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शव देह से शिव-तत्त्व की ओर….


महाशिवरात्रिः 13 फरवरी 2018

सत्यं ज्ञान अनन्तस्य चिदानन्दं उदारतः।

निर्गुणोरूपाधिश्च निरंजनोऽव्यय तथा।।

शास्त्र भगवान शिव के तत्त्व का बयान करते हुए कहते हैं कि शिव का अर्थ है जो मंगलमय हो, जो सत्य हो, जो ज्ञानस्वरूप हो, जिसका कभी अंत न होता हो। जिसका आदि और अंत है, जो बदलने वाला है वह शिव नहीं, अशिव है। जो अनंत है, अविनाशी है वह शिव है।

संत भोले बाबा कहते हैं-

शव देह में आसक्त होना, है तुझे न सोहता।

हमारी वृत्ति रात को निद्राग्रस्त हो जाती है तो हमारे शरीर में और शव में कोई खास फर्क नहीं रहता। साँप आकर चला जाये हमारे शरीर पर से तो कोई पता नहीं चलेगा, कोई संत पुरुष आ जायें तो स्वागत करने का पता नहीं…. तो हमारी यह देह शव-देह है। शिव-तत्त्व की तरफ यदि थोड़ा-सा भी आते हो तो देह की आसक्तियाँ, बंधन कम होने लगते हैं। हजारों-हजारों बार हमने अपनी देह को सँभाला लेकिन वे अंत में तो जीर्ण-शीर्ण होकर मर गयीं। शरीर मर जाय, देह जीर्ण शीर्ण हो जाये उसके पहले यदि हम अपने अहंकार को, अपनी मान्यताओं-कल्पनाओं को परमात्मशान्ति में शिव-तत्त्व में डुबा दें… तो श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं-

देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।

ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत।।

देह होते हुए भी उससे परे जाने का सौभाग्य मिल जाय यह मनुष्य जन्म के फल की पराकाष्ठा है।

अपने देश में आयें

महाशिवरात्रि हमें संदेश देती है कि मनुष्य अपने देश (अंतरात्मा) में आने के लिए है। जो दिख रहा है यह पर-देश है। बाहर कितना भी घूमो, रात को थक के अपने देश आते ह (सुषुप्ति में) तो सुबह ताजे हो जाते हो…. लेकिन अनजाने में आते हो।

पंचामृत से स्नान कराने का आशय

मन-ही-मन तुम भगवान शंकर को जलराशि से, दूध से, दही से, घृत से फिर मधु से स्नान कराओ और प्रार्थना करोः ‘हे भोलेनाथ ! आपको जरा से दही, घी, शहद की क्या जरूरत है लेकिन आप हमें संकेत देते हैं कि प्रारम्भ में तो पानी जैसा बहता हुआ हमारा जीवन फिर धर्म कर्म से दूध जैसा कुछ सुहावना हो जाता है। ध्यान के द्वारा दूध जैसी धार्मिकता जब जम जाती है तो जैसे दही से मक्खन और फिर घी हो जाता है वैसे ही साधना का बल और ओज हमारे जीवन में आता है।’ जैसे घी पुष्टिदायक, बलदायक है ऐसे ही साधक के चित्त की वृत्ति दुर्बल नहीं होती, पानी जैसी चंचल नहीं होती बल्कि एकाग्र होती है, बलवान होती है, सत्यसंकल्प हुआ करती है और सत्यसंकल्प होने पर भी वह कटु नहीं होती, मधुर होती है इसलिए मधुरस्नानं समर्पयामि। साधक का जीवन शहद जैसा मधुर होता जाता है। इस प्रकार पंचामृत का स्नान कराओ। तुम्हारा मन देह की वृत्ति से हटकर अंतर्मुख वृत्ति में आ जायेगा। शिव शांत में लग जायेगा, आनंद अदभुत आयेगा।।

यह लाख-लाख चौरासियों का फल देने वाली महाशिवरात्रि हो सकती है। हजार-हजार कर्मों का फल जहाँ न पहुँचाये वहाँ महाशिवरात्र की घड़ियाँ पहुँचा सकती हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 12 अंक 301

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राजा वसु पहुँचे आकाश से सीधे पाताल में !


धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म जी से पूछा कि पितामह ! राजा वसु का पतन किस कारण हुआ था ? तब भीष्म जी ने कहाः भरतनंदन ! इस विषय में ज्ञानीजन ऋषियों और देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास को उद्धृत किया करते हैं-

किससे यज्ञ करें – बकरे या अन्न से ?

“अज के द्वारा यज्ञ करना चाहिए – ऐसा विधान है।” ऐसा कहकर देवताओं ने उनके पास आये हुए सभी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों से कहाः “यहाँ ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ समझना चाहिए।”

ऋषियों ने कहाः “देवताओ ! यज्ञों में बीजों द्वारा यजन करना चाहिए ऐसी वैदिकी श्रुति है। बीजों का ही नाम अज है अतः बकरे का वध करना हमारे लिए उचित नहीं है। जहाँ कहीं भी यज्ञ में पशु का वध हो वह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है।”

इस प्रकार जब ऋषियों का देवताओं के साथ संवाद चल रहा था उसी समय  उपरिचर राजा वसु भी उस मार्ग से आ निकले और वहाँ पहुँच गये। राजा उपरिचर अपने सेना और वाहनों के साथ आकाशमार्ग से चलते थे। उन अंतरिक्षचारी वसु को सहसा आते देख ब्रह्मर्षियों ने देवताओं से कहाः “ये नरेश हम लोगों का संदेह दूर कर देंगे क्योंकि ये यज्ञ करने वाले, दानपति तथा श्रेष्ठ हैं।”

देवताओं और ऋषियों ने राजा वसु के पास आकर पूछाः “राजन् ! किसके द्वारा यज्ञ करना चाहिए ? बकरे द्वारा अथवा अन्न द्वारा ? हमारे इस संदेह का आप निवारण करें।”

राजा वसु ने दोनों का मत जाना। देवताओं का मत जानकर राजा ने उन्हीं का पक्ष लेकर कह दिया कि “अज का अर्थ है बकरा अतः उसी के द्वारा यज्ञ करना चाहिए।”

ऋषि बोलेः “राजन ! तुमने यह जान के भी कि ‘अज’ का अर्थ ‘अन्न’ है देवताओं का पक्ष लिया है इसलिए स्वर्ग से नीचे गिर जाओ। आज से तुम्हारी आकाश में विचरने की शक्ति नष्ट हो गयी। हमारे श्राप के आघात से तुम पृथ्वी को भेदकर पाताल में प्रवेश करोगे।

नरेश्वर ! तुमने यदि वेद और सूत्रों के विरुद्ध कहा हो तो हमारा यह श्राप अवश्य लागू हो और यदि हम शास्त्रविरुद्ध वचन कहते हों तो हमारा पतन हो जाये।

ऋषियों के ऐसा कहते ही उसी क्षण राजा उपरिचर आकाश से नीचे आ गये और तत्काल पृथ्वी के विवर में प्रवेश कर गये।

बाद में सभी देवता स्वर्ग से भ्रष्ट हुए उस राजा के पास गये और अपने से भी श्रेष्ठ उन ब्रह्मवेत्ता ऋषियों की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें ब्रह्मवेत्ता महात्माओं का सदा ही समादर करना चाहिए। अवश्य ही यह उनकी तपस्या का फल है जिससे तुम आकाश से सहसा भ्रष्ट होकर पाताल में चले आये हो।”

पितामह भीष्म जी कहते हैं- कुंतीनंदन ! इस प्रकार उस महामनस्वी नरेश ने भी ब्रह्मवेत्ताओं के साथ वाचिक अपराध करने के कारण अधोगति प्राप्त की थी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 301

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इतिहास से सीख लेकर सजग हो जायें…


आम तौर पर समाज के लोगों ने पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति के कारण यही सीखा है कि हमारी मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है। परंतु वास्तव में हमारी मूलभूत आवश्यकता क्या है ?

राष्ट्र की पहली आवश्यकता

सुप्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं “राष्ट्र की तीन मुख्य जरूरतें होती हैं – सेना, अनाज और आस्था। इनमें भी आवश्यकता पड़ने पर सेना और अनाज को छोड़ा जा सकता है लेकिन आस्था को नहीं। आस्था नहीं रहने से देश नहीं रह सकता। एक सच्चा राष्ट्र अपनी आस्था से ही चिरंजीवी हो सकता है, वही उसकी पहचान है।” और वह आस्था, श्रद्धा जीवित रहती है संतों के कारण। अतः देश की मूलभूत आवश्यकता है ब्रह्मवेत्ता संत !

