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अदम्य साहस व समर्पण की अद्भुत कथा….(भाग-2)


कल हम ने सुना श्रावस्ती नगरी अकाल से ग्रसित थी। समाज की पीड़ा देखकर महात्मा बुद्ध ने अपनी सभा में मुक्त आह्वान किया कि जो भी धन से सेवा करना चाहते हो वो आगे आये और इस सेवा को शिरोधार्य करे । दो – तीन बार आह्वान के बाद भी नगर के कई श्रीमंत बहाने बना बैठे और कई श्रीमंत दुसरो के पिछे अपने सिर झुकाके छुप कर बैठ गए कि कहीं महात्मा बुद्ध की दृष्टि उनपर न पड़ जाए और उन्हें न कह दे ।

महात्मा बुद्ध ने यह देख, फिर से  अपने गुरुता से भरे स्वर से आह्वान किया । तभी एक छोटी सी बालिका अपने स्थान से उठी और दृढ़ता से बोली , भगवन ! आप की यह सेविका आप की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्तुत है । जन सेवा में यदि प्राण भी न्योछावर करना पड़े तो आप की कृपा से पिछे नही हटूँगी ।यह तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होगी ।मुझे आज्ञा दीजिए। प्रभू ! मुझे आज्ञा दीजिए ।

उस नन्ही सी बालिका का नाम था ,सुप्रिया । सुप्रिया के पिता का नाम था अनाथ पिंडक । सुप्रिया के पिता श्रावस्ती के एक नामचिन धनाढ्य थे । कन्या का लालन पालन बड़े ही लाड़ प्यार से हुआ था । उस कन्या मे अपूर्व प्रतिभा थी । सात वर्ष की अवस्था में ही वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हुई थी ।

सुप्रिया के यह दृढ़ वचन सुनकर उपस्थित जन आवक रह गए ।उस छोटी सी देह के भीतर गुरु आज्ञा को पूर्ण करने का जो अदभूत जोश और उत्साह था वे सब उससे बिल्कुल अछूते थे ।तभी तो कईयों के चेहरे पर कटाक्ष पूर्ण मुस्कान छा गई । सारी सभा में फुस फुसाहट होने लगी गई । परंतु महात्मा बुद्ध सुप्रिया को देखते ही उनका चेहरा शांत ,शीतल और सौम्य हो गया ।आँखों में करुणा और होठो पे मधुर मुस्कान फैल गई। मिश्री सी मिठास घुली थी उनकी वाणी में जब उन्होंने कहा, कि बालिके तुम इतने जन समूह की क्षुधा अग्नि को कैसे शांत करोगी ??

सुप्रिया ने अपना भिक्षा पात्र बुद्ध के आगे कर दिया ।गुरुदेव ! जब तक इस तन मे एक भी श्वास बाकी रहेगी तब तक आप की यह शिष्या चैन से नही बैठेगी ।मै गली गली में जाऊंगी , द्वार द्वार पर अलख जगाऊंगी ।मुझे पूरा विश्वास है कि आप की कृपा से मेरा यह भिक्षा पात्र सदैव भरा रहेगा और इसी के द्वारा मै भुख से तड़पते लोगों के जीवन की रक्षा कर पाऊंगी ।

गुरुदेव श्रावस्ती जल्दी ही अपनी पूर्व आभा को प्राप्त कर लेगी । मुझे पूर्ण विश्वास है स्वयं पर नही बल्कि आप पर ।आप की आज्ञा पर । कन्या की दृढ़ता देखकर महात्मा बुद्ध ने भी अपने दोनों हाथ आशीर्वाद के मुद्रा में उठाते हुए कहे , तथास्तु !!

