आज इतिहास लिखा जाना था घटने वाला था कुछ अद्भुत

आज इतिहास लिखा जाना था घटने वाला था कुछ अद्भुत


शास्त्र एवं गुरु द्वारा निर्दिष्ट शुभ कर्म करो, ब्रह्मवेता महापुरुष ही सच्चे संस्थापक होते है विश्व शांति की नींव का। किसी भी समाज या राष्ट्र की महानता उसकी संपत्ति, वित या वैभव से निर्धारित नहीं होती, समाज या राष्ट्र की महानता धर्म से निहित है और धर्म का प्राकट्य सत्शिष्य और सतगुरुओं की कृपा से ही होता है।

भारत की महानता का गुणगान हो रहा है परन्तु यह सबसे बड़ा विचारणीय तत्व है कि भारत की महानता पर दृष्टिपात करे तो उसकी महानता के पीछे जाने अनजाने ब्रह्मवेता सतगुरुओं की ही अनुकंपा रही है, चाहे वो भगवान राम हो, चाहे वो कृष्ण हो, भक्ति मती शबरी हो, महर्षि वशिष्ठ हो, गंगा माता को इस भारत भूमि पर लाने वाले भगीरथ हो, महर्षि पाणिनि हो, चाहे स्वामी विवेकानंद हो या चाहे लीला शाह महाराज ही क्यों न हो। इन्हीं की अनुकंपा से आज भारत महान कहा जाता है, भारत की महानता या अन्य किसी भी समाज की महानता उसकी श्रद्धा, उसकी मानवीय संवेदना के उपर निर्भर है।

परन्तु आज इस यंत्र के युग में समाज की श्रद्धा व महापुरुषों के प्रति विश्वसनीयता को खंडित किया जा रहा है और पुरजोर प्रयास के साथ कहीं न कही हम भी उसमें पूर्ण रूप से सहभागी हो रहे है ऐसे ही इस राष्ट्र में यदि सदगुरुओं को प्रताड़ित किया जाता रहा या अत्याचार किया जाता रहा तो शायद आने वाली पीढ़ी यह कहेगी की भारत कभी महान था। जब कभी भी संसार, समाज या धर्म पर आंच आई है तो इसकी रक्षार्थ सदगुरुओं ने ही पहल की है।

सन् १६९९ में वैसाखी का दिन था गुरु गोविंद साहिब जी ने एक खास जलसा आयोजित किया, गुरु का हुक्म पाकर हजारों शिष्य वहा पहुंचे, पंडाल खचाखच भरा था, बीचों बीच बड़ा दीवान लगा था, उसके चारों ओर एक पर्दा टंगा था, सभी की प्यासी आंखे एक टक इसी पर्दे पर टिकी थी, मानो इसे भेदकर विराजमान गुरु महाराज जी की एक झलक पाना चाहती हो, उनके ओजस्वी शांतमय रूप को निहारना चाहती हो और तभी अकस्मात पर्दा हटा गुरु महाराज जी समक्ष प्रकट हुए परन्तु यह क्या आज उनका मुख मंडल शांत नहीं था।

तेज जलाल उस पर दमक रहा था, एक अदभुत जोश था, एक बुलंद ललकार थी, वे दाएं हाथ मे एक चमचमाती नंगी तलवार लिए हुए थे इस तलवार ने अनुयायियों के माथे पर प्रश्न वाचक लकीरें खींच दी परन्तु तभी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी सिंह गर्जना करते हुए नारा लगाया *बोले सो निहाल*

उसी उत्साह के साथ प्रतिध्वनि हुई *सत् श्री अकाल* .

