दूसरे के विषय में कोई बात जाननी हो तो जैसा लिखा होगा या जैसा कोई कहेगा वैसा मानना पड़ेगा किंतु अपने विषय में जानना हो तो स्वानुभव ही प्रमाण होगा। अतः अब सोचो कि कहीं लिखा है कि तुम दुःखी हो इसलिए अपने को दुःखी मानते हो या अपने दुःखीपने के तुम स्वयं साक्षी हो ? निष्कर्ष यही निकलेगा कि तुम इसलिए दुःखी हो क्योंकि तुम अपने दुःखी होने के स्वयं साक्षी हो। परंतु नियम यह है कि जो जिसका साक्षी होता है वह उसके (साक्ष्य के) गुण-धर्म से भिन्न होता है। तब जो तुम दुःखीपने के साक्षी हो वह तुम दुःखी कैसे हो सकते हो ?
विकार के बिना कोई दुःखी नहीं होता। विकार अर्थात् सड़न, एक से दूसरे में परिवर्तन। हमारी जो वस्तु जैसी थी वैसी नहीं रही, इसी से तो हम दुःखी हुए न ! जो परिवर्तनशील है वह साक्षी नहीं है और साक्षी में विकार या परिवर्तन नहीं है। बुद्धि दिन में सहस्र-सहस्र रूप बदलती है। यह प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख, मेरा-तेरा आदि रूपों में बदलती रहती है। बुद्धि के इन सहस्र-सहस्र रूपों का मैं साक्षी हूँ। अतः मैं निर्विकार हूँ। किंतु निर्विकार में तो दुःख होता ही नहीं, तब यह दुःख कहाँ से आया ? यह भूल से, नासमझी से, अज्ञान से माना हुआ दुःख है। प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत्। हम जिसे दुःख कहते हैं वह हमारी प्रज्ञा का अपराध है माने समझ का दोष है।
जैसे कोई व्यापारी अपना पूरा हिसाब देखे बिना केवल आज के हिसाब को देखकर घाटा मान ले और दुःखी हो जाय तो यह उसकी समझ का दोष है, उसी प्रकार हम अनादि, अनंत अपने आत्मा (साक्षी) को तो देखते नहीं कि वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्म ही है, बस एक शरीर के विचार से अपना पूरा हिसाब मान लेते हैं। यही समझ की भूल है।
यदि अज्ञान से दुःख न होता तो ज्ञान से वह दूर नहीं हो सकता था। यह नियम है कि जो वस्तु अज्ञान से होती है वह होती नहीं है और जो वस्तु ज्ञान से मिट जाती है, वह भी नहीं होती। रस्सी में रस्सी के अज्ञान से सर्प दिखता है और रस्सी के ज्ञान से सर्प नष्ट हो जाता है, अतः वह सर्प है ही नहीं। उसी प्रकार साक्षी के ब्रह्मस्वरूप के अज्ञान से साक्षी में दुःख, परिच्छिन्नता, अल्पज्ञता आदि प्रतीत होते हैं और उसके ब्रह्मत्व के ज्ञान से वे सब नष्ट हो जाते हैं, अतः दुःखादि भी वस्तुतः हैं नहीं, केवल उनका भ्रम हममें होता है। वेदांत भ्रमनिवर्तक ज्ञान को कल्पित मानता है। जैसे अविद्या कल्पित है वैसे ही अविद्या-निवर्तक ज्ञान भी कल्पित है। कल्पित की निवृत्ति कल्पित से ही होती है।
आपस में सम सत्ता जिनकी,
लखि साधक-बाधकता तिनकी।। (विचारसागर)
जिनकी आपस में सम सत्ता होती है, उनकी आपस में साधकता और बाधकता भी होती है। जैसे मिट्टी और घट की सम सत्ता है, अतः मिट्टी घट की साधक है, कारण है। अग्नि और लकड़ी की सम सत्ता है। अग्नि काष्ठ की बाधक है क्योंकि वह काष्ठ को जला देती है। किंतु मरूभूमि के जल की और प्यास की सम सत्ता नहीं, अतः मरुस्थल का जल प्यास का बाधक नहीं, वह प्यास को दूर नहीं कर सकता।
स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 25 अंक 307
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