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अपनी पकड़ ही दुःख देती है


जैसे एक आदमी स्वप्न देखता है तो उसके स्वप्ने में दूसरा आदमी प्रविष्ट नही होता है।उसके स्वप्ने में दूसरा आदमी तब प्रविष्ट होता है जब दोनों के सुने हुए संस्कार एक जैसे हो। ठीक,मूर्ख आदमियों के साथ हम लोग जीते है, संसार के दल-दल में फँसे हुए पैसों के गुलाम,इन्द्रियों के गुलाम…लोगों के बीच यदि साधक भी जाता है तो साधक भी सोचता है कि चलो थोड़ी ???      कर ही ले,थोड़ी थप्पी तो बना ही ले !Sindhiतो मोह के दल-दल में आदमी फँस जाता है। कीचड़ में फँसे हुए व्यक्ति के साथ यदि तुम तादात्म्य करते हो तो तुम्हारा …तुम क्या…’ये डूबे हुए है,अपने नही डूबेंगे!’… अपने नही डूबेंगे कहते भी जाते है और डूबते भी जाते है।क्योंकि बुद्धि में एक ऐसा विचित्र भ्रम हो जाता है…ऐसा भ्रम जैसे तैसे साधक को तो नही अर्जुन जैसे को हो गया। अर्जुन को साक्षात्कार नही हुआ और अर्जुन बोलता है कि भगवान तुम्हारे प्रसाद से मैं अब ठीक हो गया हूँ, मैं सब समझ गया हूँ। कृष्ण बोलते है-“अच्छा ठीक है, समझ रहा है तभी भी दुःखी-सुखी होता है, मोह ममता है!” ११वे अध्याय में कहा अर्जुन ने कि मेरे को ज्ञान हो गया है।११वे अध्याय में उसको महसूस हुआ कि मैं सब समझ गया!अब मेरा मोह नष्ट हो गया। फिर होते-होते ७अध्याय और चले। उसको पता ही नही कि साक्षात्कार क्या होता है!तो एक तुष्टि नाम की भूमिका आती है जो जीव का स्वभाव होता है। जीव में थोडासा शांति, थोडासा हर्ष,थोडासा सामर्थ्य आ जाता है तो समझ लेता है कि मैंने बहुत कुछ पा लिया है।जरासा आभास होता है, झलक आती है उसीको लोग साक्षात्कार मान लेते है।बुद्धिव्र्यति-तरिष्यति तदा गतासि निर्वेदंश्रुतव्यस्य  श्रुतव्यस्य च…जब मोह शरीर को बुद्धि पार हो जाएगी तब तुमने सुना हुआ और देखा हुआ उस सबसे तुम्हारा वैराग्य हो जाएगा। इंद्र आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए, कुबेर तुम्हारे लिए खजाने की चाबियाँ हाथ में लिए खड़ा हो,ब्रम्हाजी करमण्डल हाथ में लिए खड़ा होके कहे’ चलिए ब्रह्मपुरी का सुख भोगिए’, फिर भी तुम्हारे चित्त में उन पदार्थों का आकर्षण नही होगा तब समझ लेना कि साक्षात्कार हो गया!बच का खेल नही मैदान-ए-महोब्बत…किसी सूफी फकीर का वचन है…बच का खेल नही मैदान-ए-महोब्बतयहाँ जो भी आया सिर पे कफ़न बाँधकर आया!

जीव का स्वभाव है भोग, शिव का स्वभाव भोग नही है। जीव का स्वभाव है भोग,जीव का स्वभाव है वासना,जीव का स्वभाव है सुख के लिए दौड़ना। ब्रह्माजी आएँगे तो सुख देने की तो बात करेंगे न!तो सुख के लिए यदि आप भागते है तो पता चल गया कि सुख का दर्या अभी तुम्हारे हृदय में पूरा उमड़ा नही है!सुख की कमी होगी तभी आप कहीं सुख लेने को जाएँगे। तो सुख लेना जीव का स्वभाव होता है। साक्षात्कार के बाद जीव बाधित हो जाता है,जीव नही रहता है, जीव का जीवपना उड़ जाता है और वो शिवत्व में प्रगट होता है। जैसे कामदेव कितने भी नखरे करने लगा रति के साथ, शिवजी को प्रभावित न कर सका। क्योंकि शिव इतने आत्मरामी है,शिव के अंदर इतना आत्मानंद है कि काम का सुख अति तुच्छ है,अति नीचा है। तो शिव इम्प्रेस नही हुए,शिव प्रभावित नही हुए! योगी लोग,संत लोग जब साधना करते है तो अप्सराएँ आती है, नखरे करती है। तो जो अप्सराओं के नखरों में आक्रांत हो जाते है वे आत्मनिष्ठा नही पा सकते है,वे आत्मा के खजाने को नही पा सकते। इसीलिए साधकों को चेतावनी दी जाती है कि किसी रिद्धि-सिद्धि में ,किसी प्रलोभन में मत फँसना।

