अवर्णनीय है संत समागम का फल – पूज्य बापू जी

अवर्णनीय है संत समागम का फल – पूज्य बापू जी


जब-जब व्यक्ति ईश्वर एवं सदगुरु की ओर खिंचता है, आकर्षित होता है, तब-तब मानो कोई न कोई सत्कर्म उसका साथ देता है और जब-जब वह दुष्कर्मों की ओर धकेला जाता है, तब-तब मानो उसके इस जन्म अथवा पूर्व जन्म के दूषित संस्कार अपना प्रभाव छोड़ते हैं। अब देखना यह है कि वह किसकी ओर जाता है ? पुण्य की ओर झुकता है कि पाप की ओर ? संत की ओर झुकता है कि असंत (दुष्ट, दुर्जन, संत निंदक) की ओर ? जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक संग का रंग लगता रहता है।

किया हुआ भगवान का स्मरण कभी व्यर्थ नहीं जाता। किया हुआ ध्यान-भजन, किये हुए पुण्यकर्म सत्कर्मों की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार किये हुए पापकर्म, अंदर के अनंत जन्मों के पाप-संस्कार इस जन्म में दुष्कृत्य की ओर ले जाते हैं। फिर भी ईश्वर मनुष्य को कभी न कभी जगा देते हैं, जिसके फलस्वरू पाप के बाद उसे पश्चात्ताप होता है और वैराग्य आता है। उसी समय यदि उसे कोई सच्चे संत मिल जायें, किन्हीं सदगुरु का सान्निध्य मिल जाय तो फिर हो जाय बेड़ा पार !

स्वार्थ, अभिमान एवं वासना के कारण मनुष्य से पाप तो खूब हो जाते हैं लेकिन संतों का संग उसे पकड़-पकड़कर पाप में से खींच के भगवान के सुमिरन, ध्यान, सत्संग में ले जाता है। हजार-हजार असंतों का संग होता है, हजार-हजार झूठ बोलते हैं फिर भी एक बार का सत्संग दूसरी बार और दूसरी बार का सत्संग तीसरी बार सत्संग करा देता है। ऐसा करते-करते संतों का संग करने वाले एक दिन स्वयं संत के ईश्वरीय अनुभव को अपना अनुभव बना लेने में सफल हो जाते हैं।

….तो मानना पड़ेगा कि किया हुआ संग चाहे पुण्य का संग हो या पाप का, असंत का संग हो या संत का, उसका प्रभाव जरूर पड़ता है। फर्क केवल इतना होता है कि संत का संग गहरा असर करता है, अमोघ होता है जबकि असंत का संग छिछला असर करता है। पापियों के संग का रंग जल्दी लग जाता है लेकिन उसका असर गहरा नहीं होता जबकि संतों के संग का रंग जल्दी नहीं लगता और जब लगता है तो उसका असर गहरा होता है। पापी व्यक्ति इन्द्रियों में जीता है, तुच्छ भोग वासनाओं में जीता है, उसके जीवन में कोई गहराई नहीं होती इसलिए उसके संग का रंग गहरा नहीं लगता। संत जीते हैं सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्म-तत्त्व में और जो चीज जितनी सूक्ष्म होती है उसका असर उतना ही गहरा होता है जैसे, पानी यदि जमीन पर गिरता है तो जमीन के अंदर चला जाता है क्योंकि जमीन की अपेक्षा वह सूक्ष्म होता है। वही पानी यदि जमीन में गर्मी पाकर वाष्पीभूत हो जाय तो फिर चाहे जमीन के ऊपर आर.सी.सी. (प्रबलित सीमेंट कंकरीट) बिछा दो तो भी पानी उसे लाँघकर उड़ जायेगा। ऐसे ही सत्संग व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि संत अत्यंत सूक्ष्म परमात्म-तत्त्व में जगह हुए होते हैं।

अपने घर की पहुँच अपने गाँव तक होती है, गाँव की पहुँच राज्य तक होती है, राज्य की पहुँच राष्ट्र तक, राष्ट्र की पहुँच दूसरे राष्ट्र तक होती हैं किंतु संतों की पहुँच…. इस पृथ्वी को तो छोड़ो, ऐसी कई पृथ्वियाँ, की सूर्य एवं उसके भी आगे अत्यंत सूक्ष्म जो परमात्मा है, जो इन्द्रियातीत, लोकातीत, कालातीत है, जहाँ वाणी  जा नहीं सकती, जहाँ से मन उसे न पाकर लौट आता है उस परमात्म-पद, अविनाशी आत्मा तक होती है। यदि उनके संग का रंग लग जाय तो फिर व्यक्ति देश-देशांतर में, लोक-लोकान्तर में या इस मृत्युलोक में हो, सत्संग के संस्कार उसे उन्नति की राह पर ले ही जायेंगे।

अपनी करनी से ही हम संतों के नजदीक या उनसे दूर चले जाते हैं। हमारे कुछ निष्कामता के, सेवाभाव के कर्म होते हैं तो हम भगवान और संतों के करीब जाते हैं। संत-महापुरुष हमें बाहर से कुछ न देते हुए दिखें किंतु उनके सान्निध्य से हृदय में जो सुख मिलता है, जो शांति मिलती है, जो आनन्द मिलता है, जो निर्भयता आती है वह सुख, शांति, आनंद विषयभोगों में कहाँ ?