सुप्रिया ने गुरुदेव को प्रणाम किया और सभा विसर्जित हो गई ।बस अब क्या था , सुप्रिया को एक ऐसा लक्ष्य साधना था जो असंभव भी था और संभव भी ।सांसारिक दृष्टि कोण से सांसारिक व्यक्तियों के लिए बिल्कुल असंभव । परंतु गुरु भक्ति में रची बसी गुरु सेवा में निकली साधिका के लिए सहज संभव ।

सुप्रिया ने अपना भिक्षा पात्र उठाया तथागत को मन ही मन प्रणाम किया और निकल पड़ी नगरी की ओर । श्रावस्ती मे यह बात जंगल में लगी आग की तरह फैल गई के करोड़ पति सेठ अनाथ पिंडक की कन्या सुप्रिया ने अपने भिक्षा पात्र से श्रावस्ती के दुःख दूरभिक्ष को दूर करने का प्रण लिया है ।

नगर वासियों का हृदय करुणा से पिघल गया । वृद्ध जनों ने नन्ही सी सुप्रिया पर मन ही मन सैकड़ो आशिष लुटा दिए ।सुप्रिया गली गली में जाती हर द्वार पर “भिक्षां देहि ” की अलख जगाती ।सुबह से शाम तक भिक्षातं करती और फिर जो भी अन्न प्राप्त होता उससे कितने ही लोगों के प्राण बचाती ।

गरीब, असहाय और भुख से व्याकुल लोग जब अन्न ग्रहण करते तो उनके चेहरे पर संतोष और शांति के भाव साफ साफ प्रकट हो जाते ।उन गरीबो के चेहरो पर शांति , संतोष व मुस्कान देखकर सुप्रिया को बड़ा ही आत्म संतोष होता ।उसे यह आभास होता कि गुरुदेव की प्रसन्नता इनके चेहरे पर दिख रही है और वही प्रसन्नता मेरे भीतर फुट रही है ।

सुप्रिया इन्हीं को गुरुदेव का प्रसाद समझकर ग्रहण करती और खुद को धन्य धन्य महसूस करती ।ऐसा करते करते कुछ ही समय में सुप्रिया की गुरु भक्ति और गुरु सेवा, गुरु भाव, सेवा भाव का आभा मंडल कुछ ऐसा फैला कि श्रावस्ती के धन, कुबेर, श्रीमंतों में भी दया का भाव जाग उठा । उन्होंने एक जुट होकर एक व्रत लिया कि चाहे जो भी हो सुप्रिया का भिक्षा पात्र कभी खाली नहीं रहना चाहिए ।

बस अब तो सुप्रिया जहाँ निकल जाती , जिस ओर मुड़ जाती वहीं पर क्रांति की लहर उठ पड़ती । बड़े-बड़े धनाढ्य सेठ उसे खुद बुला – बुलाकर उसका भिक्षा पात्र भर देते ।और ऐसा होता भी क्यों न ?? सुप्रिया कौन सा अकेली थी , उसके साथ गुरु का तेज और उनकी कृपा सदैव साथ चलती थी ।

जहाँ गुरु कृपा उपस्थित हो वहाँ दुनिया खुद चुम्बक की भांति खिंची चली आती । ऐसे में सम्पूर्ण क्रांति का उठना तो स्वाभाविक ही था । आज सुप्रिया के इस पुण्य कार्य में योगदान देने के लिए श्रावस्ती का प्रत्येक धनाढ्य व्यक्ति कटिबद्ध हो गया था ।सब के हृदय में सेवा की भावना ने घर कर लिया था ।देखते ही देखते श्रावस्ती का दुर्भिक्ष दूर हो गया और सुप्रिया का सेवा व्रत गुरु की कृपा से पूर्ण हुआ ।

यूं तो महात्मा बुद्ध के वचनों को वहाँ बैठे सभी धनाढ्य भक्तों ने सुना था, परंतु उनमें से कौन था जो गुरु भक्ति के सही मरमो को समझ पाया ।क्या केवल गुरु का सानिध्य प्राप्त कर लेना ही गुरु भक्ति है या उनसे आशीष वचन को सुन लेना और अपने मनेभावो को उनके समक्ष रख देना ही गुरु भक्ति है या अपनी श्रद्धा और आस्था के पुष्प उनके चरणों में समर्पित कर देना ही गुरु भक्ति है । नही , असली भक्ति तो वह है – जो गुरु के मुख से आज्ञा निकलने से पहले ही उन भाव तरंगों को शिष्य पकड़ सके ।उस आज्ञा को शिरोधार्य कर पुरे प्राण पन से निभाते हुए अपने प्राणों तक को न्योछावर कर देने को तत्तपर हो जाये ।क्योंकि गुरु हमारी काबिलियत को नहीं देखते ।वे देखते हैं तो शिष्य का समर्पण और सेवा भाव ।

