आचार्य से प्राप्त की हुई सेवा से तीक्ष्ण बनी हुई ज्ञानरूपी तलवार एवं ध्यान की सहायता से शिष्य मन, वचन , प्राण और देह के अहंकार को काट देता है। तथा सब राग-द्वेष से मुक्त होकर इस संसार में स्वेच्छापूर्वक विहार करता है।
तीव्र गुरुभक्ति के शक्तिशाली शास्त्र से मन को दूषित करनेवाली आसक्ति को मूलसहित काट न दिया जाय तबतक विषयों का संग त्याग देना चाहिए। गुरु का आश्रय लेकर जो योग का अभ्यास करता है, वह विविध अवरोधों से पीछे नहीं हटता। जो अपने गुरु के चरणों की पूजा निरपेक्ष भक्तिभावपूर्वक करता है, उसे गुरूकृपा सीधी प्राप्त होती है।
सिद्धों और संतो के बीच बाबा किन्नाराम का नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है। बाबा किन्नाराम का ज्यादातर समय काशी में बीता। वह अघोर तंत्र के महान सिद्ध हो गये। उनके चमत्कारों और अतिप्राकृत रहस्यों के बारे में ढेरो किवदंतियाँ कहि-सुनी जाती हैं। बाबा किन्नाराम उत्तरप्रदेश राज्य के गाजीपुर के रहनेवाले थे। उनमें जन्म-जन्मांतर के साधना संस्कार बीजरूप में पड़े थे।
विवेकसार ग्रन्थ में उनकी जीवनकथा विस्तार से वर्णित है। उसमें लिखा है कि जब वह जूनागढ़ के परमसिद्ध पीठ गिरनार गये तो उन्हें स्वयं भगवान दत्तात्रय ने दर्शन दिये और उन्होंने किन्नाराम को एक कुबड़ी देते हुए कहा कि जहाँ यह कुबड़ी तुमसे कोई लेले वही तुम स्थायी रूप से रहना तथा उन्हीं को अपना गुरु बनाना।
इसीके साथ भगवान दत्तात्रेय जी ने उन्हें स्कंद पुराण में वर्णित महामंत्रो के रहस्यों को समझाते हुए उनको गुरूमहिमा के बारे में भी बताया कि-
तस्से दिशे सतत मंजली रेष आरिये।
प्रक्षिप्यते मुखरितो मधु पैर बुधेश्च।
जागृति यत्र भगवान गुरु चक्रवर्ती।
विश्वोदय प्रलय नाटक नित्य साक्षी।
अर्थात गुरुदेव सृष्टि में चल रहे उत्पत्ति एवं प्रलयरूप नाटक के नित्य साक्षी है। वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के चक्रवर्ती स्वामी है। ऐसे गुरुदेव भगवान जिस दिशा में विराजते हो, उसी दिशा में विद्वान शिष्य को मन्त्रोच्चारपूर्वक सुगंधित पुष्पों की अंजली समर्पित करनी चाहिए।
श्रीनाथादी गुरु त्रयं
गणपति बिठत्रयं भैरवं।
सिद्धोघम बटुक त्रयम
पदयुगम धृतिघम मंडलम ।।
श्रीगुरुदेव ही परमगुरु एवं परात्पर गुरु है। उनमें तीनो नाथ गुरु आदिनाथ, मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ समाये है। उन्हीं में भगवान गणपति का वास है। उन परम प्रभु में तंत्र साधना के तीनों रहस्यमयी पीठ ,कामरूप पूर्णगिरी एवं जालन्धरपीठ स्थित है। मन्मत आदि अष्टभैरव, सभी महासिद्धियों के समूह,तंत्रसाधना में सर्वोच्च कहा जानेवाला बिरंचि चक्र गुरुदेव में ही है।
स्कंदादि बटुकत्रय यौन्याम बादे ।
दुतिमण्डल, अग्निमण्डल सूर्यमण्डल, सोममण्डल, आदिमण्डल प्रकाश और विमर्श के युगल पद के रहस्य गुरुदेव में ही है।