आप मन का और इन्द्रियों का थोड़ा संयम करेंगे तो तुम्हारी वाणी में सामर्थ्य आ जाएगा, तुम्हारे संकल्प में बल आ जाएगा, तुम्हारे द्वारा चमत्कार होने लगेंगे। लेकिन चमत्कार होना ये साक्षात्कार नही है। चमत्कार होना शरीर और इंद्रियों के संयम का फल है। साक्षात्कारवाले के द्वारा भी चमत्कार हो जाते है लेकिन साक्षात्कारवाले महापुरुष चमत्कार करते नही है हो जाते है!और हो भी गए तो उनको कोई बड़ी बात नही लगती! जैसे कबीर के द्वारा कुछ हो गया, नानक के द्वारा कुछ हो गया, शंकराचार्य के द्वारा कुछ हो गया,लीलाशाहबापू के द्वारा कुछ हो गया,कोई बड़ी बात नही! हम लोग बड़े प्रभावित हो जाते थे कि बापू ने ऐसा कर दिया,बापू ने ऐसा कर दिया! और होता था कि हम ऐसे कैसे बनेंगे?जैसा बापू में सामर्थ्य है ऐसा हम में कब आएगा? बाद में पता चला कि अरे!ये सामर्थ्य भी इच्छा शक्ति का एक हिस्सा ही है। जो तुम संकल्प करते हो उस संकल्प को तुम डंटे रहो। जो तुम एक विचार करते हो उस विचार को कांटने का विचार न उठने दो तो तुम्हारे विचार में बल आ जाएगा।

तुम्हारा विचार हुआ, अब अमुक आदमी के बारे में तुमने सुना कि फलाना मित्र बीमार है…अब तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध है…तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध दो किसम से होता है- शरीर को, इंद्रियों को संयत करके तुमने जप,तप,मौन, एकाग्रता की तो तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध हुआ। लेकिन ये आखिरी नही है।शुद्ध अंतःकरण अशुद्ध भी हो सकता है। हृदय आपका स्थिर है तो दूसरे की चित्त वृत्तिओं के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये कोई बडी बात नही है। अपन लोगों को चमत्कार लगता है। संतों को कोई चमत्कार नही लगता है।तुम्हारा बुद्धि स्थिर है तो दूसरे के जो आंदोलन है,दूसरे के जो श्वास है…जैसे तुम्हारे मशीन के नंबर ठीक है तो टी.व्ही. के वेव्ज झेल लेगी, तुम्हारे रेडियो के बैंड अनुकूल है तो वेव्ज का पता चल जाता है और गाना सब सुनाई पड़ता है। ऐसे ही तुम्हारा अंतःकरण यदि शांत होता है,बुद्धि स्थिर होती है तो घटित घटना या घट रही है वो घटना या घटनेवाली घटना का पता चल जाता है। यही कारण है कि वाल्मिकी ऋषि ने सौ साल पहले रामायण रच लिया..कोई राम को या विष्णु को पूछने नही गए थे तुम क्या क्या करोगे! अथवा किसी ज्योतिष का हिसाब लगाने को नही गए थे! उनकी बुद्धि इतनी शुद्ध होती है कि भूत और भावी दोनों कल्पनाओं में नही रहती, वर्तमान में..और ज्ञानी के लिए सदा वर्तमान रहता है इसलिए भूत भविष्य की खबर उनको पड़ जाती है, बुद्धि उनकी विचलित नही होती, चलित नही होती ।

