अपनेसे कब निभाओगे

अपनेसे कब निभाओगे


 

श्रीकृष्ण ने कहा उद्धव को …

यदिदं मनसा वाचा चक्षुभ्र्यां श्रवणादिभिः।

नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।

जो आँखों से ,कानों से देखा जाता है,सुनाई पड़ता है ,जीभ से बोला जाता है, नाक से सूँघा जाता है,मन से सोचा जाता है या बुद्धि से निर्णय किया जाता है वो सब माया मात्र है,मिथ्या है। इस मिथ्या जगत को सत्य मानने वाला व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊँची पदवी पर पहुँच जाए फिर भी अंदर से परम् शांति नहीं  पा सकता है और जबतक परम् शांति नहीं  पाई तबतक ये जीव बेचारा अभागा रह जाता है।

भाई होकर भाई के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,पिता होकर पुत्र के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,बेटा होकर बाप के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,वकील होकर असिल के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,और न्यायाधीश होकर वकीलों के साथ और कोर्ट के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,मठाधीश होकर मठ के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, महाराज.. साहब होकर ऑफिस के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, सेठ होकर दुकान के साथ, नौकरों के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, लेकिन समय की धारा में कर्त्‍तव्‍य निभाना और कर्त्‍तव्‍य का परिणाम ये समय की ..विशाल समय की धारा में सब छू होता जाएगा।
कर्ता की जब मृत्य होती है.. तो कर्ता ने कईयों से कर्त्‍तव्‍य निभाए लेकिन कर्त्‍तव्‍य निभाने का सुख दुःख , हर्ष शोक और प्राप्ति अप्राप्ति … अंत में कर्ता के हाथ में कुछ रहता नहीं , मृत्यु के समय कर्ता अभागा रह जाता है, अनाथ रह जाता है।

कर्ता ने भाई के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, पत्नी के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, पुत्र के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, जमाई
के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, वैवई के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, अरे कर्ता ने जीव होकर
ईश्वर के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,लेकिन कर्ता ने अपने मूल स्वरूप को नहीं  खोजा तो कर्ता बेचारा अनाथ रह जाता है!
तो ये थोपे हुए कर्त्‍तव्‍य कर्ता ने  ..जिस वक्त कर्ता अपनेको जैसा मानता है ऐसा उसके ऊपर कर्त्‍तव्‍य आ जाता है। अपने को पिता मानता है तो पुत्र पालन का कर्त्‍तव्‍य आ गया, अपने को जमाई मानता है तो  सासु ससरा के आगे नाक रगड़ना कर्त्‍तव्‍य आ गया, और महाराज, अपने को कुटुंब का बड़ा मानता है तो  पालन पोषण और कुटुम्बियों के मन को खुश रखना ये कर्त्‍तव्‍य आ गया, कर्ता जिस समय अपने को जैसा मानता है उस समय कर्ता के सिर पर उसी प्रकार का बोझ आ जाता है! लेकिन कर्ता जब अपने को ब्रम्ह रूप में जानता है तो उसका कोई कर्त्‍तव्‍य नहीं  है ! सहज स्वभाव उसका जीवन हो जाता है । कर्ता अपने को खोज ले,ब्रम्ह रूप में निहार ले तो फिर कर्ता का कोई कर्त्‍तव्‍य नहीं, कर्ता सहज स्वभाव में जग जाता है!

जो आँखों से दिखता है,इंद्रियों से सोचा जाता है,पकड़ा जाता है,देखा जाता है,सूँघा जाता है,चखा जाता है,स्पर्श किया जाता है, वो सब माया मात्र है,कल्पना मात्र है..उद्धव उसमें तुम मत पड़ो लेकिन जिससे ये संवित स्फुरित होती है उस आत्मा में विश्रांति पाने के लिए बद्रिकाश्रम चले जाओ एकांत में। कुछ समय के लिए साधकों को एकांतवास करना चाहिए ताकि इंद्रियों का,बुद्धि का,चित्त का जो स्वभाव है संसार की तरफ आकर्षित होने का, तो उनके स्वभाव में थोड़ा परिवर्तन आ जाए और तुम अपने स्वभाव में जाने के लिए थोड़ा समय निकाल सको।

दुनिया की सब चीजें किसी आदमी को दे दो लेकिन जिसको एकांतवास नहीं  और आत्म विचार नहीं  है तो समझो कर्ता अनाथ हो जाएगा ! और जिसके पास आत्म विचार और एकांत है,दुनिया की हर चीज उससे छीन ली जाए फिर भी महाराज जिसके पास आत्मविचार और एकांत है वो परम् सौभाग्य को पा लेता है.. क्यों?.. कि परमात्मा को तो कोई छीन नहीं  सकता, अपने आत्मा को तो कोई छीन नहीं  सकता! और संसार की वस्तू को आज तक कोई रख नहीं  सका है! तो जो नहीं  रख सकते उस चीजों को किसी ने छीन लिया तो क्या बड़ी बात है? लेकिन जो सदा साथ में है उसको जानने के लिए अगर समय मिल गया बेड़ा पार जो गया !

