Monthly Archives: January 2019

गुरु की परम प्रसन्नता कौन पाता है ?


शंकर नाम का एक बालक गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करता था । उसकी कुशाग्र बुद्धि, ओजस्वी प्रतिभा एवं नियम-पालन में निष्ठा से उसके गुरु और अन्य साथी उस पर अत्यंत प्रसन्न थे । आश्रम का नियम था कि एक शिष्य दिन में एक ही घर से भिक्षा प्राप्त करेगा । एक दिन शंकर भिक्षा माँगने निकला । एक घर के सामने जाकर कहाः “भिक्षां देहि ।” वह किसी निर्धन बुढ़िया का घर था । उसके पास मात्र मुट्ठी भर चावल थे । उसने वे भिक्षा में दे दिये । शंकर को उसकी दरिद्रता ध्यान में आयी । वह पड़ोस में एक सेठ के घर गया । सेठानी  विभिन्न व्यञ्जनों से सज्जित एक बड़ा सा थाल लायी । शंकर ने कहाः “मैया ! यह भिक्षा पड़ोस में रहने वाली गरीब वृद्धा को दे आइये ।”

सेठानी ने वैसा ही किया ।

शंकरः “करूणाशाली माँ ! ईश्वर ने आपको खूब धन सम्पदा दी है । ईश्वर करे वह चिरकाल तक बनी रहे व सुखदायी भी हो । पुरुषार्थ और पुण्यों की वृद्धि से लक्ष्मी आती है, दान, पुण्य और कौशल से बढ़ती है तथा संयम और सदाचार से स्थिर होती है । मुझे आपसे एक और भिक्षा चाहिए । वे वयोवृद्ध माता जी जब तक जीवित रहें तब तक यथासम्भव आप उनका भरण-पोषण करेंगी तो मैं समझूँगा आपने रोज मुझे भिक्षा दी । क्या आप यह भिक्षा मुझे देगी ?”

सेठानी ने सहर्ष स्वीकृति दी । शंकल चावल लेकर आश्रम पहुँचा और अपने गुरु से कहाः “गुरुदेव ! आज मैंने नियम-भंग किया है । मैं भिक्षा के लिए एक नहीं, दो घरों में गया । मुझसे अपराध हुआ है, कृप्या मुझे दंड दें ।”

गुरुदेव बोलेः “शंकर ! मुझे सब ज्ञात हो गया है । उस असहाय वृद्धा को मददरूप बनकर तुमने गलत नहीं बल्कि पुण्यकार्य किया है । वत्स ! इसे नियम भंग नहीं माना जायेगा । तुमने आश्रम का गौरव ही बढ़ाया है । तुम धन्य हो ! मेरा आशीष है कि तुम ऊँचे-से-ऊँचे पद – आत्मपद को उपलब्ध होकर विश्वव्यापी सुयश प्राप्त करोगे ।”

इसी बालक शंकर ने आगे चलकर अपने गुरुदेव का पूर्ण संतोष पा के आत्मपद की प्राप्ति की एवं श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी के नाम से विश्वविख्यात हुए ।

कनिष्ठ शिष्य गुरु की आज्ञाओं का स्थूल अर्थ में पालन करके लाभान्वित होता है । मध्यम शिष्य आज्ञाओं का स्थूल अर्थ में पालन करता ही है, साथ ही गुरु के संकेतों को भी समझने के लिए तत्पर रहता है । उत्तम शिष्य आज्ञा-पालन करने व संकेत समझने के साथ अपनी मति को सूक्ष्मतम बना के गुरु के सिद्धान्त को आत्मसात् कर उसके अनुरूप सेवा खोज लेता है । सिद्धान्त का पालन करते-करते एक ऐसी स्थिति आती है जब वह और  सिद्धान्त दो नहीं रह जाते, वह साक्षात् सिद्धान्तमूर्ति हो जाता है । फिर ऐसे सौभाग्यशाली शिष्य को ‘मैंने सिद्धान्त का पालन किया’ – ऐसा भान या अभिमान भी नहीं होता, वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति हो जाता है । ऐसा शिष्य गुरु की परम प्रसन्नता प्राप्त कर पूर्ण गुरुकृपा का अधिकारी हो जाता है । धन्य है ऐसे सत्शिष्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 313

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पूज्य बापू जी के अमृतवचन


शरीर से वियोग हुआ है, मेरे आत्मा से नहीं

मनुष्य जन्म अपने आत्मा को, अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप को जानने के लिए ही मिला है, संसार के इन्द्रियों के सुख भोगने के लिए नहीं मिला है। संसार में कुछ भी पाया लेकिन अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप, आत्मस्वरूप को नहीं जाना तो व्यक्ति आखिर में खाली-का-खाली रह जायेगा।

मेरा और साधकों का शरीर से वियोग हुआ है लेकिन मेरे आत्मा से साधकों का वियोग नहीं हुआ है और न कभी हो सकता है। मैं जेल में हर तरह के कैदियों के बीच में रह रहा हूँ फिर भी उनका मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मैं अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप में रहता हूँ। तुम साधक भी संसार में इस तरह से रहो कि किसी का भी तुम्हारे पर प्रभाव न पड़े। तुम भी अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप में रहो।