जब गुरु आज्ञा को पूर्ण करने के लिए एक छोटी सी लौ भी सेवा में निकल पड़ती है, तो फिर उस पर गुरु कृपा अवश्य काम करती है ।तो हम क्यों न निकले ?? गुरु कृपा उसे विराट, विरात्तर और विरात्तम करते हुए सूर्य का पर्याय बना देती है। परंतु पहला कदम तो हमको ही उठाना पड़ेगा ।

पूरे जोश और जज्बे के साथ स्व कल्याण के लिए हमे ही तत्तपर होना पड़ेगा ।फिर बाकी गुरु करते हैं और उनकी कृपा करती है।

अदम्य साहस व समर्पण की अद्भुत कथा (भाग-1)


जो उच्चतर ज्ञान चित्त में से निस्पन होता है वह विचारों के रूप में नहीं । अपितु शक्ति के रुप मे होता है ।वह ज्ञान गुरु –

शिष्य के प्रति सीधे सीधे संक्रमित करते हैं ।ऐसे गुरु चित्त शक्ति के साथ एक रुप होते हैं ।ईश्वर साक्षात्कार केवल स्व प्रयत्न से ही नहीं हो सकता ।उसके लिए गुरु कृपा अत्यंत आवश्यक है ।गुरु श्रद्धा पर्वतों को हिला सकती है ।गुरु कृपा चमत्कार कर सकती है ।हे वीर !! निःसंशय होके आगे बढ़ो ।

यूँ तो श्रावस्ती नगरी पर सदैव ही प्रकृति माँ की करुणा और दया बनी रहती थी । धन-धान्य खेत खलियानों से वह हमेशा सजी धजी रहती थी परंतु न जाने क्यू कुछ महीनों से प्रकृति माता इस नगरी से रुष्ट हो गई थी । श्रावस्ती भयंकर अकाल से ग्रस्त थी ।सूर्यदेव अपने प्रचंड आग से सबकुछ झुलसा देने को आतुर थे ।ऐसे में राहत देनेवाले काले मेघों को तो जैसे इस नगरी की सुध ही नहीं रही ।हरे भरे पेड़ों की जगह शुष्म ठूठ नज़र आने लगी ।धरती असंख्य दरारों से टूट गयी । नगर वासी आकुल व्याकुल होकर अन्न के दाने दाने को तरसने लगे ।भूख मरी के साये ने नगर को अपने पॉश मे समेट लिया ।

लोगों के पेट रीढ़ की हड्डी को छू गए और आँखे गहरे गड्ढे में जा फसी ।हर ओर हाहाकार मचने लगा परंतु इसी नगर में एक वर्ग ऐसे धन कुबेरों का भी था जिनपर आज भी अन्नपूर्णा की असीम कृपा बरस रही थी ।उनके कोष अन्न धन से भरे पड़े थे ।दोनों हाथों से महीनों तक लुटाये तब भी समाप्त न हो परंतु अफसोस ! श्रीमंतो के जितने कोष भरे थे उतने ही उनके हृदय रिक्त थे । अपने नगर के लोगों की ऐसी हालत देखकर और सुनकर भी इन श्रीमंतों ने अपने हृदयों पर बड़े बड़े ताले जड़े हुए थे ।भूखमरी के कारण रोज नगर में किसी ना किसी के घर का चिराग आँखे मूंद रहा था । और वहाँ से हृदयं विदारक चित्कारक सुनायी देती थी परंतु ये श्रीमंत तो कुछ ऐसे हृदय हीन हुए थे कि ये करुण क्रुन्दन भी उनके हृदय को नहीं भेद पा रहे थे ।धीरे धीरे श्रावस्ती नगरी धन जन से पूर्ण समृद्ध शाली नगरी सुनसान मरघट मे परिणीत होने लगी परंतु श्रावस्ती के वासियों का सौभाग्य या यूं कहें अहोभाग्य इस अंधेरी कालिमा मे भी अचानक से पूर्णिमा का चाँद उतर आया ।

