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स्वास्थ्यवर्धक हितकारी भोजन कैसा हो ?


सात्त्विक आहार से जीवन में सात्त्विकता और राजसिक-तामसिक आहार से आचरण में स्वार्थपूर्ण एवं पाशविक वृत्तियाँ बढ़ती हैं। हमारा आहार कैसा हो इस संबंध में नीचे कुछ बिंदु दिये जा रहे हैं।

भोजन नैतिक हो

अनैतिक स्रोतों से धन द्वारा निर्मित भोजन करने से मन में अशांति, भय, अस्थिरता रहती है, जिससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता घटती है, रोगों के पैदा होने की सम्भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। जो भोजन अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर, दूसरों के अधिकार को छीने बिना, ईमानदारी से अर्जित साधनों से प्राप्त किया जाता है, वह भोजन नैतिक होता है। साधन-भजन में उन्नति तथा मन-बुद्धि की सात्त्विकता के लिए जरूरी है कि भोजन नैतिक हो।

शुद्ध भाव व सात्त्विकता से बनाया गया हो

भोजन बनाने वालों के भावों की तरंगें भी हमारे भोजन को प्रभावित करती हैं। होटल या बाजार के भोजन में घर में बने भोजन जैसी स्वच्छता, पवित्रता और उच्च भावों का अभाव होने से उससे मात्र पेट भरा जा सकता है, मन-बुद्धि में शुभ विचारों का निर्माण नहीं किया जा सकता। राजसी-तामसी भोजन जैसे – लहसुन, शराब, बासी खुराक, मासिक धर्मवाली महिला के हाथ का बना भोजन रजो-तमोगुण बढ़ाता है, सत्त्वगुण की ऊँचाई से गिरा देता है। शुद्ध भाव वाले, सात्त्विक व्यक्तियों द्वारा बनाया हुआ भोजन करना चाहिए।

मौसम के अनुकूल हो

जिस मौसम में जो फल, सब्जियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ सहजता व सरलता से भरपूर मात्रा में उपलब्ध हों वे सारे पदार्थ प्रायः स्वास्थ्य के अनुकूल होते हैं।

पौष्टिक व संतुलित हो

अव्यवस्थित, असंतुलित और अऩुचित आहार शरीर को ऊर्जा देने के स्थान पर ऊर्जा का ह्रास करता है। भोजन में शरीर की शक्ति, पुष्टि प्रदान करने वाले प्रोटीन, शर्करा, वसा, खनिज, विटामिन्स उचित अनुपात और पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए एवं भोजन षड् रस युक्त होना चाहिए ताकि शरीर में अच्छे कोषाणुओं का निरंतर सृजन होता रहे। भोजन में स्निग्ध पदार्थों का उपयोग हो, जैसे घी, तेल आदि। हलका भोजन शीघ्र ही पच जाता है तथा स्निग्ध और उष्ण भोजन शरीर के बल तथा पाचकाग्नि को बढ़ाता है। स्निग्ध (चिकनाईयुक्त) भोजन वात का शमन करता है, शरीर को पुष्ट व इन्द्रियों को दृढ़ करता है, अंग-प्रत्यंग के बल को बढ़ाता है एवं शरीर की रूक्षता को हटा के चिकनापन ला देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 30 अंक 296

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सर्वपापनाशक, सर्वहितकारी, मंगलमय मंत्र-विज्ञान


पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत में आता हैः “ॐकार का, भगवन्नाम जप करने से आपको स्वास्थ्य के लिए दुनियाभर की दवाइयों, टॉनिकों, कैप्सूलों और इंजेक्शनों की शरण नहीं लेनी पड़ेगी। भक्तिरस से ही स्वास्थ्य बना रहता है। खुशी के लिए क्लबों में जूठी शराब, जूठे डिनरों का सहारा नहीं लेना पड़ता।

