पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
‘गीता’ युद्ध के मैदान में कही गयी है | तब समय का बड़ा अभाव था | कुछ भी अनावश्यक बात करने का समय नहीं था | पूरी गीता में एक भी शब्द अनुपयोगी नहीं मिलेगा | भगवान ने जो कहा है वह बिल्कुल संक्षेप में और साररूप है | दोनों सेनाओं के बीच रथ खड़ा है, ऐसे मौके पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: || (गीता : ४.३४ )
‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से आर कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे |’
जो श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहता है उस अर्जुन को भी श्रीकृष्ण ज्ञानियों से आत्मज्ञान पाने की सलाह दे रहे हैं | इससे आत्मज्ञान की महिमा का पता चलता है |
यह आत्मज्ञान मनुष्य-मनुष्य के बीच की दुरी मिटाता है, भय और शोक, ईर्ष्या और उद्वेग की आग से तपे हुए समाज की सुख और शान्ति, स्नेह और सहानुभूति, सदाचार और संयम, साहस और उत्साह, शौर्य और क्षमा जैसे दिव्य गुण देते हुए ह्रदय के अज्ञान-अन्धकार को मिटाकर जीव को अपने ब्रह्मस्वभाव में जगा देता है | जिस-जिस व्यक्ति ने, समाज ने, राष्ट्र ने तत्त्वज्ञान की उपेक्षा की, तत्त्वज्ञान से विपरीत आचरण किया उसका विनाश हुआ, पतन हुआ | घूस, पलायनवादी, आतंकवाद और कायरता जैसे दुर्गुण उस समाज में फैले | शास्त्रों में आता है :
आत्मलाभात परं लाभं न विद्यते |
‘आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है |’
मंद और म्लान जगत को तेजस्वी और कांतिमान आत्मसंयम और आत्मज्ञान के साधन से ही किया जा सकता है |