तो एकाग्रता सब तपस्याओं का माय-बाप है।भक्त परंपरा के पूज्यपाद माधवाचार्य भक्त परंपरा में प्रसिद्ध संत हो गए, आचार्य  हो गए। माधवाचार्य ने कहा कि ‘हे प्रभु! हम तेरे प्यार में अब इतने मौन हो गए है कि अब हमसे न यज्ञ होता है , न तीर्थ होता है, न तर्पण होती है, न संध्या होती है, न मृगशाला दिखती है, न माला घूमती है! अब तो हम तेरे प्यार में ही बिक गए!’जब प्रेमा-भक्ति प्रगट होने लगती है और संसार का मोह, कुटुंबियों का,समाज का      मोह तो हट जाता है लेकिन फिर ये कर्मकांड का मोह भी टूट जाता है। कर्मकांड का मोह तबतक है जबतक देह में आत्मबुद्धि है, जबतक संसार में आसक्ति है तबतक कर्मकांड में प्रीति है। संसार की आसक्ति हट जाए, कृष्ण में प्रेम हो जाए… कृष्ण का अर्थ है आत्मा,राम का अर्थ है जो रम रहा है सबमें चैतन्य…उस परमात्मा में यदि प्रेम हो जाए तो फिर कर्मकांड की नीची साधना करने को जी नही करता है।एकाग्रता तो ठीक है लेकिन एकाग्रता का उपयोग यदि संसार है, एकाग्रता का उपयोग यदि भोग है ,तो वह एकाग्रता मार डालती है। एकाग्रता का उपयोग ‘परमात्मा एक है’ उसमें होना चाहिए। रुपया तो है, रुपया कोई पाप नही ,लेकिन रुपयों से भोग भोगना पाप है। सत्ता कोई पाप नही लेकिन सत्ता से अहंकार बढ़ाना पाप है। अकल होना कोई पाप नही लेकिन अकल से दूसरों को गिराना और अपने को अहंकार से पोषित करना ये पाप है। जो कुछ चीजें है..कईं लोग परेशान है और धार्मिक लोग तो दुःखी रहते हैं , मूढ़ लोग पामर लोग परेशान है कोई आश्चर्य नही लेकिन भगत भी परेशान है! भगत को ऐसा है कि मेरा मन शांत हो जाए,मेरी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाए ! भैया! मन शांत हो जाएगा, इंद्रियाँ स्थिर हो जाएगी तो राम राम सत ही हो जाएगा! मन और तन का तो स्वभाव है हरकत करना …मन और तन का स्वभाव है,इंद्रियों का स्वभाव है चेष्टा करना ! लेकिन सुयोग्य चेष्टा हो। मन का स्वभाव है संकल्प-विकल्प करना लेकिन संकल्प ऐसे करे कि जिन संकल्पों से इसके बंधन कटे! बुद्धि का स्वभाव है निर्णय-अनिर्णय करना ..लोग बोलते है-मैं शांत हो जाऊँ, पत्थर की तरह मेरा ध्यान लग जाए, समाधि लग जाए। जिनका ध्यान लगता है वे भी परेशान है और जिनका ध्यान नही लगता है वे भी परेशान है!जो ध्यान के रास्ते पर नही आए वो तो परेशान है कि उनकी पल-पल में वृत्तियाँ उद्विग्न होती है, रजो-तमो गुण बढ़ जाता है। जिनको थोड़ा बहुत ध्यान में रुचि है और ध्यान नही लगता वो परेशान है और जिनका थोड़ा बहुत लगता है वे भी परेशान है कि ज्यादा लगे। ज्यादा लगने को वो ऐसा समझते है कि ऐसा ध्यान लगे कि बस अपने बैठे रहे ,कोई पता न चले ! योग में बताया गया है – चित्त की अवस्था होती है..क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, निरुद्ध और एकाग्र। तो सदा एकाग्र चित्त नही रह सकता क्योंकि चित्त भी प्रकृति का बना है। सदा निरुद्ध भी नही रह सकता है, सदा मूढ़ भी नही रह सकता है, सदा विक्षिप्त भी नही रह सकता, सदा एकाग्र भी नही रह सकता, और सदा चंचल भी नही रह सकता है.. कितना भी चंचल व्यक्ति रात को देखो शांत हो जाएगा, कितना भी शांत व्यक्ति देखो तो उसे चेष्टा करेगी!  भगवान शंकर जैसी समाधि तो किसीकी लगी नही!  फिर भी शंकर उठते है तो डमरू लेके नाँचते है। इतने दिन जो बैठे थे तो नही हिले-चिले थे वो सब कसर निकाल देते है!इतने दिन समाधि में थे नही हिले-जुले थे तो डमरू लेके नाँचे और सब बैठने के दिन बीत गए उनकी कसर निकाल ली! तो शरीर,मन और संसार ये सब चीजें बदलने वाली है, एक जैसी नही रहेगी।

