Monthly Archives: July 2017

कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य निष्कंटक जहाँ !


राजमहल में राजा का 5 वर्ष का पुत्र सोया पड़ा था। एक भील अवसर पाकर बालक को चुरा ले गया और उसके आभूषण उतार के उसे अपने बच्चों के साथ रखा। भील के बच्चे और राजकुमार भील के पास पल रहे थे।

राजकुमार बड़ा होता गया। जब युवावस्था में आया तो वह भीलों की तरह कामकाज करता रहा अर्थात् हिंसा, पाप, चोरियाँ और जीवों का घात करता रहा।

एक दिन वह घूमते-घामते शिकार करने हेतु घने जँगल में जा पहुँचा। वहाँ उसे प्यास ने बहुत सताया। इधर-उधर जाँच की तो उसे एक महात्मा की कुटिया दिखी। जा के महात्मा को प्रणाम कर विनती करके कहने लगाः “महाराज ! मुझे प्यास सता रही है, कृपा  करके पानी पिलाइये।”

महात्मा ने उसे पहचान लिया। जब राजा दर्शन के लिए महात्मा को सादर आमंत्रित करता था, तब उन्होंने राजकुमार को राजमहल में अच्छी तरह देखा था। महात्मा ने उस युवक को बिठाया, पानी पिलाया और कहाः “तुम कौन हो ?”

युवकः “मैं भील हूँ।”

महात्मा आश्चर्य में पड़ गये। बोलेः “तुम राजकुमार हो। मैं तुम्हें अच्छी प्रकार जानता हूँ। तुम भीलों के संग में आकर अयोग्य काम करके अपने को भील समझ बैठे हो। तुम अपने को पहचानो। जब तुम राजकुमार वाले स्वरूप को जानोगे, तब तुम इस भील के जीवन को छोड़ के राजमहल में जाओगे और राजसिंहासन प्राप्त कर राजा हो के राज्य चलाते हुए आनंद पाओगे।”

महात्मा के वचन सुनने पर युवक को बचपन का स्मरण आया और उसे निश्चय हो गया कि ‘मैं भील नहीं हूँ, मैं निःसंदेह राजकुमार हूँ।’

महात्मा ने तत्काल राजा को संदेश भेजा। राजकुमार के लिए राजकीय वस्त्र और आभूषण आये, जिन्हें पहनकर वह राजा के लोगों के साथ राजमहल में गया और राजा से मिला। फिर तो वह राजमहल में रहकर राज्यसुख प्राप्त करके बड़े आनंद को प्राप्त हुआ।

इस दृष्टांत का तात्पर्य यह है कि इस जीवरूपी राजकुमार को देहाध्यास अर्थात् भ्रांति के कारण काम, क्रोध आदि अपने वश में कर लेते हैं और संसाररूपी घने वन में ले  जा के उसके दैवी सम्पदा गुणरूपी आभूषण उतार के अपने जैसा तुच्छ कर देते हैं।

यह जीव अपने को कर्ता-भोक्ता और सुखी-दुःखी, पापी-पुण्यात्मा मानकर संसाररूपी जंगल में भटक रहा है। जब यह किसी पुण्य के प्रताप से किन्हीं आत्मवेत्ता सद्गुरु की शरण में जाता है, तब उसे सद्गुरु ज्ञानोपदेश देते हैं कि ‘तू देह नहीं है। तू अज्ञानी नहीं है। तू जाति-वर्णवाला, कर्ता-भोक्ता, पाप-पुण्य के संबंधवाला नहीं है। तू शुद्ध, सत्-चित्-आनंद, चिद्घन ‘स्व’ स्वरूप को भूलकर इन अवस्थाओं में अपने को मान रहा है। तू ‘स्व’ स्वरूप को याद कर और अपने को पहचान, तब तू  परम सुख प्राप्त करेगा।’ सद्गुरु के उपदेश से जीवभाव की मान्यता त्यागकर साक्षी, अभिन्न, एकरूप ब्रह्म की अद्वैतनिष्ठा प्राप्त करके सुखसागर ब्रह्म में लीन होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 28 अंक 295

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आप जो भी हों, जानिये कैसे बन सकते हैं उत्तम ?