ये वास्तविक नहीं  है! संसार मिथ्या है तो देह भी मिथ्या है और तुम्हारी बुद्धि भी माया से स्फुरी है, तो बुद्धि में जो शोक आता है, दुःख आता है ,चिंता आता है,तो चिंता को,दुःख को, शोक को अपने में जो लोग लगा देते है  वे दुःखी हो जाते है। जय जय !  चिंता को,शोक को ,परेशानी को जो लोग अपने में मान लेते है वो परेशान रहते है, लेकिन जब चिंता आए, शोक आए या हर्ष आए तो समझ लेना चाहिए कि आने जाने वाली चीजें है।
भाई वेदांत तो खपे…लाइफ में वेदांत तो होना चाहिए लेकिन वेदांत को स्वीकार करने के लिए तैयारी भी तो होनी चाहिए।

दुनिया के सब लोग मित्र हो जाए लेकिन जबतक तुम्हारा विचार वेदांती नहीं  हुआ तबतक तुम्हारे दुःख दूर नहीं  होंगे सब ! जय रामजी की ! और दुनिया के सब लोग शत्रु हो जाए और तुम्हारा वेदांतनिष्ठा में मन ठीक है तो आपको सब लोग मिलके भी दुःखी नहीं  कर सकते। कोई सूली चढ़ा सकते है, थप्पड़ मार सकते है, दोस्त अपशब्द कह सकते है लेकिन जब वेदांत के विचार से आप अपने आप में आ गए तो शब्द भी आपके शरीर तक पहुँचेंगे, आपके मन तक पहुँचेंगे, आपकी बुद्धि तक पहुँचेंगे, आप तक तो संसार का कोई दुःख पहुँच ही नहीं  सकता! अभी इस  समय तुम इतने पवित्र हो कि संसार का कोई दुःख पहुँच नहीं  सकता..ये जो बम बने है ना ..एक बम नहीं  एक करोड़ बम, अरबों बम..अभी जो बने है उससे हजार गुने और भी बन जाए फिर भी तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का तो बमों के बाप कुछ नहीं  बिगाड़ सकते, तुम ऐसी चीज हो ! लेकिन जब तुम देह को मैं माना तो ये बम नहीं  गिरते है तभी भी विचारों का, किसी का छोटा-सा बम भी तुम्हारे चित्त में धड़ाके पैदा कर देगा ! तो ऐसा दुःख नरक में भी नहीं  है जैसा दुःख अज्ञानी
बना लेता है! और ऐसा सुख स्वर्ग में भी नहीं  है जैसा सुख ज्ञानवान के सान्निध्‍य मात्र से प्राप्त होता है! और ये ब्रम्हविद्या के वचन तुम आदर से सुनो ,जाने अनजाने या अंदर उन्‍डे बैठ जाएँगे तो हजारों हजारों जन्म के तुम्हारे कर्म कट जाएँगे, हजारों हजारों जन्म के माता और पिता के शरीरों से पसार होने की मजूरी तुम्हारी दूर हो जाएगी! इसलिए इस ब्रम्हविद्या को खूब आदर से सुनो,खूब अहोभाव से सुनो, ऐसा नहीं  कि बापू चलो, आजे  तो बार वागे निकली जउं पहुंची जउं फलाणे देत्‍या ने आवती काले कथा हांभणीस रतलाम मां…. नहीं ! जितनी मिल जाए, जो ब्रम्हविद्या मिल जाए, जहाँ पर मिल जाए…