तो जो-जो आदमी ध्यान में, समाधि में एक जैसा रहना चाहता है अथवा जो दुःख में या सुख में पकड़ जिसकी है ..तो दुःख में तो पकड़ ज्यादा नही होती सुख में पकड़ होती है। इसीलिए पकड़ होती है कि बुद्धि का मोह नही गया। तो सुख में यदि पकड़ है, धन में यदि पकड़ है, स्वर्ग में यदि पकड़ है, तो समझो कि बुद्धि का मोह चालू है। ज्ञानी की पकड़ कहीं नही होती इसलिए भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में कृष्ण कहते है- यदाते मोहकलिल बुद्धिव्यतिरिष्यति…मोहकलिल दलदल हैं। दलदल में आदमी थोडासा फँसता है, फिर थोड़ा,-थोड़ा-थोड़ा करते-करते पूरा नाश हो जाता है। पित्वा मोहमय मदिरा संसार भूत्वा उन्मदःतो कहने का तात्पर्य यह है कि दुर्जन तो दुःखी होते ही है लेकिन सज्जन लोग भी परेशान रहते है। एक पिता फर्याद करता है -मैं सवेरे उठता हूँ,मेरे कुटुंब के लोग सवेरे उठते है लेकिन नौ जवान लड़का जो बड़ा है मेरा वो दुष्ट है, वो सवेरे नही उठता है। तो ये मोह है कि मेरा बेटा है इसलिए सवेरे उठे , कईयों के बेटे नही उठते तो दुःख नही होता लेकिन मेरा बेटा है तो मैं जैसा धार्मिक हूँ ऐसा बेटा धार्मिक होना चाहिए। तो अपने बेटे में इतनी ममता होने के कारण ही तो दुःख होता है। तो भगवान के जो प्यारे भक्त है, जो भगवान तत्व कुछ समझ बैठे है उनको कोई  आग्रह नही होता है। वो बड़े बेटे को जल्दी उठाने में प्रयत्न तो करते है लेकिन नही उठता है तो चित्त में विक्षिप्त नही होते। Gujaratiकिसीका विरक्तता का प्रधानता का प्रारब्ध होता है, किसीका धन प्रधान प्रारब्ध होता है, किसीका व्यवहार प्रधान प्रारब्ध होता है, किसीका मौन प्रधान प्रारब्ध होता है। तो ज्ञान होने के बाद कोई ध्यान करता है तो Gujaratiलेकिन धार्मिक लोगों को ये चिंता-परेशानी रहती है कि अरे! शुकदेव जी को तो लंगोटी का पता नही चलता था , अब हमारा ध्यान लगता है तो हमारे को तो ऐसा होता है, शुकदेवजी जैसा ध्यान लगे! लेकिन हजारों वर्ष पहले का मनुष्य, हजारों वर्ष पहले का वातावरण और कईं जन्मों के संस्कार थे..उनका ऐसा हुआ..अब उनको लक्ष्य बनाकर तुम चलते तो जाओगे लेकिन अंदर से विक्षिप्त नही होना …नही होता है तो नही होता है लेकिन चित्त को तुम प्रसाद से पूर्ण रखो, हो गया तो भी स्वप्ना और न हुआ तो भी स्वप्ना! जिस परमात्मा में शुकदेवजी होके चले गए, वसिष्ठ होकर चले गए,राम आकर चले गए वो परमात्मा अभी तुम्हारा आत्मा है! इस प्रकार का ज्ञान जबतक नही होता तबतक मोह नही जाता है। 