बाल्यावस्था वही उत्तम है जो निरर्थक क्रीडाओं एवं संगदोषवश व्यसन-वासनाओं की पूर्ति में भ्रष्ट न होकर विद्याध्ययन में सार्थक हो।

युवावस्था वही उत्तम है जिसकी शक्ति से सद्गुणों का विकास हो, सद्ज्ञान का सुंदर  प्रकाश हो। सदाचरण की ही रक्षा हो और धर्मपथ में चलते हुए सत्यानंदघन प्रियतम (परमात्मा) की प्राप्ति ही लक्ष्य हो। जिसकी शक्ति से अशुभ कर्मों की ओर प्रेरित हुई इन्द्रियों का दमन हो, दुर्विकारों का शमन हो तथा विषयों का वमन हो और शुभ कर्मों के लिए ही सदा तत्पर मन हो। विषय-वासनाओं के पथ में चंचल हुए मन का निरोध हो, स्वेच्छाचारिता का विरोध हो।

वृद्धावस्था वही उत्तम है जिसमें सांसारिक पदार्थों के प्रति मोह-ममता का त्याग हो, केवल परमात्मा में ही अटल अनुराग हो। अपनी ऐहिक सुख भोगों की तृष्णा पर क्रोध हो, बहिर्वृत्तियों का अवरोध हो और सत्य-असत्य का यथार्थ बोध हो।

बलवान वही उत्तम है जो निर्बलों, असहायों की मदद करने में शूर हो व जिससे आलस्य एवं भय सर्वथा दूर हो। संयम जिसके साथ में हो, इन्द्रियरूपी घोड़ों की मनरूपी लगाम जिसके हाथ में हो। इसके साथ ही जो बुद्धिमान हो व निरभिमान हो।

धनवान वही उत्तम है जो कृपण न होकर दानी हो, उदार हो और जिसके द्वारा धर्मपूर्वक न्याययुक्त व्यापार हो। जिसके द्वार पर अतिथि का समुचित सत्कार हो, दीन-दुःखियों का सदा उपकार हो। जिसके यहाँ विद्वानों एवं साधु-महात्माओं का सम्मान हो और जो स्वयं अति सरल और मतिमान हो।

बुद्धिमान वही उत्तम है जिसमें अपने माने हुए (मान्यता पर आधारित) ज्ञान से निराशा हो, यथार्थ सत्य (आत्मज्ञान) के प्रति सच्ची जिज्ञासा हो। सद्गुरुदेव के प्रति पूर्ण निर्भरता हो और उन्हीं के आज्ञापालन में सतत् तत्परता हो।

त्यागी वही उत्तम है जिसका मन भोग-वासनाओं से सदा वियुक्त (असंग) हो। जिसका अहं देहाभिमान से मुक्त हो। जिसमें किसी भी पदार्थ के प्रति अपनत्व न रहे। जो किसी को भी अपना न कहे। विचार की धारा में जिसकी आसक्ति, ममता बह जाय। जो नित्य है उसके सिवाय जहाँ अन्य कुछ भी न रह जाय।

प्रेमी वही उत्तम है जो आनंदघन प्रियतम में सदा योगस्थ (एकाकार) रहे और संसार-प्रपंच से सदा तटस्थ रहे। जहाँ प्रेमास्पद का स्वभावतः सतत ध्यान रहे, अपनी सुधबुध में उन्हीं का गुणगान रहे और प्रत्येक दशा में ‘वे ही एक अपने हैं’ केवल यही ध्यान रहे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 21 अंक 295

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अमृतवचन…. जो बदल देंगे आपकी जिंदगी


 

भगवत्शरण और भगवत्स्मृति, भगवत्कथा तथा भगवज्जनों का संग मनुष्य जीवन से अगर हटा दिये जायें तो मनुष्य जैसा कोई अभागा प्राणी नहीं मिलेगा और ये चार चीजें अगर मनुष्य जीवन में हैं तो उससे बढ़कर कोई जीवन है ही नहीं, था नहीं, हो सकता नहीं !

