Monthly Archives: December 2016

तुलसी-महिमा श्रवणमात्र से ब्रह्मराक्षस-योनि से मुक्ति


‘स्कन्द पुराण’ में कथा आती है कि पूर्वकाल में विष्णुभक्त हरिमेधा और सुमेधा नामक दो ब्राह्मण एक समय तीर्थयात्रा के लिए चले। रास्ते में उन्हें एक तुलसी-वन दिखा। सुमेधा ने तुलसी वन की परिक्रमा की और भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। यह देख हरिमेधा ने तुलसी का माहात्म्य और फल जानने के लिए बड़ी प्रसन्नता से बार-बार पूछाः “ब्रह्मन् ! अन्य देवताओं, तीर्थों, व्रतों और मुख्य-मुख्य विद्वानों के रहते हुए तुमने तुलसी वन को क्यों प्रणाम किया है ?”

सुमेधाः “विप्रवर ! पूर्वकाल में जब सागर मंथन हुआ था तो उसमें से अमृतकलश भी निकला था। उसे दोनों हाथों में लिए हुए श्रीविष्णु बड़े हर्षित हुए। उनके नेत्रों से आनंदाश्रु की कुछ बूँदें उस अमृत के ऊपर गिरीं। उनसे तत्काल ही मंडलाकार तुलसी उत्पन्न हुई। वहाँ प्रकट हुई लक्ष्मी तथा तुलसी को ब्रह्मा आदि देवताओं ने श्री हरि की सेवा में समर्पित किया और भगवान ने उन्हें ग्रहण कर लिया। तब से तुलसी जी भगवान श्री विष्णु की अत्यंत प्रिय हो गयीं।

सम्पूर्ण देवता भगवत्प्रिया तुलसी की श्रीविष्णु के समान ही पूजा करते हैं। भगवान नारायण संसार के रक्षक हैं और तुलसी उनकी प्रियतमा हैं इसलिए मैंने उनको प्रणाम किया है।”

सुमेधा इस प्रकार कह ही रहे थे कि सूर्य के समान अत्यंत तेजस्वी एक विशाल विमान उनके निकट दिखाई दिया। फिर जिस वटवृक्ष की छाया में बैठे थे वह गिर गया और उससे दो दिव्य पुरुष निकले, जो अपने तेज से सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उन दोनों ने हरि मेधा और सुमेधा को प्रणाम किया। वे दोनों ब्राह्मण और आश्चर्यचकित होकर बोलेः “आप कौन हैं ?”

दोनों दिव्य पुरुष बोलेः “विप्रवरो ! आप दोनों ही हमारे माता-पिता और गुरु हैं, बंधु भी आप ही हैं।”

फिर उनमें से जो ज्येष्ठ था वह बोलाः “मेरा नाम आस्तीक है, मैं देवलोक का निवासी हूँ। एक दिन मैं नंदनवन में एक पर्वत पर क्रीड़ा करने के लिए गया। वहाँ देवांगनाओं ने मेरे साथ इच्छानुसार विहार किया। उस समय उनके मोती और बेला के हार तपस्यारत लोमश मुनि के ऊपर गिर पड़े, जिससे मुनि क्रोधित हो उठे और मुझे श्राप दियाः “तू ब्रह्मराक्षस होकर बरगद के वृक्ष पर निवास कर।”

मैंने विनयपूर्वक जब उन्हें प्रसन्न किया, तब उन्होंने इस श्राप से मुक्त होने का उपाय बताया- “जब तू किसी भगवद्भक्त, धर्मपरायण ब्राह्मण के मुख से भगवान श्रीविष्णु का नाम और तुलसी दल की महिमा सुनेगा, तब तत्काल तुझे इस योनि से मुक्ति मिल जायेगी।”

इस प्रकार मुनि का श्राप पाकर मैं चिरकाल से अत्यंत दुःखी हो इस वटवृक्ष रहता था। आज दैववश आप दोनों के दर्शन से मुझे श्राप से छुटकारा मिल गया।

अब मेरे इस दूसरे साथी की कथा सुनिये। ये पहले एक श्रेष्ठ मुनि थे और सदा गुरुसेवा में ही लगे रहते थे। एक समय गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करने से ये ब्रह्मराक्षस बन गये। इनके गुरुदेव ने भी इनकी श्राप-मुक्ति का यही उपाय बताया था। अतः अब ये भी श्राप-मुक्त हो गगये।”

वे दोनों उन मुनियों को बार-बार प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक दिव्य धाम को गये। फिर वे दोनों मुनि परस्पर पुण्यमयी तुलसी की प्रशंसा करते हुए तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े। इसलिए तुलसी जी का लाभ अवश्य लेना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 14 अंक 288

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माँ के संस्कार बने उज्जवल जीवन का आधार


स्वामी विवेकानंद जयंतीः 12 जनवरी 2017

संतान पर माता-पिता के गुणों का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। पूरे परिवार में माँ के जीवन और उसकी शिक्षा पर संतान पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। एक आदर्श माँ अपनी संतान को सुसंस्कार देकर उसे सर्वोत्तम लक्ष्य तक पहुँचाने में बहुत सहायक हो सकती है। इस बात को समझने वाली और उत्तम संस्कारों से सम्पन्न थीं माता भुवनेश्वरी देवी।

