वराह पुराण में एक कथा आती है । पूर्वकल्प में आरूणी नाम के एक तपस्वी ऋषि देविका नदी के तट पर आश्रम बनाकर रहते थे । एक बार स्नान के बाद जब वे संध्या, जप कर रहे थे तब एक व्याध उनके वस्त्र छीनने और उन्हें मारने के विचार से आया । लेकिन ऋषि का दर्शन करते ही उसकी बुद्धि बदल गयी, वह कहने लगाः ”ब्रह्मण ! आपको देखते ही मेरी क्रूर बुद्धि चली गयी । अब आपके पास रहकर मैं भी तप करना चाहता हूँ ।”
ब्रह्मघाती समझकर मुनि ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया, फिर भी वह व्याध मन-ही-मन उन्हें गुरु मानते हुए वहीं रह के साधना करने लगा ।
एक दिन मुनि स्नान हेतु नदी के जल के भीतर गये तब एक बाघ मुनि को मारने के लिए उद्यत हुआ । जल में निमग्न मुनि को खाने की इच्छा से बाघ जैसे ही मुनि की तरफ बढ़ा वैसे ही व्याध ने बाघ को मार डाला । बाघ के व्याकुल शब्द को सुनकर मुनि के मुँह से ‘ॐ नमो नारायणाय ।’ यह मंत्र निकल गया । प्राण निकलते समय केवल इस मंत्र को सुन लेने से बाघ एक दिव्य पुरुष के रूप में परिणत हो गया । मुनि के पूछने पर उसने अपने पूर्वजन्म की बात बताते हुए कहाः “मैं वेद, धर्मशास्त्र ज्ञाता राजा दीर्घबाहु था । मैं घमंड के कारण प्रायः ब्राह्मणों, संतों-महापुरुषों का अनादर, अपमान करता था, जिससे क्रुद्ध होकर उन्होंने मुझे बाघ होने का शाप दिया । जब मैंने उनके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगी तब मेरे उद्धार की बात बताते हुए उन्होंने कहाः “राजन् ! प्रत्येक छठे दिन मध्याह्न काल में तुझे जो कोई मिले उसे तू खा जाना, वह तेरा आहार होगा । जब तुझे बाण लगेगा और तेरे प्राण कंठ में आ जायेंगे तब उस समय ‘ॐ नमो नारायणाय ।’ यह मंत्र तेरे कानों में पड़ेगा तब तेरा उद्धार होगा ।”
प्राण संकट में डालकर भी व्याध ने बाघ से अपने गुरु की रक्षा की । गुरु आरूणि जी प्रसन्न हुए और आशीर्वाद देते हुए कहाः “बेटा ! तुम्हारी सेवा-भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो ।”
व्याधः “गुरुदेव ! आप मुझ पर प्रसन्न हैं यही पर्याप्त है, और मुझे क्या चाहिए ।”
“बेटा ! पुण्यनदी में स्नान, भगवन्नाम-श्रवण व सेवा से तुम्हारा पाप नष्ट होकर अंतःकरण पवित्र हो गया है । अब तुम यहीं रहकर आगे की साधना करो ।”
शिष्य को पाठ देकर आरूणि ऋषि वहाँ से कहीं चले गये ।
गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर वह व्याध निराहार रहकर गुरुदेव आरूणि का ध्यान-स्मरण करते हुए तत्परता से साधना में लग गया । उसके शरीर मे केवल हड्डियाँ ही शेष रह गयी थीं पर ध्यान-भजन का तेज उसके मुख पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था ।
उसकी परीक्षा हेतु एक दिन मुनिवर दुर्वासा जी वहाँ पधारे । उन्हें देखकर व्याध ने प्रणाम किया एवं अतिथि बनने के लिए निवेदन किया । संकल्प को साकार करने का सामर्थ्य देने वाली अंतःकरण की शुद्धि, इन्द्रिय-संयम, तपोबल व्याध में कितना जागृत हुआ है यह जानने हेतु महर्षि ने जौ, गेहूँ एवं धान्य से भलीभांति सिद्ध अन्न खिलाने को कहा । व्याध चिंता में पड़ गया कि ‘इस एकांत में यह सब सामग्री कहाँ से मिलेगी ?’
इतने में एक सोने का पवित्र पात्र आकाश से गिरा । व्याध ने उसे उठा लिया और भिक्षा माँगने के लिए वह जैसे ही जंगल के निकटवर्ती नगर की ओर जाने लगा तब वृक्षों से एक के बाद एक वनदेवियाँ आयीं, जिनके हाथों में स्वर्णपात्र थे जो विविध दिव्यान्नों से भरे हुए थे । वनदेवियों ने दिव्यान्नों से भिक्षा पात्र को भर दिया । व्याध वापस आया और उसने महर्षि से चरण धोकर भोजन हेतु आसन ग्रहण के लिए प्रार्थना की ।
पुनः तपोबल की परीक्षा करने के विचार से दुर्वासा मुनि ने पैर धोने हेतु नदी में जाने के लिए असमर्थता बतायी । व्याध ने मन-ही-मन अपने गुरुदेव का स्मरण किया और देविका नदी की भी स्तुतिपूर्वक शरण ली । गुरुभक्त व्याध की सेवा सफल करने हेतु पापनाशिनी देविका नदी मुनि के आगे प्रकट हो गयी । यह देखकर मुनिवर के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने हाथ पैर धोकर व्याध के श्रद्धापूर्वक दिए हुए अन्न को ग्रहण किया । महर्षि दुर्वासा ने व्याध को ब्रह्मविद्या, वेद और पुराणों का ज्ञान प्रत्यक्ष होने का आशीर्वाद दिया और नवीन नामकरण करते हुए कहाः “तुम अब ऋषियों में अग्रगण्य सत्यतपा नामक ऋषि होओगे । अब तुम्हारा पूर्वकालीन अज्ञान भी शेष नहीं रह गया है । इस समय तुम्हारे अंतःकरण में शुद्धरूप अविनाशी परमात्मा निवास कर रहे हैं । मुने ! इस कारण तुम्हें वेद और शास्त्र भलीभाँति प्राप्त होंगे ।”
संत-दर्शन, गुरुनिष्ठा, सेवा-साधना व गुरु कृपा का कैसा दिव्य प्रभाव कि एक नृशंस व्याध ने ऋषियों में अग्रगण्य स्थान पा लिया !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 330
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