फिर गुरु साहिब जी ने कड़कते स्वर मे ऐलान किया आज मेरी तेजधारी इंकलाबी तलवार एक शीश की प्यासी है, उठो गुरु के प्यारे सिखो आगे बढ़ो, खुशी खुशी से अपने सिर भेंट चढाओ। प्राणों का मोह त्यागो, बेमोल ही सिरो के सौदे करो मुझसे।

आज तुमसे तुम्हारा गुरु यही मांगता है, माहौल खौफजत हो गया, चेहरे बेरंग पड़कर सफेद हो गए, सब स्तब्ध रह गए, खामोशी का माहौल छा गया, पंडाल मे मानो सांप सूंघ गया सभी को, सभी कानों सुने ऐलान को समझने उस पर विश्वास करने की कोशिश कर रहे थे परन्तु तभी गुरु साहिब ने पुनः हुंकारा साहस करो बहादुर सिखो, आगे बढ़कर अपने सिर दो। ऐलान स्पष्ट था निसंदेह मांग अनोखी ही थी, गुरु की खड़क चमककर जैसे ललकार रही थी कि हे सिखो ! आज तक गुरु भक्त होने के बड़े दावे करते आए हो किन्तु केवल जुबान हिलाने से बात नहीं बनती, कह देना भर काफी नहीं, आज तुम सभी को अपने शिष्यत्व का प्रमाण देना होगा यदि प्रेम की डगर पर कदम रखने की हिम्मत की है तो फिर सिर की बाजी लगाने से क्यों डरते हो, तलवार के इस ललकार को एक सच्चे शिष्य ने स्वीकार किया और सीना ठोककर बोला मैं दूंगा अपना सिर सच्चे बातशाह ! मैं दूंगा।

अफसोस है कि मेरे धड़ पर एक सिर है हजार होते तो हजारों आपके श्री चरणों मे भेंट कर देता। यह था लाहौर का क्षत्रिय दयाराम। गुरु साहिब उसे पकड़कर बाजू से पर्दे के पीछे ले गए सट्टाक सिर कलम होने की आवाज़ आई, रक्त की मोटी धार पर्दे के नीचे से बह निकली, दो क्षणो के पश्चात गुरु साहिब फिर से बाहर आए उनके हाथ मे रक्त से सनी हुई तलवार थी, टपकते रक्त को देखकर लाखो दिल सिरह उठे, यह क्या, एसी निष्ठूर्ता.. गुरु साहिब ने अपने ही सिख की गर्दन पर कटार चला दी किन्तु आज तो परीक्षा की घड़ी थी, करुणा अवतार गुरु ने रौद्र रूप धारण किया हुआ था, उन्होंने एक बार फिर महाघोश की और कहा शिष्य वहीं जो शीश दे, इस हजारों के समूह मे में कोई ऐसा शिष्य चाहता हूं, है कोई और ऐसा शिष्य? शीश झुकाना इतना आसान है और शीश देना उतना कठिन। कृपा अनुदान के लिऐ शीश झुकाते आए है हम सतगुरुओं के आगे परन्तु आज बलिदान के लिए झुकाना था, आज झुकाना ओपचारिक नहीं था, प्रामाणिक था, जीवन मृत्यु का प्रश्न था, गुरु जीवन को संवारने की बात नहीं कर रहे थे, जीवन ही मांग रहे थे, तन मन नहीं प्राण चाह रहे रहे थे, अब जिन्होंने गुरु को प्राण पति बनाया ही नहीं था, जाहिर है कि उन्हें यह मांग नाजायज लगी, असंगत और अटपटी लगी परन्तु इस भीड़ मे एक और शिष्य ऐसा था जो पहले ही अपने प्राणों को गुरु चरणों मे विसर्जित कर चुका था यह था रोहतक का जाट धर्मदास। वह उठा और बोला यह नाचीज़ आपका ही बंदा हूं मालिक जो चाहे करो, हाज़िर हूं, गुरु साहिब उसे भी भीतर ले गए, वहीं प्रक्रिया दोहराई फिर कुछ क्षणों के बाद अकेले बाहर आए, हाथ मे वहीं रक्तिम तलवार थी सिलसिला आगे बढ़ता गया, तीसरी बार द्वारका का रंगरेज हुकुम चंद उठा, चौथी बार जगतनाथ पूरी का कहार हिम्मतराय दौड़कर आगे आया। अब गुरु गोविंद सिंह जी पांचवीं दफा बाहर आए, रक्त रंजित तलवार ऊंची करके फिर महानाद किया बस.. क्या कोई और नहीं?