भगवान का नाम लेना कोई कर्म या क्रिया नहीं है, अपनत्व की पुकार है। इस पुकार से पुराने संस्कार, वासनाएँ मिटती हैं। सतयुग में तो 12 साल सत्यव्रत धारण करें तब कुछ मिले, त्रेता में तप करें, द्वापर में यज्ञ करें, ईश्वरोपासना करें तब कुछ पुण्याई मिले, पाप-ताप नष्ट हों लेकिन कलियुग में तो केवल भगवन्नाम-जप जापक के पाप-ताप ऐसे नष्ट कर देता है कि सोच भी नहीं सकते।

जब ही नाम हृदय धर्यो भयो पाप को नास।

जैसे चिनगी आग की पड़ी पुराने घास।।

जैसे सूखी घास के ढेर को एक चिनगारी मिल गयी तो सारी घास चट ! ऐसे ही जब भगवन्नाम गुरु के द्वारा मिलता है और अर्थसहित जपते हैं तो वह सारे अनर्थों की निवृत्ति कर देता है, जन्म-जन्मांतरों के संस्कार मिटते जाते हैं और भगवद शांति, प्रीति और आनंद बढ़ता है तथा जीवात्मा अपने परमात्मवैभव को पाकर तृप्त हो जाता है, परम अर्थ – ब्रह्मज्ञान को पा लेता है।

भगवन्नाम जब से अंतर में रस जागृत होगा व बढ़ेगा। आप केवल प्रीतिपूर्वक, आदरपूर्वक, अर्थसहित, नियमित जपते जायें। यह आपको परमात्मदेव में, परमात्मसुख में प्रतिष्ठित कर देगा। जब तक भगवत्प्राप्ति नहीं हुई तब तक गुरुमंत्र आपका पीछा नहीं छोड़ता, मरने के बाद भी वह आपको यात्रा कराकर भगवान तक ले जाता है।

ताकि पतन न हो……

24 घंटों में 1440 मिनट होते हैं। इन 1440 मिनटों में से 440 मिनट ही परमात्मा के लिए लगाओ। यदि 440 मिनट नहीं लगा सकते तो 240 मिनट ही लगाओ। अगर इतने भी नहीं लगा सकते तो 140 मिनट ही लगाओ। अगर इतने भी नहीं तो 100 मिनट अर्थात् करीब पौने दो घंटे ही उस परमात्मा के लिए लगाओ तो वह दिन दूर नहीं होगा जब – जिसकी सत्ता से तुम्हारा शरीर पैदा हुआ है, जिसकी सत्ता से तुम्हारे दिल की धड़कनें चल रही हैं, वह परमात्मा तुम्हारे हृदय में प्रकट हो जायेगा।

24 घंटे हैं आपके पास….. उनमें से 6 घंटे सोने में और 8 घंटे कमाने में लगा दो तो 14 घंटे हो गये। फिर भी 10 घंटे बचते हैं। उनमें से अगर 5 घंटे भी आप-इधर, गपशप में लगा देते हैं तब भी 5 घंटे भजन कर सकते हैं। 5 घंटे नहीं तो 4, 4 नहीं तो 3, 3 नहीं तो 2, 2 नहीं तो 1.5 घंटा तो रोज़ अभ्यास करो ! यह 1.5 घंटे का अभ्यास आपका कायाकल्प (पूर्णतः रूपांतरण) कर देगा।

आप श्रद्धापूर्वक गुरुमंत्र का जप करेंगे तो आपके हृदय में विरहाग्नि पैदा होगी, परमात्म-प्राप्ति की भूख पैदा होगी। जैसे उपवास के दौरान सहन की गयी भूख आपके शरीर की बीमारियों को हर लेती है, वैसे ही भगवान को पाने की भूख आपके मन व बुद्धि के दोषों को, शोक को व पापों को हर लेगी।

कभी भगवान के लिए विरह पैदा होगा तो कभी प्रेम…. प्रेम से रस पैदा होगा और विरह से प्यास पैदा होगी। भगवन्नाम जप आपके जीवन में चमत्कार पैदा कर देगा। परमेश्वर का नाम प्रतिदिन 1000 बार तो लेना ही चाहिए। अर्थात् भगवन्नाम की 10 मालाएँ तो फेरनी ही चाहिए ताकि उन्नति तो हो और पतन न हो। अपने गुरुमंत्र का अर्थ समझकर प्रीतिपूर्वक जप करें। इससे बहुत लाभ होगा।