योगवासिष्ठ में आता है कि रामचंद्र जी घर में जैसा भोजन है वैसा खा ले और जो कपड़ा मिले वो पहन लें,जहाँ नींद आ जाए वहाँ पड़ जा लेकिन ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनता रहा बस! वो मुख्य बात है!.
भक्त होकर तुमने मंजीरे कूट लिए, तपी होकर तुमने तप कर लिया, जपी होकर तुमने जप कर लिया, विद्यार्थी होकर तुमने विद्या अध्य्यन कर लिया.. तुमने कुछ कुछ बनकर कुछ कुछ पा लिया लेकिन ब्रम्हविद्या नहीं  जाना तो तुम्हारा सब कुछ जाना हुआ और पाया हुआ व्यर्थ हो जाएगा ।और महाराज ! तुमने ब्रम्हविद्या के लिए, आत्मज्ञान के लिए अगर चित्त को एकाग्र किया…उपनिषद कहता है

स्नातम तेन सर्व  तीर्थम

उसने सारे तीर्थो में स्नान कर लिया , उसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सब यज्ञ कर लिए ,उसने सब हवन कर लिए ,उसने सारे पितरों को तर्पण कर लिया…

ये न क्षणम मन ब्रम्‍ह विचारें स्थिरम कृत्वा ll

जिसने एक क्षण के लिए ब्रम्हज्ञान में मन को स्थिर किया है..इतना पुण्य देती है ब्रम्हविद्या! सनकादि ऋषियों को ब्रम्हविद्या पाने के लिए  ब्रम्हाजी के पास जाना पड़ा और  ब्रम्हाजी  को ब्रम्हविद्या देने  के लिए सृष्टि करने  के संकल्प से  बुद्धि जरा रजोप्रधान हो गई थी इसलिए मन शांत करके बुद्धि के अधिष्ठानस्वरूप आदिनारायण का आह्वान किया और तब ब्रम्हविद्या का उपदेश हुआ और हँसगीता इसका नाम पड़ा। ये ऐसी ऊँची विद्या है!
पहले के जमाने में संत लोग ऐसा माईक लगाके ब्रम्हविद्या का उपदेश नहीं  करते थे ..वो तो जंगलों में एकांत में रहते, राजे महाराजे आते , साधू सेवा करते, झाड़ू बुहारी करते महाराज ! उनको प्रसन्न करते तब कहीं थोडा-सा ब्रम्हज्ञान का थोड़ा-सा अमृत पिलाते.. फिर देखते पचा है कि नहीं  पचा है, नहीं  तो फिर समेट लेते थे ।
लेकिन आज अगर ऐसा करे तो एक भी ग्राहक नहीं  मिलेगा!  कलजुग मां मंदी जो थई है नी तो तपस्‍या नी ने ब्रह्मविद्या नी मंदी थई है बीजा तो बूं बर चाले….

पहले के जमाने के आदमी के पास जो विवेक था , जो अपने जीवनदाता को पहचानने की जो तत्परता थी , जो ब्रम्हज्ञान पाने की जो तत्परता थी , जो जिज्ञासा होती थी वैसी जिज्ञासा रही नहीं  क्योंकि मन मलीन होता है!मलीन मन में आत्मज्ञान पाने की इच्छा नहीं  होती । मलीन मन में आत्मरामी संतों के चरणों में बैठने की रुचि नहीं  होगी ।

स्वल्प पुण्यवंता राजन विश्वासों नैव जायते |’ 

जिसके स्वल्प पुण्य है न उसको तो ब्रम्हविद्या में, ब्रम्ह वेत्ताओं में विश्वास नहीं  होगा।वो संसार में कूट कूट के दस जिंदगी बर्बाद कर देंगे ,सारा जीवन बर्बाद कर देंगे लेकिन जीवनदाता के करीब आनेवाली,  लानेवाली जो ब्रम्हविद्या है उसको वो श्रवण नहीं  कर सकते और बिना ब्रम्हज्ञान के श्रवण के महाराज! समाधि भी कर दे ,निर्विकल्प समाधि कर ले, चांद्रायण व्रत कर ले, उपवास कर ले, नंगे पैर तीर्थयात्रा कर ले ,केवल जल पर रह ले, खाली पानी पे रह ले, खाली हवा पे रह ले.. ऐसे योगियों को मैं जानता हूँ.. एक योगी ऐसे मिले थे पवनहारी, 138 साल की उनकी उमर थी और पेड़ पे ही रहते थे ,झाड़ पे ही ऊपर रहते थे,नीचे उतरते ही नहीं  थे। कभी 2-4 दिन में उतरे और गंगाजी में गोता मार के वो झाड् पर झोंपड़ी थी छोटीसी झोपड़ी थी, 3-4 फीट चौड़ी होगी और
6 सवा 6 फीट लंबी होगी झोपड़ी,झाड़ पे झोपड़ी बनाई थी,उसमें बैठे रहते थे।ऐसे योगियों को भी हमने मिलके देखा,उनसे वार्तालाप करके देखा लेकिन ज्यां लगी आत्म तत्व चिन्यो नहीं त्यां लगी साधना सर्व झूठी…