इतनी संगत मे सिर्फ चार गुरुभक्त, आगे आओ मुझे एक और शीश चाहिए अब तक आनंदपुर मे हा-हा कार मच चुका था काफी सिख तो पंडाल छोड़कर बाहर निकल गए जो बैठे हुए थे, उनमें संशयो के तूफान उठ गए, यह गुरु महाराजजी को क्या हो गया है ? निसंदेह अब उनकी तबियत ठीक नहीं है, नहीं तो क्या यू अपने सिखो के सिर कलम करते। कानाफूसी शुरू हो गई लेकिन इन तूफानों हाहाकारों को पीछे धकेलता हुआ एक और सिख आगे बढ़ा, यह था साहब चंद। आंखो मे प्रेम का दरिया मस्तक समर्पण भाव से झुका हुआ हाथ प्रार्थना मे जुड़े हुए साहब चंद मंच पर पहुंचकर गुरु चरणों मे लौट गया, मेरे साहिब सिर देने वाले भी आप सिर लेने वाले भी आप। सच्चे पातशाह ! सिर तो क्या इस तन का अंग अंग, बोटी बोटी काट डालो, दास चरणों मे अर्पित है, एक और सिख बलि हुआ।

गुरु महाराज जी पुनः बाहर आए किन्तु इस बार उनके हाथ मे तलवार नही थी मुख मंडल पर आक्रोश नही था आंखो मे नमी थी, मंद मंद मुस्करा रहे थे फिर एकाएक निर्णायक स्वर मे बोले यह पर्दा हटा दो संसार को प्रत्यक्ष देख लेने दो कि जो गुरु के लिए मर मिटने से नहीं चूकते वे सदा सदा के लिए जीवित रहते हैं,अमरत्व के अधिकारी होते हैं।

आज्ञानुसार पर्दा हटा पांचों गुरुभक्त सिर झुकाए हुए आगे खड़े थे उन्हें देखकर गुरु साहिब के मुखारविंद से आशीर्वचन बरसने लगे, ये मेरे पांच प्यारे है, इन्हे वहीं लिबास पहनाओ , जो मैं धारण करता हूं वही शस्त्र थमाओ जो मैंने थामा हुआ है, आज से इनके वचन मेरे वचन ही मानना क्यों कि ये जो भी कहेंगे या करेंगे उसका आधार मेरी ही प्रेरणा होगी, मैं ही इनके भीतर निवास करके सब कुछ करूंगा और कहूंगा।

खालसा मेरो रूप है खास खालसा महि हउ करहूं निवास।

श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने इन पंच प्यारो को साक्षात अपना ही रूप बना लिया, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उन्हें केवल अपने समान वेश प्रदान किया, खालसा होना केवल मात्र वेश या वस्त्र परिवर्तन नहीं था, खालसा आंतरिक अवस्था है, सतगुरु से पूर्ण एकात्मता है, ब्रह्म ज्योति से जुड़कर खालिस अर्थात परम शुद्ध हो जाना है स्वयं दशम पातशाही ही खालसा पंथ के संस्थापक ने यही उदघोष किया था जो आज स्वर्णिम इतिहास मे वर्णन है,

जाग्रत ज्योत जपे नित बासुर

एक बिना मन नेक न आने

पूर्ण ज्योत जगे घट मे

तब खालस ताहि ना खलास जानू।

अर्थात वही खालसा है जो हृदयान्चल मे नित्य प्रज्वलित ईश्वरीय ज्योति के ध्यान से निरंतर जुड़ा है, इस पूर्ण ज्योति के ध्यान से परम शुभ्रता को पा चुका है, सतगुरु से एकिक्रत हो गया है, ऐसे ही खलसो को संगठित कर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का गठन किया था, वह पंथ जो भावी समय मे ऐसा जुझारू तूफान बना जिसने असत्य की ईट से ईट बजा दी अन्याय और अत्याचार के पैर उखाड़ दिए तो सच मे भारत की महानता के पीछे ऐसे सतगुरुओं की बहुत बड़ी कृपा है उनकी अनुकंपा है।

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