पूर्णता किससे – कर्मकाण्ड, योग या तत्त्वज्ञान से ? – पूज्य बापू जी

पूर्णता किससे – कर्मकाण्ड, योग या तत्त्वज्ञान से ? – पूज्य बापू जी


भगवान वेदव्यासजी के शिष्य थे जैमिनी । जैमिनी न  अपने शिष्य को कर्मकाण्ड, यज्ञ-याग सिखाया और कहाः “वत्स ! अब तू स्वर्ग का अधिकारी हो गया ।”

यज्ञ, जप-तप करने से बुद्धि पवित्र होती है ।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिनाम् ।।

‘यज्ञ, दान और तप – ये बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने  वाले हैं ।’ (गीताः 18.5)

शिष्य बोलाः “गुरु जी ! स्वर्ग का अधिकारी तो हो गया लेकिन स्वर्ग का सुख भोगेंगे तो जैसे जब तक धन है तब तक तो भोग-सुविधायुक्त अट्टालिका (जैसे – आज के फाइव स्टार होटल) में रखेंगे और जब धन समाप्त होगा तो फिर बाहर निकाल देंगे, ऐसे ही जब तक पुण्य है तब तक तो स्वर्ग में रहेंगे पर पुण्य नष्ट होते ही वहाँ से गिरा दिये जायेंगे तो फिर दुःख होगा । किसी के गर्भ में जायेंगे, गर्भ नहीं मिलेगा तो नाली में बहना पड़ेगा । इसलिए गुरुवर ! ऐसा कोई ज्ञान, ऐसा कोई मार्ग बताओ जिस इस दुर्गति के चक्र से बचा जा सके ।”

गुरु ने कहाः “हाँ बेटा ! तुमने बिल्कुल ठीक कहा । हमारे कर्म से जो कुछ मिलता है उसकी खोट तुम समझ गये हो । इसलिए तुमको वैराग्य हो गया है । अब यह कर्म का साधन तुम्हारे लिए नहीं है । अब तुम पतंजलि के पास जाओ और वहाँ जाकर समाधि लगाओ ।

पतंजलि ऋषि ने प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि तक की कला सिखायी । सविकल्प समाधि….. बड़ा आनंद, बड़ी शांति…. भूख-प्यास को जीत लिया, शरीर स्वस्थ… यह सब होने के बाद निर्विकल्प समाधि में पहुँचे, काफी समय निर्विकल्प आनंद में रहे । जब समाधि टूटी तो प्रकाश हुआः “पतंजलि महाराज ! आपकी कृपा से समाधि  तक मैं पहुँचा, अष्टसिद्धि, नवनिधियों तक तो पहुँचा पर अष्टसिद्धि, नवनिधि हनुमान जी के पास भी थी । फिर भी जो वस्तु पाने के लिए हनुमान जी श्रीरामजी के पास गये थे, ऐसी वस्तु जो कभी न छूटे…. पतंजलि प्रभु ! मुझे वह वस्तु चाहिए । जो बाहर से मिलेगी वह छूटेगी । जो पहले थी, अभी है और बाद में भी रहेगी, मुझे उसका ज्ञान चाहिए, उसमें स्थिति चाहिए !”

पतंजलि महाराज बड़े प्रसन्न हुए, बोलेः “बेटा ! अब हमसे तुम्हारा काम नहीं चलेगा । अब तुम भगवान वेदव्यास जी के पास जाओ ।”

वेदव्यासजी इतनी ऊँची कोटि के संत थे ! उन्होंने तत्त्वज्ञान देकर जैमिनी के शिष्य का अविद्याजन्य आवरण, जिसके प्रभाव से जो विद्यमान है वह नहीं दिखता और जो विद्यमान नहीं है वह दिख रहा है, वह हटा दिया ।

व्यासजी को देवताओं ने, ऋषियों ने प्रार्थना कीः “भगवान तो कर्मबंधन से भेजते हैं किंतु गुरुदेव कर्मबंधन काट के भगवद्-तत्त्व में स्थित कर देते हैं तो कोई ‘गुरु-दिवस’, ‘गुरुपूजन दिवस’ भी होना चाहिए ।” तो गुरु दिवस, गुरुपूजन दिवस आषाढ़ी पूर्णिमा तय हुआ लेकिन फिर उन्होंने कहाः “हम आपका पूजन कहाँ करने आयें ?” तो विशालहृदय व्यास जी कहते हैं कि “जहाँ भी वैदिक ज्ञान, ब्रह्मविद्या का प्रसाद देने वाले सत्पुरुष हैं उनके पूजन में मैं अपना पूजन मान लेता हूँ, उनके आदर में मैं अपना आदर मान लेता हूँ और उनके अनादर में मेरा अपना अनादर मान लेता हूँ ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 24 अंक 330

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