Monthly Archives: August 2017

श्राद्ध-महिमा


एवं पितरों को तृप्त व प्रसन्न करने के उपाय

(श्राद्धपक्षः 5 सितम्बर 2017 से 20 सितम्बर 2017 तक)

श्रद्धया दीयते यत्र तच्छ्राद्धं परिचक्षते।

‘श्रद्धा से जो पूर्वजों के लिए किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं।’

‘पद्म पुराण’ में आता हैः ‘श्राद्ध से प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, विद्या, राज्य, लौकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं।’

अमावस्या को श्राद्ध की महिमा

‘वराह पुराण’ के अनुसार एक बार पितरों ने ब्रह्मा जी के चरणों में निवेदन कियाः “भगवन् ! हमें जीविका देने की कृपा कीजिये, जिससे हम सुख प्राप्त कर सकें।”

प्रसन्न होते हुए भगवान ब्रह्मा  जी ने उन्हें वरदान देते हुए कहाः “अमावस्या की तिथि को मनुष्य जल, तिल और कुश से तुम्हारा तर्पण करेंगे। इससे तुम परम तृप्त हो जाओगे। पितरों के प्रति श्रद्धा रखने वाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना करेगा, उस पर अत्यंत संतुष्ट होकर यथाशीघ्र वर देना तुम्हारा परम कर्तव्य है।”

यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है तथापि आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है। जिन पितरों की शरीर छूटने की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है।

अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिंडदान एवं श्राद्धादि की आशा में आते हैं। यदि वहाँ उन्हें पिंडदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलते हैं तो वे श्राप देकर चले जाते हैं। अतः श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

पितरों की संतुष्टि हेतु श्राद्ध-विधि से करणीय

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में पुलस्त्य ऋषि भीष्मजी को कहते हैं- पितृकार्य में दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) को अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधे पर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध – ये सदा पितरों को तृप्त करते हैं।

चाँदी के बने हुए या चाँदी-मिश्रित पात्र में जल रखकर पितरों को श्रद्धापूर्वक अर्पित किया जाय तो वह अक्षय हो जाता है। चाँदी न हो तो चाँदी की चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं। चाँदी का दर्शन उन्हें प्रिय है।

पितरों का उद्धारक तथा राज्य व आयु बढ़ाने वाला मंत्रः

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।

नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।

‘देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वधा और स्वाहा को मेरा सर्वदा नमस्कार है, नमस्कार है।’ (अग्नि पुराणः 117.22)

श्राद्ध के प्रारम्भ, समाप्ति तथा पिंडदान के समय इस मंत्र का समाहित (सावधान) चित्त होकर 3-3 बार पाठ करने से पितृगण शीघ्र ही वहाँ आ जाते हैं और राक्षसगण तुरंत वहाँ से पलायन कर जाते हैं। यह वीर्य, पवित्रता, सात्त्विक बल, धन-वैभव, दीर्घायु, बल आदि को बढ़ाने वाला मंत्र है।

पद्म पुराण में आता है कि जो भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी संतुष्ट करते हैं। वे पुष्टि, आरोग्य, संतान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं। पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही संतुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है।’

पूज्य बापू जी कहते हैं- “श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रूपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन 11.36 से 12.24 बजे के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें। चारा खरीदने को भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें- ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं। मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-कराने वाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है। इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं।’ इससे आपको मंगलमय लाभ होगा।’

(श्राद्ध से संबंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम से प्रकाशित पुस्तक श्राद्ध-महिमा)

सामूहिक श्राद्ध का लाभ लें

सर्वपित्री दर्श अमावस्या (19 सितम्बर 2017) के दिन विभिन्न स्थानों के संत श्री आशाराम जी आश्रमों में सामूहिक श्राद्ध का आयोजन होता है। आप भी इसका लाभ ले सकते हैं। इस हेतु अपने नजदीकी आश्रम में 12 सितम्बर तक पंजीकरण करा लें। अधिक जानाकारी हेतु पहले ही अपने नजदीकी आश्रम से सम्पर्क कर लें।

अगर खर्च की परवाह न हो तो अपने घर में भी श्राद्ध करा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 26 अंक 296