मानव-जीवन की मूलभूत माँग क्या ? उसे कौन पूरी करेगा ?

20वीं सदी के महान संत श्री उड़िया बाबा जी बारम्बार एवं जोर देकर कहा करते थेः “संत ही समाज का जीवन हैं, कोई भी संतजनशून्य समाज जीवित नहीं रह सकता।”

संतों की महिमा से बेखबर अज्ञ समाज को चेताते हुए परम करुणावान संत कबीर जी कहते हैं-

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार। संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।।

विश्व में अमेरिका की पहचान डॉलर से है, चीन की पहचान सबसे लम्बी दीवाल से है, कुवैत की पहचान पेट्रोलियम से है किंतु इन सभी को वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की गुलामी से रहित सुख-शांति व वेदांत-ज्ञान की प्राप्ति के लिए जिस भारत का सहारा लेना पड़ता है, उस भारत की पहचान जानते हैं किससे है ? वह है उसके ब्रह्मवेत्ता संतों से !

‘गुप्त भारत की खोज’ पुस्तक के लेखक जाने-माने पाश्चात्य विद्वान पॉल ब्रंटन ने कहा हैः “भारतमें अब भी ऐसे श्रेष्ठ ऋषि पैदा होते हैं, इसी एक बात के बल पर भारत पश्चिम के बुद्धिमानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का दम भर सकता है।”

भारत ‘विश्वगुरु’ कहलाया ऐसे महापुरुषों की वजह से और आगे भी विश्वगुरु बनेगा इन्हीं के संकल्प एवं सत्प्रयासों से।

अमिट और पुर्ण सुख यह मानव जीवन की मूलभूत माँग है  उसे पूर्ण करने वाले ब्रह्मवेत्ता संत आज भी समाज में विद्यमान हैं। ब्रह्मवेत्ता संत श्री आशाराम जी बापू ने पिछले 50 वर्षों में देश विदेश में ऋषियों का प्रसाद बाँटा-बँटवाया, गाँव-गाँव व नगरों-महानगरों में ‘मधुर मधुर नाम हरि हरि ॐ’ की पवित्र ध्वनि गुँजायी, हजारों बाल संस्कार केन्द्र खुलवाये तथा 14 फरवरी को ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ और 25 दिसम्बर को तुलसी पूजन दिवस’ की क्रान्तिकारी पहल की। होली खेलने के लिए प्रयुक्त होने वाले रासायनिक रंगों से कई बीमारियाँ फैलती थीं व उन्हें लगाने संबंधी कुरीतियों से उत्तेजना फैलकर होली जैसा त्योहार दूषित होता था। दूरद्रष्टा बापू जी ने उसे नया मोड़ देते हुए रासायनिक रंगों के स्थान पर पलाश के हितकारी फूलों का रंग व कुरीतियों की जगह सुरीतियाँ शुरु करवायीं। पलाश के फूलों का पवित्र रंग जो उत्तेजना, विकारों व रोगों को थामने में, मिटाने में सक्षम है, उससे होली खेलना प्रारम्भ कराया और होलिका-प्रह्लाद की कथा का तात्त्विक रहस्य बताकर सत्संग, सेवा, प्रभु-प्रेम में सराबोर हो के होलिकोत्सव मनाना सिखाया।

संत श्री गरीबों-आदिवासियों को भोजन व रोजमर्रा की चीजें, भजन-सत्संग व दक्षिणा में रुपये देने की योजना चलायी, लाखों लोगों को व्यसन मुक्त किया एवं भगवद्भक्ति का रस चखाया। हजारों गौओं को हत्यारों से बचाया। जागो… भारतवासियो ! जागो….. समझ की आँख खुली रखो, ऐसे महापुरुष को पहचानो तथा उन संत की हयाती में ही उनसे अपना, समाज का तथा देश एवं विश्व का मंगल करा लो।

सबका मंगल सबका भला।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 2, अंक 301

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