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स्वतंत्रता माने उच्छ्रंखलता नहीं


-पूज्य लीलाशाह बापू के सत्संग प्रवचन से

जिज्ञासुः “स्वामी जी ! आजकल स्वतंत्रता के नाम पर बहुत कुछ नहीं होने जैसा भी हो रहा है। यदि किसी को कुछ समझायें तो वह  यह कह देता है कि हम स्वतंत्र भारत के नागरिक हैं। अतः हम अपनी इच्छानुसार जी सकते हैं।”

स्वामी जीः “(गंभीर शब्दों में) ऐसे मूर्ख लोग स्वतंत्रता का अर्थ ही नहीं जानते। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है। हमारा देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हमको जैसा चाहें वैसा करने का अधिकार मिल गया है। सच्ची स्वतंत्रता तो यह है कि हम अपने मन-इन्द्रियों की गुलामी से छूट जायें। विषय-वासनाओं के वश में रहकर जैसा मन में आया वैसा कर लिया यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि गुलामी है। मनमानी तो पशु भी कर लेता है फिर मनुष्यता कहाँ रही ?

भले ही कोई सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में कर ले, सभी शत्रुओं को मार डाले परंतु यदि वह अपने मन को वश नहीं कर सका, अपने भीतर छिपे विकाररूपी शत्रुओं को नहीं मार पाया तो उसकी दुर्गति होनी निश्चित है।

एक दिन तुम अपने कमरे में गये और अन्दर से ताला लगाकर चाबी अपने पास रख ली। दूसरे दिन तुम जैसे ही अपने कमरे में घुसे किसी ने बाहर से ताला लगा दिया और चाबी लेकर भाग गया। अब पहले दिन तुम कमरे में बंद रहकर भी स्वतंत्र थे क्योंकि कमरे से बाहर निकलना तुम्हारे हाथ में था। दूसरे दिन वही कमरा तुम्हारे लिए जेलखाना बन गया क्योंकि चाबी दूसरे के हाथ में है।

इसी प्रकार जब तुम अपने मन पर संयम रखते हो, माता-पिता, गुरूजनों एवं सत्शास्त्रों की आज्ञा में चलकर मन को वश में रखते हुए कार्य करते हो तब तुम स्वतंत्र हो। इसके विपरीत यदि मन कहे अनुसार चलते रहे तो तुम मन के गुलाम हुए। भले ही अपने को स्वतंत्र कहो परंतु हो महागुलाम….

विदेशों में बड़ी आजादी है। उठने बैठने, खाने-पीने अथवा कोई भी व्यवहार करने की खुली छूट है। माँ-बाप, पुत्र-पुत्री सब स्वतंत्र हैं। किसी का किसी पर भी कोई नियंत्रण नहीं है, किंतु ऐसी उच्छ्रंखलता से वहाँ के लोगों का कैसा विनाश हो रहा है, यह भी तो जरा सोचो। मान-मर्यादा, धर्म, चरित्र सब  नष्ट हो रहे हैं वे मनुष्य होकर पशुओं से भी अधम हो चुके हैं, क्या तुम इसे आजादी कहते हो ? कदापि नहीं, यह आजादी नहीं महाविनाश है।

चौरासी लाख शरीरों में कष्ट भोगने के बाद यह मानव-शरीर मिलता है परंतु मूढ़ मतिवाले लोग इस दुर्लभ शरीर में भी पशुओं जैसे ही कर्म करते हैं। ऐसे लोगों को आगे चलकर बहुत रोना पड़ता है।

तुलसीदास जी कहते हैं-

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि पछिताइ।

अतः मेरे भैया ! स्वतंत्रता का अर्थ उच्छ्रंखलता नहीं है। शहीदों ने खून की होली खेलकर आप लोगों को इसलिए आजादी दिलायी है कि आप बिना किसी कष्ट के अपना, समाज का तथा देश का कल्याण कर सकें। स्वतंत्रता का सदुपयोग करो तभी तुम तथा तुम्हारा देश स्वतंत्र रह पायेगा, अन्यथा मनमुखता के कारण अपने ओज-तेज को नष्ट करने वालों को कोई भी अपना गुलाम बना सकता है।

साधक संसारियों से ज्यादा दुखी क्यों ?


