अरे! यह क्या अजीब आज्ञा दे गये आचार्य चाणक्य चंद्रगुप्त को, पूरी घटना पढ़ें…

अरे! यह क्या अजीब आज्ञा दे गये आचार्य चाणक्य चंद्रगुप्त को, पूरी घटना पढ़ें…


उत्तम शिष्य पेट्रोल जैसा होता है। काफी दूर होते हुए भी गुरु के उपदेश की चिंगारी को तुरंत पकड़ लेता है। दूसरी कक्षा का शिष्य कपूर जैसा होता है। गुरु के स्पर्श से उसकी अंतरआत्मा जागृत होती है और वह उसमें आध्यत्मिकता की अग्नि को प्रज्वलित करता है।

तीसरी कक्षा का शिष्य कोयले जैसा होता है। उसकी अंतरआत्मा को जागृत करने में गुरु को बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है। चौथी कक्षा का शिष्य केले के तने जैसा है। उसके लिए किये गये कोई भी प्रयास काम नहीं लगते। गुरु कितना भी करे, फिर भी वह ठंडा और निष्क्रिय रहता है।

हे शिष्य! सुन, तू केले के तने जैसा मत होना। तू पेट्रोल जैसा शिष्य बनने का प्रयास करना अथवा तो कम से कम कपूर जैसा तो अवश्य बनना।

महर्षि चाणक्य ने भारत को सिकंदर के शासन से मुक्त कराके चंद्रगुप्त मौर्य को राज्यपद पर आसीन करा दिया। चंद्रगुप्त को रहने के लिए एक बड़े भव्य महल का निर्माण शुरू हुआ। सब सुविधाओं से परिपूर्ण उस महल के बनने के लिए अथाह सम्पत्ति और समय लगाया गया।

बहुत वर्षों बाद जब महल बनकर तैयार हुआ तब चंद्रगुप्त ने अपने गुरुदेव चाणक्य से निवेदन किया कि कृपया प्रथम आप अपने श्रीचरणों से महल को पवित्र कीजिए। गुरुदेव ने महल का निरीक्षण किया और बाहर आकर चुपचाप खड़े हो गये।

चंदगुप्त ने पूछा, “कैसा लगा गुरुदेव? इस भव्य महल के निर्माण हेतु बहुत सम्पत्ति खर्च हुई है। बहुत समय लगा है। आपको कैसा लगा?”

गुरु चाणक्य ने कहा कि, “चंद्रगुप्त! अभी इस महल को जलाकर राख कर दो।” यह कहकर चाणक्य अपनी कुटीर की ओर अग्रसर हो गये।

कही मैने गलत तो नहीं सुना? इतना आलीशान महल और इसे जला दो! गुरुदेव यह कैसा आदेश देकर चले गये।

अब यहाँ शिष्य के समक्ष एक तो अपने मन की खुशियाँ थी तो दूसरी ओर गुरु की अटपटी लगने वाली कठोर आज्ञा थी। चुनाव बड़ा मुश्किल था। परन्तु चंद्रगुप्त ने गुरु की आज्ञा का चयन किया और महल को जला दिया। कुछ ही देर में महल जलकर राख हो गया। परन्तु महल के राख में कुछ मनुष्य के जले हुए शव भी प्राप्त हुए।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त के पूछने पर बताया कि जब महल में निरीक्षण हेतु गया था तब मैंने चींटियों के झुंड देखे अलग-2 स्थानों पर । तभी मैं समझ गया कि इस महल के नीचे दुश्मनों ने गुप्त सुरंग बनाई है। ताकि इस महल में तुम्हारी हत्या कर सके।

यह कथा हर साधक की जीवन की ओर इंगित करती है। शिष्य भी अपने समय व शक्ति की सम्पत्ति लगाकर अपने मान्यताओं के भव्य महल का निर्माण करता है और उसको देखकर वह बड़ा ही प्रसन्न होता है। परन्तु जब साधक की मान्यताओं के महल में सद्गुरु का प्रवेश होता है, तब सद्गुरु बड़ी ही सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं और शिष्य को आदेश देते हैं कि अपने इस महल को जला दो।

परन्तु साधक यहाँ शंकित होता है। संशय की गर्त में गोते खाता है। फिर भी करुणामय गुरुदेव साधक को बार-बार कहते है और कभी पुचकारकर कहते हैं तो कभी डाँटकर कहते हैं।

जो शिष्य गुरु की आज्ञा मानकर अपने मान्यताओं के महल में ज्ञानाग्नि लगाकर दग्ध कर देता है। उसका दुश्मनों से रक्षण हो जाता है। यहाँ अपनी मान्यताओं में अहंकाररूपी दुश्मन बड़ा ही गुप्त सुरंग बनाकर बैठा होता है। जो गुरु के ज्ञान व गुरु की भक्ति के अग्नि से ही वह दग्ध होता है।

प्रत्येक साधक को विचारणीय है , कि सद्गुरु जब हमें आदेश देंगे कि अपने महल को भस्म कर दो तब हम क्या करेंगे? और दूसरी बात कि क्या अबतक सद्गुरु ने हमें आदेश दिया ही नहीं? …या हमने अबतक उनके आदेशों का पालन किया ही नहीं।

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