एक युवक एक महान संत के पास जाता था। कुछ समय बाद उस युवक की शादी हो गयी, बच्चे हुए। फिर वह बहुत सारे पाप करने लगा। एक दिन वह रोता हुआ अपने गुरु के पास गया और बोलाः “बाबा जी ! मेरे पास सब कुछ है – पुत्र है, पुत्री है, पत्नी है, धन है लेकिन मैं अशांत, दुःखी हो गया हूँ। शादी के पहले जब आता था तो जो आनंद व मस्ती रहती थी, वह अब नहीं है। लोगों की नज़रों में तो लक्षाधिपति हो गया हूँ लेकिन बहुर बेचैनी रहती है बाबा जी !”

बाबा जी ! “बेटा ! कुछ सत्कर्म करो। प्राप्त सम्पत्ति का उपयोग भोग में नहीं अपितु सेवा और दान पुण्य में करो। जीवन में सत्कृत्य करने से बाह्य वस्तुएँ पास में न रहने पर भी आनंद, चैन व सुख मिलता है और दुष्कृत्य करने से बाह्य ऐशो आराम होने पर भी सुख-शांति नहीं मिलती।”

हम सुखी हैं कि दुःखी हैं, पुण्य की ओर बढ़ रहे हैं कि पाप की ओर बढ़ रहे हैं – यह देखना हो और लम्बे-चौड़े नियमों एवं धर्मशास्त्रों को न समझ सकें तो इतना जरूर समझ सकेंगे कि हमारे हृदय में खुशी, आनंद और आत्मविश्वास बढ़ रहा है कि घट रहा है। पापकर्म व्यक्ति का मनोबल तोड़ता है। पापकर्म मन की शांति खा जायेगा, वैराग्य से हटाकर भोग-वासना, दुष्कर्म में लगायेगा जबकि पुण्यकर्म मन की शांति बढ़ाता जायेगा, रूचि परमात्मा की ओर बढ़ाता जायेगा।

जो स्नान-दान, पुण्यादि करते हैं, सत्कर्म करते हैं उनको संतों की संगति मिलती है। धीरे-धीरे संतों का संग होगा, पाप कटते जायेंगे और सत्संग में रूचि होने लगेगी। सत्संग करते-करते भीतर के केन्द्र खुलने लगेंगे, ध्यान लगने लगेगा।

हमें पता ही नहीं है कि एक बार के सत्संग से कितने पाप-ताप क्षीण होते हैं, अंतःकरण कितना शुद्ध हो जाता है और कितना ऊँचा उठ जाता है मनुष्य ! यह बाहर की आँखों से नहीं दिखता। जब ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तब पता चलता है कि कितना लाभ हुआ ! हजारों जन्मों के माता-पिता पति-पत्नी आदि जो नहीं दे सके, वह हमको संत-सान्निध्य से हँसते-खेलते मिल जाता है। कोई-कोई ऐसे पुण्यात्मा होते हैं जिनको पूर्व जन्म के पुण्यों से इस जन्म में जल्दी से ब्रह्मज्ञानी सदगुरु मिल जाते हैं और फिर उनका सान्निध्य भी मिल जाता है। ऐसा व्यक्ति तो थोड़े से ही वचनों से रंग जाता है। जो नया है वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। जिसकी जितनी पुण्यमय, ऊँची समझ होती है वह उतनी आध्यात्मिक उन्नति करता जाता है।

जैसे वृक्ष तो  बहुत है लेकिन चंदन के वृक्ष कहीं-कहीं होते हैं और कल्पवृक्ष तो अत्यंत दुर्लभ होते है, ऐसे ही मनुष्य तो बहुत होते हैं, सत्पुरुष-सज्जन कहीं होते हैं और उनमें भी आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष अत्यंत दुर्लभ होते हैं। ऐसे ज्ञानवानों के संग से उनके संग-सान्निध्य का रंग लगता है और आत्मज्ञान पाकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। जिस तरह अग्नि में लोहा डालने से अग्निरूप हो जाता है, उसी तरह संत-समागम से मनुष्य संतों की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना सकता है। ईश्वर की राह पर चलते हुए संतों को जो अनुभव हुए हैं, जैसा चिंतन करके उनको लाभ हुआ है ऐसे ही उनके अनुभवयुक्त वचनों को हम अपने चिंतन का विषय बना के परमात्मप्राप्ति की राह की यात्रा करके अपना कल्याण कर लें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 299

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