | वे अपने शारीरिक पोषण के लिए एक दुधारू गाय और आध्यात्मिक पोषण के लिए उपनिषद् और गीता साथ में ले गये | टुडो ने कहा है : ‘मैंने बाइबिल पढ़ी, एंजिल पढ़ी और अन्य धर्मग्रन्थ पढ़े | सब ग्रंथ अपने – अपने स्थान पर ठीक है किंतु हिन्दुओं का यह ‘श्रीमद् भगवद्गीता’ ग्रंथ तो अद्भुत है | इसमें किसी मत-मजहब, पंथ या सम्प्रदाय की निंदा – स्तुति नहीं है वरन् इसमें तो मनुष्यमात्र के विकास की बातें हैं | गीता मात्र हिन्दुओं का ही धर्मग्रन्थ नहीं हैं, बल्कि मानवमात्र का धर्मग्रन्थ है |’

गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कहीं | और उन्नति कैसी ? एकांगी नहीं, द्विअंगी नहीं, त्रिअंगी नहीं सर्वागीण उन्नति | कुटुम्ब का बड़ा जब पुरे कुटुम्ब की भलाई का सोचता है तब ही उसके बडप्पन की शोभा है | और कुटुम्ब का बड़ा तो राग –द्वेष का शिकार हो सकता है लेकिन भगवान में राग – द्वेष कहाँ ! विश्व का बड़ा पुरे विश्व की भलाई सोचता है और ऐसा सोचकर वह जो बोलता है वही गीता का ग्रंथ बनता है |

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||

‘दु:खों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार – विहार करनेवाले का, कर्मो में यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है |’ (गीता :६.१७ )

केवल शरीर का स्वास्थ्य नहीं, मन का स्वास्थ्य भी कहा है |

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: |

सुखद स्थिति आ जाय चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों | दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है | दृष्टि दिव्य बन जाय, फिर आपके सभी कार्य दिव्य हो जायेंगे | छोटे – से – छोटे व्यक्ति को अगर सही ज्ञान मिल गया और उसने स्वीकार कर लिया तो वह महान बन के ही रहेगा | और महान – से – महान दिखता हुआ व्यक्ति भी अगर गीता के ज्ञान के विपरीत चलता है तो देखते – देखते उसकी तुच्छता दिखाई देने लगेगी | रावण और कंस ऊँचाइयों को तो प्राप्त थे लेकिन दृष्टिकोण नीचा था तो अति नीचता में जा गिरे | शुकदेवजी, विश्वामित्रजी साधारण झोपड़े में रहते हैं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं लेकिन दृष्टिकोण ऊँचा था तो राम-लखन दोनों भाई विश्वामित्र की पगचम्पी करते हैं |

गुरु तेन पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान |  (श्री रामचरित, बा.कां.:२२६ )

विश्वामित्रजी जगें उसके पहले जगपति जागते हैं क्योंकि विश्वामित्रजी के पास उच्च विचार है, उच्च दृष्टिकोण है | ऊँची दृष्टि का जितना आदर किया जाय उतना कम है | और ऊँची दृष्टि मिलती कहा से है ? गीता जैसे ऊँचे सद्ग्रंथो से, सत्शास्त्रों से और जिन्होंने ऊँचा जीवन जिया है, ऐसे महापुरुषों से | बड़े – बड़े दार्शनिकों के दर्शनशास्त्र हम पढ़ते हैं, हमारी बुद्धि पर उनका थोडा – सा असर होता है लेकिन वह लम्बा समय नहीं टिकता | लेकिन जो आत्मनिष्ठ धर्माचार्य हैं, उनका जीवन ही ऐसा ऊँचा होता है कि उनकी हाजिरीमात्र से लाखों लोगों का जीवन बदल जाता है | वे धर्माचार्य चले जाते हैं तब भी उनके उपदेश से धर्मग्रंथ बनता है और लोग पढ़ते – पढ़ते आचरण में लाकर धर्मात्मा होते चले जाते हैं |

मनुष्यमात्र अपने जीवन की शक्ति का एकाग्र हिस्सा खानपान, रहन-सहन में लगाता ई और दो – तिहाई अपने इर्द-गिर्द के माहौल पर प्रभाव डालने की कोशिश में ही खर्च करता है | चाहे चपरासी हो चाहे क्लर्क हो, चाहे तहसीलदार हो चाहे मंत्री हो, प्रधानमंत्री हो, चाहे बहु हो चाहे सास हो, चाहे सेल्समैन हो चाहे ग्राहक हो, सब यही कर रहे हैं | फिर भी आम आदमी का प्रभाव वही जल में पैदा हुए बुलबुले की तरह बनता रहता है और मिटता रहता है | लेकिन जिन्होंने स्थायी तत्त्व में विश्रांति पायी है, उन आचार्यों का, उन ब्रह्मज्ञानियों का, उन कृष्ण का प्रभाव अब भी चमकता – दमकता दिखाई दे रहा है |

ऋषि प्रसाद अंक – २१५, नवम्बर – २०१० से

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