गुरु में स्थिति करो


चरणदास गुरुकृपा केणी उलट गई मेरी नैन पुतरिया… गुरु की कृपा हुई मेरे नैन, देखने की दृष्टि बदल गई! तन सुकाय पिंजर किये…तुलसीदास ने कहा…धरे रैन दिन ध्यान। तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान ॥तो ज्ञानी गुरु में स्थिती किए बिना , ज्ञानतत्व का विचार किए बिना चाहे सौ साल की समाधि लगा दो…समाधि लगाना अच्छा है, ध्यान करना बहुत अच्छा है बहुत जरूरी है लेकिन ध्यान के साथ अगर स्थिती की तरफ , अविद्या मिटाने की तरफ  दृष्टि महि रही तो वो हाल हो जाएँगे

वसिष्ठ जी बताते हैं कि-एक बहुरूपिया आया राजा दिलीप के पास ..रामजी प्राचीन इतिहास कहता हूँ… इस अयोध्या के प्राचीन काल में तुम्हारे काल के जो दिलीप राजा राज्य करते थे रघुकुल के , दिलीप राजा के पास बहुरूपिया आया। उसने ऐसा रूप बनाया कि दिलीप राजा खुश हो गए,इनाम देना चाहा तो कहने लगा तुम जो देते हो वो इनाम नही जो मुझे चाहिए वो दीजिए….आपकी जो तेज भगनेवाली घोड़ी है न वो मुझे इनाम में दीजिए। अब वो प्यारी घोड़ी थी दिलीप की , दिलीप ने कहा’ये तो नही दूँगा!’ बहुरूपिया ने कहा ‘देखो, फिर मैं दूसरा तुमको एक खेल दिखाता हूँ । तुम मुझे लोहे की संदूक में डाल दो और संदूक को जमीन खोदकर अंदर डाल दो। और मैं समाधि करके बैठूँगा , ६ महीने के बाद तुम जमीन खुदवाना और वो बैग खुदवाना। अगर मैं तुम्हें ६ महीने बिना अन्न जल के एक ही पद्मासन पर बैठा हुआ मिलूँ फिर यो तुम इतना इनाम दे दोगे न? फिर तो घोड़ी दोगे? दिलीप को आश्चर्य हुआ कि ६ महीना बिना अन्न जल और बिना श्वास लिए हुए धरती में गड़ा हुआ आदमी फिर जीवित रहेगा ? बोले- “हाँ!”ऐसा ही किया गया।

६ महीने पूरे हुए। मंत्रीयों ने कहा कि “राजन ! ६ महीने तो हो गए पूरे। उसको निकाला जाए।”बोले-“निकलेंगे..जीवित होगा तो घोड़ी माँगेगा ! वो मुझे देनी नही है ! और मर गया तो फिर से गाड़ना पड़ेगा !अगर मरा मिला तो फिरसे खोद के डालना पड़ेगा! इससे भले रहा!”समय बीतता गया। रघु राजा का राज्य समाप्त हुआ। दूसरे राजाओं का राज्य समाप्त हुआ। रामजी! अब दशरथ नंदन ! अब देखो तुम्हारा राज्य है और वो अब भी वहाँ गड़ा हुआ है। चलो देखते है उसको। खुदवाया..और वो निकाला..तो उसकी जिव्हा तो तालू में थी,प्राण दसवे द्वार चढ़े हुए थे। वसिष्ठ ने सर पे धीरे धीरे थपलियाँ मारी और जीभ नीचे उतारी , तो उसने आँख खोली और पहला उसका वचन था – “लाओ घोड़ी! घोड़ी दे दो, अब तो घोड़ी दे दो! “हे रामजी! वासना लेकर जो बैठा समाधि में, अज्ञान ,अविद्या लेकर…समाधि उठी तो वही अविद्या और वही अज्ञान निकला! गुरुतत्व में स्थिति नही किया न! मैं एकांत में जाकर तप करूँगा…बहुत अच्छी बात है सुंदर बात है लेकिन तप करते हो स्थिती करने के लिए, तप करते हो कुछ बनने के लिए ….कुछ बनने के लिए तप किया तो बिगड़ना भी पड़ेगा! क्योंकि तप का फल जो मिला वो फिर नष्ट हो जाएगा। लेकिन गुरु में स्थिती की तो वो नष्ट होनेवाली चीज नही मिलती! कुर्सी की सत्ता भी नष्ट हो जाती है, शरीर का सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है,पति पत्नी का सबंध भी नष्ट हो जाता है,सेठ नौकर का  सबंध भी नष्ट हो जाता है, और तो क्या कहे भैया! अष्ट सिद्धियों का सामर्थ्य भी नष्ट हो जाता है! इसलिए बुद्धिमान हनुमान जी के अष्ट सिद्धियाँ थी उसमे रुके नही, रामजी की शरण गए और रामजी तत्व में उन्होंने स्थिती की और हनुमानजी धन्य-धन्य हो गए! अष्ट सिद्धि नौ निधियों के धनी, संयम की मूर्ति, बुद्धिमानों में अग्र ! फिर भी जबतक श्रीराम तत्व में, गुरुतत्व में स्थिती नही हुई तबतक वो दास है, सेवक है! तो हमारा लक्ष्य ये होना चाहिए -अपना दोष निकालने में तत्पर,दूसरी बात ..अच्छा! दोष निकालने में एक युक्ति और बता देता हूँ..अपना दोष मैं निकाल रहा हूँ ऐसा करके निकालोगे तो बहुत देर लगेगी और मेहनत होगी और फिर खतरा भी होगा।