सुसंस्कार सिचंन हेतु माता भुवनेश्वरी देवी बचपन में नरेन्द्र को अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनातीं। वे जब भगवान श्रीराम जी के कार्यों में अपने जीवन को अर्पित कर देने वाले वीर-भक्त हनुमान जी के अलौकिक कार्यों की कथाएँ सुनातीं तो नरेन्द्र को बहुत ही अच्छा लगता। माता से उन्होंने सुना कि ‘हनुमान जी अमर हैं, वे अभी भी जीवित हैं।’ तब से हनुमान जी के दर्शन हेतु नरेन्द्र के प्राण छटपटाने लगे। एक दिन नरेन्द्र बाहर हो रही भगवत्कथा सुनने गये। कथाकार पंडितजी नाना प्रकार की आलंकारिक भाषा में हास्य रस मिला के हनुमान जी के चरित्र का वर्णन कर रहे थे। नरेन्द्र धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँचे। पूछाः “पंडित जी ! आपने जो कहा कि हनुमान जी केला खाना पसंद करते हैं और केले के बगीचे में ही रहते हैं तो क्या मैं वहाँ जाकर उनके दर्शन पा सकूँगा ?”

बालक में हनुमान जी से मिलने की कितनी प्यास थी, कितनी जिज्ञासा थी इस बात की गम्भीरता को पंडित जी समझ न सके। उन्होंने हँसते हुए कहाः “हाँ बेटा ! केले के बगीचे में ढूँढने पर तुम हनुमान जी पा सकते हो।”

बालक घर न लौटकर सीधे बगीचे में जा पहुँचा। वहाँ केले के एक पेड़ के नीचे बैठ गया और हनुमान जी की प्रतीक्षा करने लगा। काफी समय बीत गया पर हनुमान जी नहीं आये। अधिक रात बीतने पर निराश हो बालक घर लौट आया। माता को सारी घटना सुनाकर दुःखी मन से पूछाः “माँ ! हनुमान जी आज मुझसे मिलने क्यों नहीं आये ?” बालक के विश्वास के मूल पर आघात करना बुद्धिमती माता ने उचित न समझा। उसके मुखमण्डल को चूमकर माँ ने कहाः “बेटा ! तू दुःखी न हो, हो सकता है आज हनुमान जी श्रीराम जी के काम से कहीं दूसरी जगह गये हों, किसी और दिन मिलेंगे।”

आशामुग्ध बालक का चित्त शांत हुआ, उसके मुख पर फिर से हँसी आ गयी। माँ के समझदारीपूर्ण उत्तर से बालक के मन से हनुमान जी के प्रति गम्भीर श्रद्धा का भाव लुप्त नहीं हुआ, जिससे आगे चलकर हनुमान जी के ब्रह्मचर्य-व्रत से प्रेरणा पाकर उसने भी ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया।

बाल मन में देव-दर्शन की उठी इस अभिलाषा को, श्रद्धा की इस छोटी सी चिनगारी को देवीस्वरूपा माँ ने ऐसा तो प्रज्वलित किया कि यह अभिलाषा ईश्वर दर्शन की तड़प बन गयी। और नरेन्द्र की यह तड़प सदगुरु रामकृष्ण परमहंस जी के चरणों में पहुँचकर पूरी हुई। सदगुरु की कृपा ने नरेन्द्र को स्वामी विवेकानंद बना दिया। देह में रहे हुए विदेही आत्मा का साक्षात्कार कराके परब्रह्म-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर दिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 15 अंक 288

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चिंता आसक्ति मिटाने की अनमोल युक्ति


पूज्य बापू जी

भोजन में तुलसी के पत्ते डालने से वह भोजन आपका नहीं, ठाकुर जी का हो जाता है। तुलसी को माता समझते हो तो एक काम करो। आप सुबह उठो तो तुलसी के 15-25 पत्ते लेकर घर के ऊपर एक पत्ता रख दो कि ‘यह घर भगवान को अर्पण। मेरा नहीं, भगवान का है।’ कन्या के सिर पर तुलसी का पत्ता रख दो, ‘यह मेरी बेटी नहीं, आपकी है मेरे ठाकुर जी ! वेटी की मँगनी हो, शादी हो…. कब हो? आपकी मर्जी ! आज से मैं निश्चिंत हुआ।’ बेटे की चिंता है तो उस पर भी तुलसी पत्ता रख दो कि ‘ठाकुर जी ! मेरा बेटा नहीं, आपका है।’

जहाँ अपना स्वार्थ रहता है वहाँ भगवान बेपरवाह होते हैं। अपना स्वार्थ गया, भगवान का कर दिया तो भगवान सँभालते हैं। तुलसी का पत्ता लेकर जो बहुत अच्छी वस्तु ‘मेरी-मेरी’ लगती है, उसके ऊपर रख दो, ‘मेरा गहना नहीं, भगवान का है और शरीर भगवान का है….’ ऐसा करके गहना पहनो। फिर तिजोरी के ऊपर तुलसी का पत्ता रख दो कि ‘मेरी नहीं है, ठाकुर जी की है।’ ‘मेरा-मेरा’ मान के उसमें आसक्ति की तो मरने के बाद छिपकली, मच्छर,चूहा या और कोई शरीर लेकर उस घऱ में आना पड़ेगा इसलिए भगवद् अर्पण करके अपने व कुटुम्ब के लिए यथायोग्य सत्कृत्य के लिए उसका उपयोग करो पर उसमें आसक्ति नहीं करो। ‘मेरा-मेरा’ करके कितने ही चले गये, किसी के हाथ एक तृण आया नहीं। सच पूछो तो सब चीजें भगवान की हैं, यह तो हमारे मन की बेईमानी है कि उन्हें हम ‘हमारा-हमारा’ मानते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 20 अंक 288

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