साधक के जीवन में दो बातें होती हैं | एक तरफ संसार का आकर्षण, संसार की जवाबदारियाँ और दूसरी तरफ भगवत प्राप्ति की लालसा | भगवत प्राप्ति की लालसा जिस साधक के जीवन में होती है वो संसारियों से ज्यादा दुखी होता है | क्योंकी संसारियों को तो केवल संसार की लालसा होती है | भगवत प्राप्ति का लक्ष नहीं होता है | इसीलिए आंध्डी चाकर जैसा उनका जीवन उधर को घिसता रहता है | लेकिन संसारी आकांकाशों से थोड़े ऊपर उठे हुए साधक के जीवन में विक्षेप आता है | एक तरफ ईश्वर की महत्ता सुनता है, जानता है विवेक जगता है | दूसरी तरफ संसार की पुरानी आदतें नीचे घसीटती हैं | जप करता है लेकिन फिर भी राग-द्वेष, काम-क्रोध उसको चोटें करता है | और हर साधक को इस संघर्ष से गुजरना पड़ता है | नहीं चाहते हुए भी उससे कुछ प्रवितियाँ कुछ चिंतन ऐसा हो जाता है जो उसे दुःख देता है | क्योंकी उसके पास विवेक की किरण जगी है | कुछ प्रकाश हुआ है |जानामि में धर्मम न में प्रवृतिम, जानामि अधर्मम न में निवृति | अशुद्ध और अधर्म जानता है, उससे निवृत नहीं हो पाता है, उस वक्त उसे दुःख होता है | और धर्म के रहस्य को थोडा बहुत सुनता है, मानता है भगवान की महिमा को | उस तरफ प्रवृत नहीं हो पाता है |

सुकरात की ये दशा थी, बेचैन रहते थे | और हर साधक इस दशा में आता ही है | सुकरात को किसी मित्रों ने कहा के तू इतना बेचैन सुकरात उसकी अपेक्षा तो ये जो सूअर है ना दुकर, सुकर-दुकर | नाले में पड़ा है, ठंडे-ठंडे नाले में, पत्नी-पुत्र-परिवार के साथ उसको कोई चिंता नहीं | बड़ा शांत, आनंद से जीता है |  तो चिंतित सुकरात होने की बजाये तू ये सुकर क्यों नहीं हो जाता निश्चिंत | सुकरात ने कहा बेवकूफी से नाले में सुखी रहने की अपेक्षा, निश्चिंत सुकर रहने की अपेक्षा, मैं छटपटाने वाला सुकरात का जीवन पसंद करूंगा | क्योंकी वह छटपटाहट मुझे मालिक के द्वार तक पहुँचा देगी |

तो जो हतभागी होते हैं, मंदबुद्धि होते हैं, वे तो संसार को सार समझकर उससे चिपके रहते हैं और उसमें से कुछ मिलता है तो अपने जीवन को धन्य-धन्य मान लेते हैं | लेकिन साधक को उसमें चिपकान होती नहीं और कुछ मिलता है तभी भी साधक ये सोचता है के आखिर क्या ? छेव्टे शुं ? तो उसे संसार में रस नहीं आएगा | और भगवान रस में वो पहुँचा नहीं | जय-जय | भगवान रस में क्यों नहीं पहुँचा की वो भजन तो करता है, जप तो करता है | बीसों घंटा जप करता है लेकिन संसार के जवाबदारियाँ, प्रलोभन या सुख-दुःख आते हैं तो वो बेचारा हिल जाता है | क्योंकी जप के साथ उसने ध्यान का महात्म नहीं जाना | जप करता है लेकिन ध्यान से अगर भीतर का रस नहीं पाया तो संसार का रस आकर्षित कर देगा | भीतर के निर्दुख पद का स्वाद नहीं लिया तो संसार के दुःख उस भक्त को हिला देते हैं | जब हम हिल जाते हैं ना तो समझना चाहिए के ध्यान का प्रसाद नहीं मिला | जिस प्रसाद से सब दुखों की निवृति हुई है उस प्रसाद पर हमारी निगाह पूरी ठरी नहीं है | प्रसादे सर्व दुखानाम हानि रस्य उपजायते, प्रसन्न चेतसो या सु बुद्धि प्रिविष्ठ्ते | ईश्वर की कृपा तो सब पर है लेकिन जो ईश्वर के लिए छटपटाता है ना उसपर उसकी विशेष कृपा होती है | जो ईश्वर के लिए काम करता है उन पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है | जो भोगों के लिए, वाह-वाह के लिए, संसार के लिए काम करता है ना उस पर संसार की कृपा होती है | और संसार की कृपा यही है के दुःख बढ़ाता है वो | संसार जितना बढ़ेगा, दुःख उतना बढ़ेगा | और भगवान का प्रेम जितना बढ़ेगा सुख उतना बढ़ेगा |