गीता, गंगा और गाय को महत्त्व देने से ही देश का सर्वांगीण विकास होगा। ये तीनों स्वास्थ्य, सद्बुद्धि और संस्कृति के प्रतीक हैं।

यथाशक्ति समाज की भलाई करें और बदले में कुछ भी पाने की इच्छा न करें तो अंतर्यामी ईश्वर में विश्रांति मिलने लगती है।

त्रिकाल संध्या करने वाले को कभी रोजी रोटी के लिए चिंता नहीं करनी पड़ती।

तुम मरने वाला शरीर नहीं हो, दुःखी और भयभीत होने वाला मन नहीं हो, राग-द्वेष में फँसने वाली बुद्धि नहीं हो, तुम तो परमात्मा, गुरु के अमृतमय आत्मा हो। ॐ अमृतोऽसि। शाश्वतोऽसि। चैतन्योऽसि।

जो कष्ट दे के सुखी होना चाहता है वह भविष्य में बड़ा दुःख बुलाता है। जो कष्ट सह के दूसरों के दुःख हरता है वह भविष्य में तो क्या वर्तमान में ही आनंदस्वरूप ईश्वर का प्रसाद पाता है।

सत्ता या विद्या होने से ही कोई सेवा कर सकता है, धन होने से ही कोई निर्दुःख होता है ऐसी बात नहीं है। कुछ भी न हो, केवल सद्भाव, सत्संग हो और भगवान अपने लगें बस ! फिर वह शबरी की नाई अबला हो, सुकरात, अष्टावक्र जी की नाईं कुरुप हो तो भी वह व्यक्ति महान-से-महान बन सकता है।

ईमानदारी से किया हुआ व्यवहार भी भक्ति बन जाता है और बेईमानी, दिखावा और ठगने के लिए की हुई भक्ति भी बंधन बन जाती है।

जीवन में क्षमा का गुण लाने से सुख-शांति अपने-आप आ जाती है। आप चाहे घर में हों या नौकरी-धंधे में हो, अगर किसी से कुछ गलती हो जाय तो आपको उसे थोड़ा समझा-सुना के स्नेह कर लेना चाहिए, क्षमा कर देना चाहिए।

जीवन में अगर सुखी रहना हो तो दूसरों की की हुई बुराई और अपनी की हुई भलाई को भूल जाओ।

किसी भी चीज को ईश्वर से अधिक मूल्यवान कभी मत समझो।

बीते हुए समय को याद न करना, भविष्य की चिंता न करना और वर्तमान में प्राप्त सुख-दाःदि में सम रहना, ईश्वर-सुमिरन, सत्संग उन्नति का सर्वोपरि साधन है।

जो अपनी मति व योग्यता के सदुपयोग से दूसरों के दुःख मिटाता है, उसके दिल में दुःख टिकता ही नहीं।

अस्त्र-शस्त्र की चोट उतनी तेज नहीं होती जितनी जिह्वा की। अतः सदैव हितकर बोलो, मधुर सारगर्भित बोलो अथवा चुप रहो।

सबका मंगल हो। दुर्जनों को भगवान जल्दी सद्बुद्धि दे, नहीं तो समाज सद्बुद्धि दे। जो जिस पार्टी में है… पद का महत्त्व न समझो, सत्कर्म व सज्जना का महत्त्व, अपनी संस्कृति का महत्त्व समझो। पद आज है, कल नहीं है लेकिन संस्कृति तो सदियों से तुम्हरी सेवा करती आ रही है।

स्वार्थ में अंधे बन के आपस में लड़ाकर मारने वाले षड्यंत्रकारियों से बच के अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए, सीमा पर तैनात प्रहरी की तरह सदैव सावधान रहो। अपनी दृष्टि को व्यापक बनाने का का अभ्यास करो। महापुरुषों का वेदांत-सत्संग सुनो।

संत श्री आशाराम जी बापू के संत्संगों से संकलित

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 2, अंक 295

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