महात्मा बुद्ध अपने शिष्य मंडली के साथ विहार करते करते श्रावस्ती आ पहुंचे ।और वही जेतवन के विहार में निवास करने लगे । एक दिन विहार के प्रवेश द्वार पर एक बालक का मुतृक शरीर महात्मा बुद्ध का शिष्य, आनंद का हृदय धक सा बह गया यह देखकर ।हे प्रभु !! जिस द्वार से आज तक लाखों लोगों को जीवन समेट कर लौटते देखा है आज उसी द्वार पर नन्हे से बालक का जीवन छीन गया ।यह कैसी लीला ?? अपने कंधे पर पड़ा चिवर उतार कर आनंद ने मृतक बालक के शरीर पर डाल दिया ।और फिर बोझील सासों और भारी कदमों से महात्मा बुद्ध की ओर चल पड़े ।

बुद्ध उस समय अपने भक्तों के सामने आसान पर शोभयमान है परंतु आनंद को तो जैसे कुछ दिखा ही नहीं ।वह सीधा बुद्ध के चरणों में गिरकर रोने लगा ।बुद्ध ने अपनी दयामयी दृष्टि आनंद पर डाली तो उनके मुख पर मधुर मुस्कान फैली ।वह अपने शिष्य के मनोभावों को भली-भांति पड़ चुके थे । आज उनका शिष्य का हृदय समाज के विफल हुआ था फिर भी महात्मा बुद्ध ने अपनी करुणा मयी वाणी से पूछा , भंते क्या हुआ ?? वह कौन सा कारण है जो तुम्हें इतना अशांत कर रहा है ?? आनंद ने आंसू पोछते हुए अपना मुख उठाया हाथ जोड़कर कहने लगा, भगवन !आज श्रावस्ती मे अन्न के बिना लोग तड़प तड़पकर अपने प्राण त्याग रहे हैं ।क्या ऐसी दशा में भिक्षुक संग का कोई कर्तव्य नही है ।बताइये गुरुदेव हमे क्या करना चाहिए ??

महात्मा बुद्ध ने आनंद से नज़रे उठाकर अपने भक्तों पर गाढ दी । जिसमें अनेक धन कुबेर भी उपस्थित थे । प्रभु उन्हें संबोधित करते हुए अपने दिव्य वाणी में कहा , आप मे से बहुत सारे लोग धन धान्य से सम्पन्न है ।आप की नजरों के सामने आप के ही नगर वासी भूख के कारण भयंकर ज्वाला से तड़प तड़पकर प्राण त्याग रहे हैं ।आप चाहे तो आसानी से उन लोगों को मृत्यु के मुँह मे जाने से बचा सकते है । बताइये आप मे से कौन कौन तैयार है ।

महात्मा बुद्ध ने यह आह्वान कर मानो उन्हें खुला निमंत्रण दे डाला कि आज जो कोई भी मेरी आज्ञा को शिरोधैर्य कर अपने भंडार मे से कुछ ठिकरे भी निकालेगा उसके लिए मैं अपनी करुणा और दया के कोश के सारे द्वार खोल दूँगा । बुद्ध की ममतामयी किन्तु अड़िग वाणी साफ साफ समझा रही थी कि आज जो भी मेरी आज्ञा मे उठेगा उसे कभी फिर संसार में गिरने नही दूंगा ।जो भी आगे कदम बढ़ाएगा फिर कभी पिछे मुडना न पड़ेगा ।जो भी आज अपना धन कोष लुटाने के लिए तैयार होगा उसपर मै अपना सर्वस्व लुटा दूंगा ।

किन्तु ईश्वर की कृपा को समेट पाना , गुरु की कृपा को समेट पाना सब की किस्मत में कहाँ??6 आज ये श्रीमंत भी बुद्ध की कृपा को नज़र अंदाज कर बबूले की भांति अपनी गर्दने सिकुड़ते दिखे ।हर कोई एक दुसरे के पिछे छिपने की कोशिश कर रहा था । कहीं बुद्ध की दृष्टी हम पर न पड़ जाए । कहीं वे हमें ही कुछ न कह बैठे ।उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो बुद्ध के आगे ही बहाने बना बैठे ।