विरान द्वयेष्ट चतुष्क षष्टी
नवकं विरावली पंचकम।
श्रीमन मनालिनी मंत्रराजसहितम
वंदे गुरूमण्डलम।।
दशवीर, 64 योगिनियाँ, नवमुद्रायै ,पंचवीर तथा अशिक्षा तक सभी मातृकायै एवं मालिनी यंत्र गुरुदेव के चेतना मंडल में ही स्थित है। सभी गुरुतत्वों से युक्त गुरूमण्डल को मेरा बारंबार प्रणाम है। इस प्रकार
दत्तात्रेय जी ने किन्नाराम जी को गुरु की महिमा से अवगत कराया।
गुरु की महिमा को हृदय में धारण करते हुए
किन्नाराम जी जब काशी पहुंचे, तो वहाँ हरिश्चंद्र घाट पर बाबा कालूराम से उनकी भेंट हुई। पहली भेंट में संत कालूराम ने उनकी तरह-2 से अनेकों परीक्षायें ली। बड़ी कठिन और रहस्यमय परीक्षाओं के बाद वह किन्नाराम जी को अपना शिष्य बनाने को तैयार हुए।
किन्नाराम जी बड़े ही प्रसन्न हुए कि उन्हें गुरु की प्राप्ति हुई। शिष्य बनने के बाद तंत्रसाधना का एक परम दुर्लभ एवं अति रहस्यमय अनुष्ठान किया जाना होता है। इस अनुष्ठान के लिए कई तरह की तंत्र सामग्री आवश्यक होती है।
जिन्हें साधना का थोड़ा भी ज्ञान है, वे जानते हैं कि तंत्रसाधना में उपयोग की जानेवाली सामग्री बड़ी दुर्लभ होती है। अब प्रश्न यह था कि, यह सामग्री कहा से लायी जाये?
उस समय किन्नाराम जी के पास ऐसी कोई व्यवस्था न थी कि वे सामग्री एकत्रित कर सके। तंत्र अनुष्ठान के इस श्रृंखला में उन्हें अनेक देवों, योगिनियों को संतुष्ट करना था। यह एकसाथ सब कैसे हो? इन प्रश्नों ने किन्नाराम को आकुल कर दिया।
शिष्य की चिंता से शिष्यवत्सल गुरुदेव कालूराम द्रवित हो उठे। उन्होंने कहा, “चिंता किस बात की रे! मैं हूँ ना! तू मेरी ओर देख, मुझमें देख।”
उनके इस तरह कहने पर बाबा किन्नाराम को दत्तात्रेय जी के गुरूमहिमा विषयक वचन स्मरण हो आये और उन्होंने अपने गुरुदेव की ओर खूब श्रद्धा और भक्तिपूर्वक निहारा।
आश्चर्य! परम आश्चर्य! तंत्र साधना की सभी अधिष्ठात्री देवशक्तियाँ महासिद्ध गुरुदेव में ही विद्यमान दिखने लगी । सभी तंत्रपीठ गुरुदेव में ही समाहित थे, ऐसा नजर आने लगा। गुरुदेव सद्गुरु चेतना में तंत्र साधना के समस्त तत्व दिखाई दे रहे थे।
शिष्यवत्सल गुरु की यह अद्भुत कृपा देखकर किन्नाराम भक्तिविव्हल हो गए और गुरुकृपा ही केवलम… कहते हुए अपने गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। फिर किन्नाराम जी को अलग से मंत्र और तंत्र की सिद्धि हेतु कोई विशेष साधना नहीं करनी पड़ी। अपने सद्गुरु के पूजन से ही उन्हें तंत्र की समस्त शक्तियाँ, सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो गई।
गुरु में निष्ठा और गुरुकृपा ने उन्हें अघोर तंत्र का महासिद्ध बना दिया। सद्गुरु में निष्ठा का ही प्रताप था कि लोगों में यह कहावत प्रचलित हो गई कि जो न करे राम, वो करे किन्नाराम।