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राठौर-केसरी वीर दुर्गादास


मुगल शासन के समय की बात है। जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह वीरगति को प्राप्त हो गये थे और उस समय वहाँ कोई राजा न होने के कारण औरंगजेब ने जोधपुर को अपने शासन में लेने के प्रयास किये। परंतु उस समय जसवंत सिंह के पुत्र राजकुमार अजीत सिंह के संरक्षक थे सनातन धर्म व संस्कृति प्रेमी वीर दुर्गादास राठौर, जिन्होंने जोधपुर से हिन्दू शासन नष्ट करने की औरंगजेब की सारी कुचेष्टाओं को विफल कर दिया।

औरंगजेब ने अपने पुत्र आजम और मुहम्मद अकबर की अध्यक्षता में मेवाड़ और मारवाड़ को जीतने के लिए बड़ी सेना भेजी। मुहम्मद अकबर दुर्गादास के शिष्ट व्यवहार और सज्जनता से प्रभावित होकर उनसे मिलने गया। औरंगजेब को जब यह पता चला तो वह हाथ धोकर दोनों के पीछे पड़ गया। मुहम्मद अकबर को विवशतापूर्वक ईरान जाना पड़ा। औरंगजेब को खबर मिली कि मुहम्मद का पुत्र बुलंदअख्तर और पुत्री सफायतुन्निशा जोधपुर में ही हैं तो उन्हें दिल्ली लाने के लिए उसने अपना एक प्रतिनिधि भेजा। दुर्गादास ने दोनों को इस बात पर लौटाना स्वीकार किया कि ‘औरंगजेब जोधपुर के राजसिंहासन पर जसवंत सिंह के पुत्र अजीत सिंह का आधिपत्य स्वीकार कर ले।’

दुर्गादास कुशल नीतिज्ञ भी थे। उन्होंने बुलंदअख्तर को जोधपुर में ही रखा और केवल औरंगजेब की पौत्री सफायतुन्निशा को लेकर दिल्ली पहुँचे।

सफायतुन्निशा औरंगजेब के पास पहुँची व उसे प्रणाम किया। औरंगजेब पौत्री को देखकर बोलाः “बेटी ! अब तक तुम्हें अपने मजहब का पता नहीं है। तुम काफिरों के साथ रही हो, अब कुरान पढ़ने में  मन लगाओ।”

वह बोलीः “बाबाजान ! यह आप क्या कह रहे हैं ! चाचा दुर्गादास जी ने तो मेरा अपनी बेटी की तरह पालन किया है। धार्मिक शिक्षा के लिए उन्होंने मुझे पूरी छूट दे दी थी और कुरान पढ़ाने के लिए भी एक मुसलिम औरत की तजवीज कर दी थी। उन्होंने तो मुझे रब से प्रेम करना सिखाया है।”

बादशाह का दिल हिंदुओं के प्रति शुक्रगुजारी से भर गया। वह बोलाः “वाह ! हिन्दुओं की बहुत सी बातें ऐसी हैं कि उनमें उनका मुकाबला शायद फरिश्ते (अल्लाह के दूत) ही कर सकें।”

तभी राठौर-केसरी दुर्गादास ने औरंगजेब के शिविर में प्रवेश किया और उसकी बात सुनकर कहाः “वह तो हमारा कर्तव्य था बादशाह ! हिन्दुओं का किसी जाति, धर्म अथवा व्यक्ति से द्वेष या वैर नहीं है पर देश व संस्कृति पर आघात करने वालों से स्वयं की रक्षा करना वे अपना धर्म मानते हैं।”

औरंगजेब का हृदय दुर्गादास जी के प्रति आदरभाव से भर गया, वह बोलाः “सचमुच, आप फरिश्ते हैं दुर्गादास !”