देखो सत्संग में कितना आसानी से रस्ता मिल जाता है! अनुभव से जो लोग गुजरे है न बड़े-बुजुर्गों का अनुभव बड़ा काम आता है। अपना दोष निकालने को आप निकालोगे तो देर लगेगी ,अपना दोष समझ के निकालोगे तो देर लगेगी और निकलेगा तब भी खतरा हो सकता है और नही निकलेगा तब भी खतरा हो सकता है!  मेरे में फलाना दोष है और मैं निकाल रहा हूँ ..अगर निकालते-निकालते दोष निकल गया तो “मैं इस बात में निर्दोष हूँ”…ये लोग दारू पीते हैं मैंने छोड़ रखा ह! ये लोग बड़े लोभी है मैंने धन को छूना छोड़ दिया है! ये लोग गृहस्थी कीड़े है, ग्रहस्थ में मर रहे हैं!… हमने तो शादी की और घर छोड़ के चले गए सात साल बाद में थोड़ा बहुत संसार में आए अब फिर हम बिल्कुल .…अगर दोष निकल गया काम दोष,क्रोध दोष , लोभ दोष, शराब का दोष, कोई दोष निकल गया अपने पुरुषार्थ से तो “मैं इस बात में निर्दोष हूँ ” ऐसे लोग मिलेंगे तो अंदर से अहं स्फुरेगा कि ये लोग तो पी रहे है मैंने छोड़ दिया और वो दोष निकालने में महनत होगी। दोष निकालते तभी भी महनत होगी और निकला तभी भी खतरा होगा अहं का! तो महाराज क्या करे दोष पड़ा रहे? ना, कभी नही! दोष निकालेंगे जरूर! लेकिन निकालने की युक्ति समझ लो- ‘दोष मुझमें है ऐसा न सोचो..दोष शरीर में है,दोष बुद्धि में है,दोष मन में है, दोष मेरे संस्कारों में है …इन संस्कारों का दोष निकल रहा है, मैं तो चैतन्य निर्दोष नारायण का सद्गुरु का सनातन पुत्र हूँ!’तो दोष निकालने का अहंकार नही चोटेगा और दोष निकालने में आसानी होगी। नही तो क्या ? नही निकाल सकेंगे तो विषाद होगा और निकल गया तो अहंकार होगा। विफलता में विषाद और सफलता में अहंकार …लेकिन दोष को जहाँ है दोष वहाँ जानना और आपको अपने ईश्वर में अथवा गुरुतत्व में स्थिती करके दोष निकालना बड़ा आसान हो जाएगा। जैसे दूसरे का दोष जल्दी दिखता है, अपना दोष नही दिखता। दूसरे के दोष निकालने के लिए अकल जल्दी काम करती है और अपने दोष निकालने के लिए डबला छाप हो जाती है अकल! वकीलों से पूछ के देखो! अपना नीजी केस वकील नही लड़ेंगे , दूसरा वकील रखेंगे। डॉक्टरों से पूछो- अपना निजी ..कुटुंब की अथवा अपनी नीजी ट्रीटमेंट नही करेंगे, इलाज नही करेंगे, दूसरे से कराएँगे। तो ऐसे ही दोष को मेरे में दोष है समझ के नही ,मन में दोष है ,बुद्धि में दोष है या आदतों में दोष है और उनको निकालो.. अपने को गुरुतत्व में, आत्मतत्त्व में स्थिती कराओ तो दोष निकलने में सफलता हो जाएगी और सफलता का अहंकार नही आएगा! और  कभी थोडी देर के लिए विफलता रही तो आप हार कर , थक कर दीन नही होंगे।