मनोवांछित फल देनेवाली रात्रि : महाशिवरात्रि

मनोवांछित फल देनेवाली रात्रि : महाशिवरात्रि


(महाशिवरात्रि : २४ फरवरी)
महाशिवरात्रि साधना का परम दुर्लभ योग है, जिसमें उपवास व रात्रि-जागरण कर उपासना करनेवाले पर भगवत्कृपा बरसती है । ‘शिव पुराण’ में आता है कि ‘महाशिवरात्रि का व्रत करोडों हत्याओं के पाप का नाश करनेवाला है ।
‘ईशान संहिता’ में आता है :
माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ।।
‘माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की महानिशा में करोडों सूर्यों के तुल्य कांतिवाले लिंगरूप आदिदेव शिव प्रकट हुए ।
‘शिव’ अर्थात् कल्याणकारी और ‘लिंग’ अर्थात् मूर्ति । शिवलिंग यानी कल्याणकारी परमात्मा का प्रतीक । इस दिन शिवभक्त मिट्टी के घडे में पानी भरकर उसमें आक, धतूरे के फूल, बेलपत्ते, दूध, चावल और बेर डालकर शिवलिंग पर चढाते हैं ।
महाशिवरात्रि महादेव-आत्मशिव का ज्ञान पाने व उसमें विश्रांति पाने की रात्रि है । ऐसे में तमस, तंद्रा एवं नींद कहाँ ! महाशिवरात्रि ऐसा महोत्सव है जिसमें आत्मबोध पाना होता है कि हम भी आत्मशिव हैं ।
महाशिवरात्रि का हार्द
महाशिवरात्रि को रात्रि-जागरण व उपवास करने के पीछे एक तात्त्विक कारण है । शिवजी संहार के देवता हैं, तमोगुण के अधिष्ठाता हैं इसलिए स्वाभाविक है कि उनकी उपासना हेतु रात्रि का समय अधिक अनुकूल है । रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है । रात्रि का आगमन होते ही सबसे पहले प्रकाश का संहार होता है । पशु-पक्षी, मानव आदि सभी जीवों की कर्मचेष्टा का संहार होता है । निद्रा के अधीन हुआ मनुष्य सब होश भूल जाता है और उस संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर पडा रहता है । इसलिए निर्विकल्प समाधि में निमग्न रहनेवाले शिवजी की आराधना के लिए जीव-जगत की निश्चेष्ट अवस्थावाली रात्रि का समय ही उचित है ।
‘शिव पुराण’ में आता है कि रात्रि के प्रथम प्रहर में गुरुमंत्र का अर्थसहित जप विशेष फलदायी है । गुरुप्रदत्त मंत्र न हो तो ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जप करना चाहिए । दूसरे प्रहर में प्रथम प्रहर की अपेक्षा दुगना, तीसरे प्रहर में दूसरे से दुगना और चौथे में तीसरे से दुगना जप करने का विधान है । गुरुमंत्र का जप और उसके अर्थ में शांत होना आत्मशिव की ओर आने का सुगम साधन है ।
उपवास का महत्त्व
अन्न में एक प्रकार की मादकता होती है । यह सभीका अनुभव है कि भोजन के बाद शरीर में आलस्य आता है । इसी प्रकार अन्न में एक प्रकार की पार्थिव शक्ति होती है, जिसका पार्थिव शरीर के साथ संयोग होने पर वह दुगनी हो जाती है, जिसे आधिभौतिक शक्ति कहा जाता है । इस शक्ति की प्रबलता में आध्यात्मिक शक्ति का संचय, जो हम उपासना द्वारा करना चाहते हैं, वह सहज नहीं होता । इस तथ्य का महर्षियों ने अनुभव किया और सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । श्रीमद्भगवद्गीता (२.५९) में आता है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
इसके अनुसार उपवास विषय-निवृत्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है क्योंकि पेट में अन्न जाने के बाद ही संसार के विषयभोग में मन जाता है । खाली पेट संसार में घूमने-फिरने की, सिनेमा, नाटक आदि देखने की रुचि ही नहीं होती । अतः आध्यात्मिक शक्ति-संचय हेतु यथायोग्य उपवास आवश्यक है ।
पूज्य बापूजी कहते हैं…
महाशिवरात्रि महोत्सव व्रत-उपवास एवं तपस्या का दिन है । दूसरे महोत्सवों में तो औरों से मिलने की परम्परा है लेकिन यह पर्व अपने अहं को मिटाकर लोकेश्वर से मिल भगवान शिव के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए है । मानव में अद्भुत सुख, शांति एवं सामथ्र्य भरा हुआ है । जिस आत्मानुभव में शिवजी परितृप्त एवं संतुष्ट हैं, उस अनुभव को वह अपना अनुभव बना सकता है । अगर उसे शिव-तत्त्व में जागे हुए, आत्मशिव में रमण करनेवाले जीवन्मुक्त महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य मिल जाय, उनका मार्गदर्शन, उनकी अमीमय कृपादृष्टि मिल जाय तो उसकी असली महाशिवरात्रि हो जाय !

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