तेषां सततयुक्तानां…. पूज्य बापू जी

तेषां सततयुक्तानां…. पूज्य बापू जी


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयन्ति ते ।।

‘उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।’ (भगवद्गीताः 10.10)

सततयुक्तानां…. ‘सततयुक्त’ का अर्थ ऐसा नहीं कि आप सतत माला घुमाते रहो या मंदिर में बैठे रहो । हाँ, माला के समय घुमाओ, मंदिर के समय मंदिर में जाओ लेकिन फिर भी इन सबके साक्षी होते-होते, इस जगत के मिथ्यात्व को देखते-देखते जिससे सब हो रहा है उसमें सतत गोता लगाओ । रटने वाले लोग तो रटन करते-करते रटनस्वरूप हो जाते हैं लेकिन रटन में ही रुकना नहीं है, उससे भी आगे आत्मपद को समझना है, उसमें प्रीति और विश्रांति पानी है ।

एक बार संत तुलसीदास जी जंगल में शौच से निवृत्त होकर किसी कुएँ पर पानी लेने के लिए आये तो उनको उस कुएँ से चौपाइयाँ गाने की आवाज सुनायी पड़ी । गोस्वामी तुलसीदास चकित हो गये कि ‘मेरी चौपाइयाँ कुएँ के भीतर कौन गा रहा है ?’ तुलसीदास जी ने कहाः “मनुष्य हो, यक्ष हो, राक्षस हो, गंधर्व हो, किन्नर हो या प्रेत हो, व्यक्त हो या अव्यक्त हो, जो भी हो मुझे अवश्य उत्तर मिले कि चौपाई गाने वाले आप कौन हो ?”

आवाज आयी कि ‘हे मुनिशार्दूल ! हे तुलसीदास जी ! हम पाँच मित्र थे । हम राम-राम रटते थे लेकिन राम के सातत्य स्वरूप को नहीं जानते थे । आपकी चौपाइयाँ और दोहे भी आपस में गाते थे । घूमते-घामते इस जंगल में सैर करने आये । हमारा मित्र पानी भरने को इस कुएँ पर आया । पानी भरने का अभ्यास न होने के कारण उसके हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी छूट गयी तो संतुलन भी बिगड़ गया और वह कुएँ में गिर पड़ा । उस मित्र को बचाने के प्रयास में दूसरा भी गिर पड़ा, तीसरा भी गिर पड़ा । चौथा भी गिरा तो पाँचवाँ ‘कौन सा मुँह दिखाऊँगा’ यह सोचकर जानबूझकर कूद पड़ा । हम अवगत होकर मरे हैं । हमें अब गर्भ नहीं मिल रहा है लेकिन पुराना चौपाइयों के रटन का सातत्य हैं, इसलिए हम रट रहे हैं । सातत्य के आधार को हमने नहीं जाना तुलसीदास जी ! अब हम पर कृपा हो जाय ।’

सततयुक्त‘ का अर्थ यह नहीं कि सतत कोई धुन लेकर चले । सतत कोई फोटो गले में बाँधकर चले तो भी सततयुक्त नहीं होता है क्योंकि जिस देह को फोटो बाँधा है वह देह छूट जायेगी । जिन आँखों से फोटो देखते हैं वे आँखें भी एक दिन राख में बदलकर मिट्टी में मिल जायेंगी । जिसकी सत्ता से तुम ‘मैं’ कह रहे हो, जिसकी सत्ता से तुम्हारा मन और बुद्धि स्फुरित हो रहे हैं और मन बुद्धि इन्द्रियों में आकर जगत का व्यवहार करते हैं उस सत्ता के अस्तित्व का तुम्हें अनुभव हो जाय, ऐसे विचार यदि तुम्हारे चित्त में घूमते रहें तो तुम सतत उसका अनुभव कर सकते हो । सतत का अर्थ है कि तुम अनन्यभाव से ब्रह्म में रहो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 25 अंक 198

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