ये दोष निकालने की तरकीब सुबह, दोपहर, श्याम जब भी मौका मिले तब अपने दोषों को चुन-चुन के …जैसे पैर में काँटा घुसा है तो निकालते हैं युक्ति से ..दबा के निकालो, सुई से निकालो नही तो फिर छोटे मोटे चिमटे से निकालो..अगर नही निकलता तो गुड़ और नमक या हल्दी मिलाकर उसकी पोटिस बनाकर बांधो, फूलेगा फिर निकलेगा। ऐसे ही फिर कोई नियम की ,व्रत की पोटिस बाँधकर दोष निकालने की  कोशिश करो निकलेगा! तो दोष निकालने में तत्पर! बैठे है…मानो गुरुजी हजार माईल दूर है लेकिन ध्यान के प्रभाव से वो हजार माईल की दूरी नही रहेगी। श्रीकृष्ण को पाँच हजार वर्ष बीत गए लेकिन मीरा इतना तदाकार होती कि पाँच हजार वर्ष की दूरी मीरा के आगे नही रहती! मीरा के आगे तो कृष्ण नाँच रहे है, कृष्ण बंसी बजा रहे है, कृष्ण भोजन कर रहे है! कृष्ण अर्जुन को गीता सुना रहे है! कृष्ण आए तो मीरा हर्षित हो जाती है और आ नही रहे है तो मीरा समझती है- क्या कारण है? मीरा रो रही है! रोना विरह भक्ति होती है और आना हो तो मीरा का प्रसन्नता से मुखड़ा खिलता है तो कभी विरह अग्नि से मीरा का ह्रदय शुद्ध होता है!  आपके पास दो बड़ी भारी योग्यताएँ है.. एक योग्यता है हर्ष और दूसरी योग्यता है विषाद। ईश्वर की स्थिति में, गुरु की स्थिति में अगर स्थिति हो रही है तो हर्ष  करते- करते आनंद उत्सव ..भगवान को गुरुदेव को…मैंने तो गुरुदेव को स्नेह करते हुए बहुत पाया ! गुरुदेव को स्नेह करते- करते मन ही मन गुरुदेव से बात करते- करते हृदय पुलकित होता है, हर्षित होता है और गुरुतत्व की जो प्रेरणा होती है गजब का लाभ होता है! तो हर्ष की सरिता बहाकर आपके कर्मों को और पाप-ताप को, बेवकूफी को बहा दो अथवा तो कभी-कभी विरह की अग्नि जलाकर आपके जीवत्व को अथवा आपके संस्कारों को जल जाने दो। विरह अग्नि से भी तुम्हारे पुराने संस्कार जलते जाएँगे, सिकते जाएँगे…सिकते जाएँगे मतलब जैसे मूँगफली सेंक दी खारी सिंग बन गई, अब वो सिंग खा सकते हो, देख सकते हो , बेच सकते हो लेकिन उसको बो नही सकते, उसकी परंपरा नही बढ़ा सकते..ऐसे ही तुम्हारे जो भी जन्म-जन्मांतर के संस्कार है वो अगर विरह अग्नि में सेंक लिए जाए तो वे संस्कार फिर सत्य बुद्धि से तुम्हारे पास रहेंगे नही और वो दूसरे जन्मों का कारण नही बनेंगे! जैसे सेंका हुआ अनाज नही उगता है ऐसे ही विरह अग्नि में सेंका हुआ चित्त, उसके अंदर पड़े हुए संस्कार वे जन्मों का कारण नही बनते है ! तो गुरु में स्थिति करने से , भगवदतत्व में स्थिति करने से अंतःकरण सिक जाएगा, विरह अग्नि में बाधित हो जाएगा !