शास्त्र में आता है

देवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनाश्च देवताः।

‘सारा जगत देव के अधीन है और समस्त देव मंत्र के अधीन हैं।’

संत चरनदासजी महाराज ने बहुत ऊँची बात कही हैः

श्वास-श्वास सुमिरन करो यह उपाय अति नेक।।

संत तुलसीदास जी ने कहा हैः

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं।

जनम अनेक रचित अघ दहहीं।। (श्री रामचरित. बां. कां. 118.2)

जो विवश होकर भी भगवन्नाम जप करते हैं उनके अनेक जन्मों के पापों का दहन हो जाता है।

कोई डंडा मारकर, विवश करके भी भगवन्नाम जप कराये तो भी अनेक जन्मों के पापों का दहन होता है तो जो प्रीतिपूर्वक भगवान का नाम जपते हैं, भगवान का ध्यान करते हैं उऩके उज्जवल भविष्य का, पुण्याई का क्या कहना !

शक्तियों का पुंज-गुरुमंत्र

भगवन्नाम की बड़ी भारी महिमा है। यदि हमने ‘अहमदाबाद’ कहा तो उसमें केवल अहमदाबाद ही आया, सूरत, गांधीनगर रह गये। अगर हमने गुजरात कहा तो सूरत, गांधीनगर, राजकोट आदि सब उसमें आ गये परंतु मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि रह गये…. किंतु तीन अक्षर का नाम भारत कहने से देश के सभी राज्य और नगर उसमें आ गये। ऐसे ही केवल पृथ्वीलोक ही नहीं वरन् 14 लोक और अनंत ब्रह्मांड जिससे व्याप्त हैं, उस भगवद्-सत्ता, गुरु-सत्ता के नाम अर्थात् भगवन्नामयुक्त गुरुमंत्र में पूरी दैवी शक्तियों तथा भगवदीय शक्तियों का समावेश हो जाता है।

साधक को चाहिए कि निरंतर जप करे। सतत भगवन्नाम जप विशेष हितकारी है। मनोविकारों का दमन करने में, विघ्नों का शमन करने में और 15 दिव्य शक्तियाँ जगाने में मंत्र भगवान अदभुत सहायता करते हैं।

बार-बार भगवन्नाम जप करने से एक प्रकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद और भगवदीय अमृत प्रकट होने लगता है। जप से उत्पन्न भगवदीय आभा आपके पाँचों शरीरों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय शरीर) को तो शुद्ध रखती ही है, साथ ही आपके अंतःकरण को भी तृप्त करती है।

जिन गुरुमुखों ने, भाग्यशालियों ने, पुण्यात्माओं ने सदगुरु के द्वारा भगवन्नाम पाया है, उनका चित्त परमात्मसुख से तृप्त होने लगता है। फिर उऩको दुनिया की कोई चीज वस्तु आकर्षित करके अंधा नहीं कर सकती। फिर वे किसी भी चीज वस्तु से प्रभावित होकर अपना हौसला नहीं खोयेंगे। उनका हौसला बुलंद होता जायेगा। वे ज्यों-ज्यों जप करते जायेंगे, सदगुरु की आज्ञाओं का पालन करते जायेंगे, त्यों-त्यों उनके हृदय में आत्म-अमृत उभरता जायेगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 4,5,9 अंक 296

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सत्संगति ही है भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन


भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- “उद्धव! जो लोग बारह यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, असंचय (आवश्यकता से अधिक धन आदि का संग्रह न करना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय) और बारह नियमों (बाह्य पवित्रता (शुद्धि), आंतरिक पवित्रता (विवेक द्वारा), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि-सेवा, भगवत्पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार की चेष्टा, संतोष और आचार्य-सेवा। विशेष पातंजल योग दर्शन में यम नियम 5-5 बताये गये हैं किंतु श्रीमद्भागवत में 12-12 बताये गये हैं।) को पालते हैं अथवा और बहुत से साधनों को करते हैं, उनको भी मेरे नगर अर्थात् परम धाम तक आने का मार्ग ही नहीं मिल पाता। लेकिन यदि वे सज्जनों का आश्रय लेकर संतों के द्वार जायें तो समझ लो कि वे सब मेरे ही धाम में आ गये। ऐसी परम्परा से मेरी प्राप्ति होती है।