औरंगजेब ने वीर राठौर को सम्मानपूर्वक बैठाया और अजीत सिंह को जोधपुर के महाराज मानने का फरमान जारी किया। दुर्गादास ने बुलंदअख्तर को भी दिल्ली भेज दिया।

वीर राठौर ने ऐसे अन्यायी बादशाह को भी अपने हिन्दू धर्म के संस्कारों से प्रभावित कर दिया और जोधपुर के राज्य में में अजीतसिंह को महाराज घोषित कराके वहाँ सनातन धर्म-रक्षा के सराहनीय प्रयास किये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 19 अंक 296

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मैना का बलिदान


सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में जब अंग्रेजों की विजय का क्रम आरम्भ होता दिखाई देने लगा तो नाना साहब पेशवा बिठूर (जि. कानपुर, उ.प्र.) छोड़ने को विवश हो गये। सनातन संस्कृति के सुंसंस्कारों व देश-प्रेम से सुसम्पन्न उनकी पुत्री मैना क्रांतिकारियों को अंग्रेजों की गुप्त सूचनाएँ देने के उद्देश्य से कुछ सेवकों के साथ महल में ही रुक गयी।

एक दिन अंग्रेजों को मैना के बारे में पता चल गया। उन्होंने छापा मारकर सेवकों को बंदी बना लिया पर मैना बच निकली। अंग्रेज अधिकारी जनरल हैवलॉक ने महल को तोपों के गोलों से खँडहर में बदल डाला। हैवलॉक समझा कि मैना भी दबकर मर गयी होगी और वह वहाँ से चला गया। मैना उस समय तलघर में छिप गयी थी।

एक दिन मैना तलघर से निकल के पत्थर पर बैठी ईश्वर का स्मरण करते हुए खँडहर को निहार रही थी और सोच रही थी कि कभी यह महल शान से मस्तक उठाये खड़ा था, आज इसकी कैसी दुर्दशा हो गयी ! इस क्षणभंगुर संसार का रिवाज ही है कि कभी खाली मैदान या खँडहर महलों में बदल जाते हैं तो कभी आलीशान महल खँडहर में बदल जाते हैं।

मैना को ध्यान आया कि कोई उसे देख रहा है। दो अंग्रेज प्रहरी दबे पाँव आये और उसे बंदी बना कर जनरल हैवलॉक के  पास ले गये। हैवलॉक ने कहाः “ओ नादान लड़की ! तुम्हारे लिए यही उत्तम है कि तुम हमें अपने पिता तथा अन्य क्रांतिकारियों के बारे में सब  बातें (पते आदि) सच-सच बता दो अन्यथा हम तुम्हें जीवित ही आग में डला डालेंगे।”

मैना को ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का सत्संग मिला होगा, उसने तपाक से ऊँचे स्वर में कहाः “आप मेरे शरीर को ही जला सकते हैं, मेरी आत्मा को नहीं। आत्मा तो अजर-अमर है। अग्नि की भीषण लपटें भी मुझसे कुछ उगलवा नहीं सकतीं।”

“अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ! तुम अपना जीवन क्यों व्यर्थ नष्ट करने पर तुली हो ? हमें क्रांतिकारियों के पते ठिकाने बता दो। हम तुम्हें जाने देंगे और पुरस्कार भी देंगे।”

मैना गरज उठीः “अपने प्राणों की  बलि देना ही अब मेरा पुरस्कार है। एक सच्चे क्रांतिकारी को मृत्यु, भय, प्रलोभन – कुछ भी कर्तव्यच्युत नहीं कर सकते। इस शरीर की मृत्यु ब्रिटिश शासन के विनाश का ही कारण बनेगी।”

यह सुन जनरल हैवलॉक तिलमिला उठा। उसने सैनिकों को आदेश दियाः “इस लड़की को वृक्ष से बाँधकर मिट्टी का तेल डाल के जीवित ही जला दो।”

सैनिकों ने आग लगा दी। जब आग की लपटें उसके मुख की तरफ बढ़ने लगीं, तब जनरल ने कहाः “अब भी यदि तुम हमें सब कुछ बता दो तो हम तुम्हें मुक्त कर देंगे।”

मैना ने दहाड़ते हुए कहाः “मैं अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी कदापि नहीं करूँगी। औरे हे मूर्ख ! याद रख, तुम्हारे अत्याचार ही अंग्रेजी राज्य की जड़ें उखाड़ फेंकने में सहायक होंगे।”

आग की लपटें उठती रहीं और मैना अपने अजर, अमर आत्म-परमात्मस्वभाव का स्मरण करते हुए मुस्कराती रही। भारतीय इतिहास में मैना का बलिदान स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 9 अंक 296

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