ईश्वर व गुरु के कार्य में मतभेदों को आग लगाओ


● अगर चित्र में संदेह होगा तो गुरुकृपा के प्रभाव का तुम पूरा फायदा नहीं उठा पाओगे। तुम्हें भले चारों तरफ से असफलता लगती हो लेकिन गुरु ने कहा कि ‘जाओ, हो जायेगा’ तो यह असफलता सफलता में बदल जायेगी। तुम्हारे हृदय से हुंकार आता है कि ‘मैं सफल हो ही जाऊँगा !’ तो भले तुम्हारे सामने बड़े-बड़े पहाड़ दिखते हों लेकिन उनमें से रास्ता निकल आयेगा। पहाड़ों को हटना पड़ेगा अगर तुम्हारे में अटूट श्रद्धा है। विघ्नों को हट जाना पड़ेगा अगर तुम्हारा निश्चय पक्का है। डगमगाहट नहीं…. ‘हम नहीं कर सकते, अनाथ हैं, हम गरीब हैं, अनपढ़ हैं, कम पढ़े हैं, अयोग्य हैं…. क्या करें ?’ अरे, तीसरी से भी कम पढ़े हो क्या ? मन-इन्द्रियों में घूमने वाले लोगों का संकल्प साधक के संकल्प के आगे क्या मायना रखता है ! ‘यह काम मुश्किल है, यह मुश्किल है….’ मुश्किल कुछ नहीं है। जगत नियंता का सामर्थ्य तुम्हारे साथ है, परमात्मा तुम्हारे साथ है। मुश्किल को मुश्किल में डाल दो कि वह आये ही नहीं तुम्हारे पास ! Nothing is impossible, everything is possible, असम्भव कुछ भी नहीं है, सब सम्भव है।

● जा के मन में खटक है, वही अटक रहा। जा के मन में खटक नहीं, वा को अटक कहाँ।।

● विश्वासो फलदायकः। इसलिए अपना विश्वास गलित नहीं करना चाहिए। अपने विश्वास में अश्रद्धा, अविश्वास का घुन नहीं लगाना चाहिए। ‘क्या करें, हम नहीं कर सकते, हमारे से नहीं हो सकता है…’ ‘नहीं कैसे ? गोरखनाथ जी जैसे योगियों के संकल्प से मिट्टी के पुतलों में प्राणों का संचार होकर सेना खड़ी होना यह भी तो अंतःकरण का संकल्प है ! तो तुम्हारे पास अंतःकरण और परमात्मा उतने का उतना है। नहीं कैसे हो सकता ? एक में एक मिलाने पर दुगनी नहीं ग्यारह गुनी शक्ति होती है। तीन एक मिलते हैं तो 111 हो जाता है, बल बढ़ जाता है। ऐसे ही दो-तीन-चार व्यक्ति संस्था में मजबूत होते हैं सजातीय विचार के, तो संस्था की कितनी शक्ति होती है ! देश के बिखरे-बिखरे लोग 125 करोड़ हैं लेकिन मुट्ठीभर लोग एक पार्टी के झंडे के नीचे एक सिद्धांत पर आ जाते हैं तो 125 करोड़ लोगों के अगुआ, मुखिया हो जाते हैं, हुकूमत चलाते हैं। एकदम सीधी बात है। साधक-साधक सजातीय विचार के हों, ‘यह ऐसा, वह ऐसा…..’ नहीं। भगवान के रास्ते का, ईश्वर की तरफ ले जाने वाले रास्ते का स्वयं फायदा ले के लोगों तक भी यह पहुँचाना है तो एकत्र हो गये। वे बिल्कुल नासमझ हैं जो आपसी मतभेद के कारण व्यर्थ में ही एक दूसरे की टाँग खींचकर सेवाकार्य में बाधा डालने का पाप करते हैं। कितने भी आपस में मतभेद हों लेकिन ईश्वरीय कार्य में, गुरु के कार्य में मतभेदों को आग लगाओ, आपका बल बढ़ जायेगा, शक्ति बढ़ जायेगी, समाज-सेवा की क्षमताएँ बढ़ जायेंगी। ॐ….ॐ…ॐ… – पूज्य बापू जी

● स्रोत ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2018, पृष्ठ संख्या 2, अंक 310