सत्संगति अन्य साधनों जैसी नहीं है। वह अपने संग से अन्य संगों का विनाश करती है और मेरी प्राप्ति अवश्य ही कराती है। सत्संग करने वाले भक्त मेरी प्राप्ति के लिए अन्य किसी पर निर्भर नहीं रहते। जैसे भँवरी के सम्पर्क में आने से कीड़े की देह की स्थिति बदल जाती है, उसी प्रकार संतों की संगति करने से भक्त भी बदलकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाते है।

जैसे चंदन के पेड़ के इर्द-गिर्द जो निर्गंध और अनुपयोगी वृक्ष होते हैं वे भी चंदन की संगति से सुगंधित होकर मूल्यवान हो जाते हैं। वे अचेतन काष्ठ (लकड़ियाँ) भी देवताओं और ब्राह्मणों के मस्तक पर चंदन के रूप में विराजमान रहते हैं। उनकी आवश्यकता धनवानों को भी होती है। राजा भी उन्हें वंदनीय समझते हैं। उसी प्रकार सत्संगति करने से भक्त मेरे पद को प्राप्त करते हैं और अंत में मेरे लिए भी वे पूज्य (आदरणीय) बन जाते हैं। उनकी महिमा का क्या वर्णन किया जाय ? उद्धव ! मेरा स्थान तत्काल प्राप्त करने के लिए सचमुच, संतों की संगति के सिवा अन्य कोई उत्तम साधन नहीं है, यह सत्य समझना।

बिना किसी साधन का आश्रय लिए केवल सत्संग से मुझे प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या अगणित है। उसके संबंध में तुम्हें बताऊँगा। वैसे देखा जाय तो केवल जड़, मूढ़ और राजसी-तामसी योनियों में जन्म लेने पर भी वे दृढ़ सत्संगति के कारण मुझे प्राप्त कर सके। दैत्य, दानव, निशाचर, पशु, पक्षी, गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, चारण, विद्याधर, नाग, विषैले सर्प, गुह्यक (गंधर्व का एक प्रकार) – ये सभी मेरे पद तक पहुँच गये। इस प्रकार जब पशु, पक्षी, सर्प – इन सबने मुझे प्राप्त कर लिया तो मनुष्य तो सहज ही उन सबमें श्रेष्ठ है। समाज में हेय (त्याज्य) समझे जाने वाले लोगों ने भी सत्संग कर मुझे प्राप्त कर लिया है। इतना ही नहीं, देवता एवं ब्राह्मण भी उनका वंदन करते हैं। ऐसे संतों की कीर्ति अतुलनीय है।

सत्संगति करने से निंदनीय भी वंदनीय हो जाते हैं। उद्धव ! तुम सचमुच निष्पाप हो इसलिए तुम सत्संगति करो। पहले से ही उत्कृष्ट दर्जे का, अति शुद्ध सुवर्ण हो। सुवर्ण को रत्नों का संग मिल जाय तो उसका मूल्य और भी बढ़ जाता है और वह राजमुकुट की शोभा बढ़ाता है। उसी प्रकार पुण्यवान पुरुष को सत्संगति प्राप्त होने पर उसे अनंत सुख प्राप्त होते हैं, देवाधिदेव उसका वंदन करते हैं और भगवान शंकर आदि भी उसे मिलने आते हैं। यम-धर्म (यम-नियम) उसके चरणों में आ जाते हैं और तीर्थ भी उसके चरणोदक की इच्छा करते हैं। भक्तिभाव से सत्संगति करने पर मनुष्य को इतना लाभ मिलता है।” (श्रीमद् एकनाथी भागवत, अध्याय 12 से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ 27, 28 अंक 296

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