समुद्र में भी लहरें आती हैं, वे नहीं आयें ऐसा तो हो नहीं सकता है। ऐसे ही संसार में सब होता रहता है, अपनी पकड़ नहीं रखनी चाहिए। अपने आत्मा-परमात्मा को जानना चाहिए, बाकी जो मिला है वह छूट जायेगा और जो मिलेगा वह भी छूट जायेगा। जैसे – बचपन चला गया, यौवन चला गया, बुढ़ापा भी आकर चला जायेगा…. सब कुछ छूट रहा है लेकिन अपने मैं का मूल आत्मा-परमात्मा ज्यों-का-त्यों है। उसको जानो, वही सार है।

ईश्वर ही सार है

जो सब कुछ जानता है वही सत्यस्वरूप है, अपना-आपा है। क्रोध आया तो किसको आया ? इसके  साक्षी बनो। कोई भी काम करते हो – जॉब आदि तो कौन करता है ? इसके साक्षी बनो । ईश्वर ही सार है, बाकी सब असार है, कुछ नहीं है ।

अपने आत्मा में सुख पाओ फिर कितनी भी समस्याएँ आयेंगी, सब पसार हो जायेंगी । एक अपने-आप में बैठो ।

गुरु जी से क्या माँगे ?

गुरु जी से क्या पूछना चाहिए व क्या माँगना चाहिए – इस बारे में बताते हुए पूज्यश्री ने सांदीपनि जी की गुरु भक्ति का प्रसंग सुनाया । पूज्य श्री ने बतायाः सांदीपनि के गुरु जी ने अपने इस शिष्य को  वरदान माँगने के लिए कहा लेकिन उसने अपने गुरु से संसार की कोई वस्तु नहीं माँगी। तब गुरु जी ने सांदीपनी को वरदान दिया कि भगवान कृष्ण अवतार लेकर आयेंगे और तेरे शिष्य बनेंगे ।

आजकल के शिष्य गुरु जी से संसारी वस्तुएँ माँगते हैं । अपनी संसार की परेशानियों के बारे में ही पूछते हैं । अपने गुरु जी से संसारी वस्तुएँ नहीं माँगनी चाहिए। अपने आत्मा के कल्याण के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए । विनाशी जगत की आसक्ति, अहंकार में उलझे लोग मनुष्य जीवन की महत्ता नहीं जानते ।

हृदयपूर्वक प्रार्थना करें- प्रभु ! हमें सदबुद्धि दो, सद्विवेक दो । अविनाशी, अमर आत्मा में हमारी प्रीति हो । मरने वाले शरीर व नाशवान संसार में हमारी आसक्ति व अहंकार हमें उलझा रहे हैं । इन आसक्ति व अहंकार से हम बचें । तुम अविनाशी आतम अमर के ज्ञान में, प्रीति में लगें । दुःखद विकारों में हम कई जन्मों तक भटके । ऐ सुखस्वरूप अविनाशी प्रभु ! तुम्हारी प्रीति और तुम्हारे ज्ञान में हमारी गति हो ऐसे दिन कब आयेंगे ? दुर्लभ मनुष्य-जीवन मिटने वाले शरीर और छूटने वाली वस्तुओं के पीछे खप रहा है । अछूट अपने आत्मदेव में यह अभागा मन कब लगेगा ? बुढ़ापा, बीमारी, मृत्यु की नज़दीक वाली लाचारी, मोहताजी आये उसके पहले जहाँ मृत्यु की दाल नहीं गलती उस असली आत्मस्वरूप की प्रीति पायें, विश्रांति पायें और सदा के लिए सब दुःख मिटायें हमें ऐसी मति-गति दे हे प्रभु ! हे गुरुदेव !

जिज्ञासु के प्रश्न

एक जिज्ञासु ने पूछाः गुरुदेव ! मुझे ईश्वर को पाना है, जीवन में महान बनना है… कैसे बनूँ ?”

पूज्य बापू जीः तुम (आत्मा) तो पहले से ही महान हो, तुम्हारी सत्ता से ही महानता प्रकट होती है । बनना कुछ भी नहीं है, बनना काहे को है !”

बचपन में विकारी जीवन था…

विकारी जीवन बचपन में था न, जो बीत गयी सो बीत गयी, अभी तो मौज में रह न !”

साधकः गुरुदेव आध्यात्मिक उन्नति चाहता हूँ, कभी-कभी उन्नति होती है तो कभी फिसलाहट भी होती है, नीचे गिरना होता है, क्या करूँ ?”

पूज्य बापू जीः पंचामृत पुस्तक पढ़ो और शांत होने का अभ्यास करो ।

(पंचामृत पुस्तक‘ सत्साहित्य केन्द्रों पर उपलब्ध है । – संकलक)

(संकलकः गलेश्वर यादव)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 313

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माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला-संत विनोबा भावे जी


साहित्य देवता के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है । बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता । जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिए बड़ौदा रहते थे । दीवाली के दिनो में वे अकसर घर पर आया करते थे । एक बार माँ ने कहाः “आज तेरे पिता जी आने वाले हैं, तेरे लिए मेवा-मिठाई लायेंगे ।” पिता जी आये । फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया । मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे ।

लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा सा था । मुझे लगा कि ‘कोई खास तरह की मिठाई होगी ।’ खोलकर देखा तो दो किताबें थीं । उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया ।

माँ बोलीः “बेटा ! तेरे पिता जी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।” वे किताबें रामायण और भागवत के कथा प्रसंगों की थीं, यह मुझे याद है । आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं । माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि ‘इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।’ इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुंदर विचार की पुस्तक मीठी मालूम होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 17, अंक 313

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