एक ने कहा प्रभू हमारे खलियान तो खुद ही अन्न से खाली है ।दूसरा भी झट बोला , प्रभु श्रावस्ती जैसे विशाल नगरी में इतने अधिक वासियों तक अन्न जल पहुँचाना एक मनुष्य के बुते के बाहर की बात है परंतु महात्मा बुद्ध तो कुछ और ही सुनना चाहते थे ।उन्होंने फिर उपस्थित मंडली की ओर अपनी नज़रे दौड़ायी और कहा , क्या इस सभा में ऐसा कोई नहीं है जो इस भयंकर दुर्भिक्ष से अपने बंधुओ की रक्षा कर सके । बुद्ध के शब्दों में ऐसी गुरुता थी कि हर ओर स्तब्धता छा गई ।सन्नाटे ने विहार को चारों ओर से घेर लिया ।

तभी एक छोटी सी बालिका अपने स्थान से उठी और दृढ़ता से बोली भगवन आप की यह सेविका आप की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्तुत है ।जन सेवा में यदि प्राण भी न्योछावर करने पड़े तो आप की कृपा से पिछे नही हटूंगी ।यह तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होगी ।मुझे आज्ञा दीजिये गुरुदेव ।गुरुदेव !! मुझे आज्ञा दीजिये ।

कल की पोस्ट में हम जानेंगे कि यह छोटी सी बालिका कौन है और किस प्रकार गुरु कृपा से नगर वासियों की पीड़ा दूर कर पाती है ?

बस एक भूल ने उस दानव को भेजा पुनः गर्भवास में…..


एक सनिष्ठ शिष्य अपने आचार्य की सेवा में अपने सम्पूर्ण मन एवं हृदय को लगा देता है । तत्तपर शिष्य किसी भी परिस्थिति में अपने गुरु की सेवा करने का साधन खोज लेता है ।अपने गुरु की सेवा करते हुए जो साधक सब आपत्तियों को सह लेता है वह अपने प्राकृत स्वभाव को जीत सकता है । शांति का मार्ग दिखाने वाले गुरु के प्रति शिष्य को सदैव कृतज्ञ रहना चाहिए । अगर आप को नल से पानी पीना हो तो आप को स्वयं नीचे झुकना पड़ेगा । इसी प्रकार अगर आप को गुरु की पवित्र मुख से बहते हुए पावन अमृत का पान करना हो तो आप को विनम्रता का प्रतीक बनाना पड़ेगा ।जो मनुष्य वफादार एवं बिल्कुल नम्र बनते है उनके उपर ही गुरु

की कृपा उतरती है ।

गुरु के चरण कमलों की पूजा के लिए नम्रता के पुष्प के अलावा और कोई श्रेष्ठ पुष्प नहीं है । शिष्य अधिक विद्वान न हो लेकिन वह मूर्तिमंत नम्रता का स्वरूप हो तो उसके गुरु को उसपर अत्यंत प्रेम होता है । आप महान विद्वान एवं धनवान हो फिर भी गुरु एवं महात्माओ के समक्ष आप को बहुत ही नम्र होना चाहिए ।

शिष्य ने महात्मा से पूछा गुरुदेव रावण ने जीवन पर्यन्त आसुरी वृत्ती के वशी भूत होकर कर्म किए। साधु संतों को कष्ट दिया । माँ जानकी का हरण किया ।परंतु कहा जाता है कि प्रभु श्री राम के हाथों मृत्यु होने के कारण वह मुक्ति को प्राप्त हुआ । क्या यह सत्य है ??