तो साधक के जीवन में ये है – एक तरफ संसार खींचता है, एक तरफ परमात्मा खींचता है | साधक बेचारा बोर्डर पर है | जब संसारियों का संग करता है तो संसार की तरफ जाता है | तो कूदता है, अशांत होता है | और जब भगवान की तरफ जाता है तो जम्प मारता है आनंद के | और फिर जब आनंद अनुभव करके जाता है तो वहाँ का सुख उनको सुख नहीं लगता है | क्योंकी सुख है नहीं | जैसे किसी कुत्ते ने सुखी, जिसमें मजा-मास नहीं है ऐसी हड्डी को मुर्ख कुत्ता चबाता है तो उसे सुख मिलता है | लेकिन जिसको समझ में आ गया के इसमें कोई सार नहीं वो हड्डी भी चबायेगा क्यों ? तो फिर संसार में जब साधक जाता है ना तो संसारी बोलते तुम बिगड़ गये | पहले जितना तुमको रस आता था, तुम जितना चिपकते थे उतना चिपकते नहीं, बाबा ने तमने बगाडी दिया | सुनो मेरे भाइयों, सुनो मेरे मितवा, कबीरो बिगड़ गयो रे | संसारी भले साधक को बिगड़ा हुआ समझे लेकिन वो परमात्मा तो उसको सुधरा हुआ समझता है ना – इतना पर्याप्त है | ॐ, ॐ, ॐ ||

 

Audio : https://hariomaudio.standard.us-east-1.oortech.com/hariomaudio_satsang/Title/2017/Jul/Sadhak-Sansariyon-Se-Jyada-Dukhi-Kyon.mp3

आत्मस्वरूप का भान


Hariom prabhuji,

Tamogun me aatmabhyas karna kathin kyon lagta hai? Satvagun me to lagta hai, ki ye sab guno ka khel hai. Lekin ye drishti bhi satvagun ke samay bhasit hoti hai, tamogun ke samay – prayatn karne par bhi apni asangta pratyaksha bhasit nahi hoti.

Tamogun me buddhi mand hone karan aisa lagta hai, lekin humara aatma to buddhi ke aashrit nahi hai. Fir uska bhan kyon nahi hota?

Aatmabhyas me kahan kami hai, kaise pata chale?
HariOm

Dhanyawad

—– उत्तर —–

हरि ॐ,
          अभ्यास मन, बुद्धि से ही किया जाता है और हम अपना अस्तित्व भी मन, बुद्धि से जुड़कर ही मानते है। मन, बुद्धि को छोड़कर हमारा मूल स्वरूप है उस में टिकते नहीं। इसलिए गुणों का प्रभाव हम पर पड़ता है ऐसी भ्रान्ति होती है।

आत्माभ्यास करने का तरिका सही है या नहीं ये जानने से उसकी कमी मालूम पड़ेगी। जब तक मन, बुद्धि के द्वारा आत्माभ्यास करेंगे तब तक आत्मा में नहीं टिक सकेंगे क्योंकि आत्मा मन, बुद्धि का विषय नहीं है, मन बुद्धि को त्यागने पर आत्मा का ज्ञान होगा। और मन, बुद्धि से अभ्यास करने पर वे बने रहेंगे.

विशेष जानकारी के लिए साथ में भेजी हुई फ़ाइल पढो।

Self Enquiry Method

– डॉ. प्रेमजी