इसका मतलब ये नहीं कि ध्यान नहीं करे योग नहीं करे.. योग और ध्यान करने के बाद भी ब्रम्हविद्या चाहिए अथवा तो ब्रम्हविद्या सुनते सुनते सुनते उसका विचार करते करते योग हो जाए,उसका चिंतन करते करते ध्यान हो जाए! चिंतन ऐसा करो कि अचिंत्य पद में विश्रांति मिल जाए! ध्यान ऐसा करो कि सारे मिथ्या जगत का ध्यान छूट जाए!  ये शरीर जैसे मिथ्या है ऐसे बुद्धि में आनेवाला शोक,मोह,भय , चिंता भी मिथ्या है। इसको मिथ्या मानने से आप निर्दुख हो जाते है! आपके बुद्धि में भय आया,शोक आया, चिंता आई तो आप ये विचार करना कि बुद्धि आत्मख्याति.. बुद्धि बदलती रहती है , जो बदलने वाली बाई  है उसमें आनेवाला दुःख सुख अबदल कैसे हो सकता है? वो भी बदलने वाला है! जब शरीर बदलता है,  बुद्धि बदलती है,मन बदलता है तो दुःख सुख सदा थोड़े रहेगा !  पहले क्षण जब घटना घटती है और दुःख लगता है दो घँटे के बाद वैसा नहीं  होता ! और वो घटना को आप स्वीकृति नहीं  देते उतना दुःख जोर मारता है।

कोई महिला का पति स्वर्गवास हो गया, अब वो स्वीकृति दे दी विधवा होने को, क्‍योंकि पति तो चला गया है ,चलो जीवन जी लेंगे, बच्चों को पढ़ा लेंगे, कुछ कर लेंगे तो उसका दुःख कम हो जाएगा लेकिन ..” अब मेरे पति तू कहां है रे… छोरों का कांयं होगा रे…” पकड पकड धूम पछाडा करे… उससे पति तो वापस आएगा नहीं  लेकिन अपनी पकड़ के कारण बुद्धि में शोक, मोह भर जाएगा ।लोग क्या कहेंगे ? माम छांछ वलां …
इस प्रकार का बुद्धि में  ममता डालते जाओगे तो लोगों के तुम कठपुतलियाँ हो जाओगे।लेकिन अपनी ओर से हम ठीक कर रहे है तो लोगों की जैसी बुद्धि होगी वैसा कहेंगे… हरिओम तत्सत और सब गप शप! ऐसा करके जीवन जीने का ढंग आ गया तो लोगों के आप खिलौने नहीं  बनेंगे।

हम लोग लोगों के खिलौने क्यों बनते है ? कि बुद्धि वृत्ति में जैसा जैसा संस्कार पड़ जाता है वैसे वैसे हम अपनेको मान लेते है।इसीलिए हम कल्पनाओं के शिकार बन जाते है।और ऐसा कोई मनुष्य नहीं  है जो संसार को सत्य मानकर बुद्धि वृत्ति में जो कल्पना आई उसको सच्ची मानकर संसार में जीया हो और सुखी हुआ हो ऐसा असंभव है।फिर चाहे भगवान कृष्ण साथ मे हो अर्जुन के लेकिन अर्जुन की बुद्धि में जो कल्पनाएँ पकड़ रखी है अर्जुन ने तो अर्जुन पूरा सुखी नहीं  हो रहा है। उद्धव ने जो  कल्पनाएँ पकड़ रखी है और श्रीकृष्ण के साथ में वो है फिर भी उद्धव पूरा निश्चिंत नहीं  हुए। संसार को मिटाना नहीं  अथवा भगवान को पाना नहीं  लेकिन बुद्धि से बेवकूफ़ी मिटाना है और बुद्धि को परमात्मा में प्रतिष्ठित करना है!जय जय !

परमात्मा तुमसे दूर नहीं  तुम परमात्मा से दूर नहीं  ।सुख सदा रह नहीं  सकता, दुःख सदा रह नहीं  सकता और भगवान कभी हट नहीं  सकता, लेकिन देखो तो सदा सुख दुःख दिखता है और भगवान दिखता ही नहीं  ये बुद्धि का दोष है न यार !

 

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