महात्मा ने कहा कदाचित नही । शास्त्रों में वर्णन है कि रावण का पुनर्जन्म हुआ शिशुपाल के रूप में । यदि रावण मुक्त हो गया होता तो उसका दोबारा जन्म क्यों होता ?? गुरु नानक देवजी ने इस सत्य को स्पष्ट वाणी में कहा कि , “लंका लूटी शीश समेत गर्भ गया बिन सतगुरु हेत।” अर्थात रावण को दोबारा गर्भाग्नि सहने को विवश होना ही पड़ा क्योंकि उसके पास कोई सदगुरु न थे ।

माना कि रावण प्रकांड विद्वान था । उसने शास्त्रों और वेदों का अध्ययन किया हुआ था । वह भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त भी था । उसने मंत्र बल से तपस्या के द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न कर अनेक वरदान भी प्राप्त कर लिए थे ।परंतु उसके जीवन की सब से बड़ी चूक थी कि उसने कभी किसी पूर्ण सदगुरु की शरणागति प्राप्त न की थी ।यही कारण है कि वह विद्वान होते हुए भी अज्ञानी ही रह गया । दिशाहीन जीवन व्यतीत किया उसने ।यदि उसके जीवन में कोई पूर्ण गुरु का प्रदार्पण हुआ होता तो उसने उनसे ज्ञान दीक्षा की प्राप्ती की होती ।तो उसका मन निरंकुश न हुआ होता ।उसे अपनी कामनाओ व वासनाओं पर अंकुश लगाना सदगुरु की बताई गई दिशा अनुसार उसे भली प्रकार आता होता ।गुरुदेव उसके जीवन को पल प्रतिपल सही दिशा देते ।उसे कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते ।वह केवल शास्त्रज्ञ या विद्वान न रहकर अनुभवी ज्ञानवान बन पाता ।

इसलिए नानक देव जी कहते हैं कि , “गर्भ गया बिनु सदगुरु हेत” चौरासी के चक्कर से छूटने का भव सागर पार करने का गर्भाग्नि से बचने का मुक्ति का मात्र एक ही उपाय है – सदगुरु की शरणागति । यदि हम रावण के जीवन को रूपक के रूप में देखे, तो लंका में दस शीश वाले रावण का निवास है ।यह शरीर ही स्वर्ण मयी लंका है । उसमें अहं का निवास है। जो सीता अर्थात भक्ति को राम अर्थात ब्रह्म तक पहुँचने नहीं देता ।

रावण को शास्त्रज्ञों ने अहंकार का प्रतीक बताया । दस शीश अर्थात अहं की अत्यधिकता । साधक के जीवन में जब सदगुरु उसके अहं का मर्दन करते हैं, तब साधक के दस शीश और उभर आते है। अर्थात तर्क कुतर्क के चकरो में वह स्वयं को फसा लेता है। बुद्धि‍ उसकी अनेक प्रकार से सोचने लगती है कि मैने तो ऐसा कुछ किया ही नहीं फिर भी गुरु द्वारा या फिर गुरु भाइयों द्वारा ऐसा व्यवहार मेरे साथ क्यों हो रहा है ?

जब भी अपने मन की ना हो परिस्थितियां विपरित हो तो यह विचारणीय है कि सदगुरु रुपी राम द्वारा हमारे क्लोषित मन का अहं का शीश कट रहा है ।फिर भी एक एक शीश काटने से रावण का मर्दन संभव नहीं ।

रावण का वध करने में तो रामजी के भी पसीने छूट गए ।फिर उनको विभीषण ने भेद बताया — रावण वध भेद । यहां विभीषण शरणागति का प्रतीक है ।अर्थात जब तक शिष्य की सम्पूर्ण शरणागति नही होती अपने सदगुरु के प्रति तब तक सदगुरु रुपी राम को बहुत परिश्रम करना पड़ता है । शीश के अहं रुपी रावण को मारने के लिए ।

जिस दिन शिष्य का सदगुरु को सम्पूर्ण शरणागति का संग प्राप्त हुआ उस दिन देर न लगेगी । एक ही बाण से काम बन जायेगा ।तत्त्वमसि !! यहि नाभि भेदन है परंतु आवश्कता है सच्चे शरणागति की ।तो हम सभी मे जो अहंकार और विकार रुपी रावण बैठा है उसका वध अत्याधिक आवश्यक है ।नही तो हमारे जीवन मे विजयदशमी कभी न आ पायेगी । इस अहं औऱ विकार रुपी रावण का वध हेतु सम्‍पूर्ण शरणागति की आवश्यकता है सदगुरु के चरणों में ।