( देवर्षि नारद जी जयंतीः 17 मई 2022 )
देवर्षि नारद जी ने बहुत-बहुत परोपकार किये, बहुत शास्त्र पढ़े, बहुत लोक-मांगल्य के काम किये । नारद जी के लोक-मांगल्य का पुण्य उदय हुआ, उनके मन में विचार उठा कि ‘जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रहता, जिसको जानने के बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहता और जिसको जानने से व्यक्ति शोकमुक्त हो जाता है वह मैंने नहीं जाना, नहीं पाया ।’
नारद जी पैदल यात्रा करते-करते जहाँ सनकादि ऋषि एकांत अरण्य में रहते थे वहाँ पहुँचे । दंडवत् प्रणाम किया और उनमें गुरुभाव रखते हुए स्तुति की ।
हालाँकि सनकादि ऋषि भी ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी भी । सनकादि ऋषि हैं पुरखों के पुरखे किंतु योगबल से सदा 5 साल के ही नन्हें-मुन्ने दिखते हैं । वस्त्रहीन भी रहें तो पवित्र बालक ही हैं । उनमें 3 तो बनते हैं सत्संग सुनने वाले श्रोता और एक बनते हैं वक्ता और ब्रह्मचर्चा, परमात्म-सुख की बात करते हैं । उनके पास नारद जी गये, बोलेः ″प्रभु ! मैं आपकी शरण आया हूँ ।″
सनकादि ऋषियों में से सनत्कुमार जी ने पूछाः ″तुम क्या-क्या जानते हो ?″
बोलेः ″मैं चार वेद जानता हूँ, इसके उपरांत इतिहास-पुराणरूप पंचम वेद, वेदों का वेद ( व्याकरण ), इसके उपरांत श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात-विद्या, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, देव विद्या, निरुक्त, वेद विज्ञान, भूत तंत्र, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, सर्प विद्या ( गारूड मंत्र ) देवजन विद्या ( नृत्य संगीत ) आदि सभी विद्याएँ जानता हूँ । कंस जैसों को कुछ कहना और वसुदेव जैसों को कुछ कहकर भी भगवान की कृपा का प्रसाद समाज में कैसे बँटवाना यह भी जानता हूँ । कलह करवा के भी कल्याण करना जानता हूँ । ये सब जानता हूँ महाराज ! किंतु जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया है, नहीं जाना है । जिसमें स्थित होने के बाद बड़े भारी दुःख से भी व्यक्ति चलायमान नहीं होता उस निर्दुःख पद का, उस आत्मानुभव का आनंद अभी तक नहीं मिला । आप जैसों से सुना है कि
तरति शोकं आत्मवित् ।
आत्मा को जानने वाला शोकरहित हो जाता है । किंतु मुझे अभी तक हर्ष-शोक व्यापता है ।″
मनुष्य-जीवन में अगर शोकरहित नहीं हुए, परम पद नहीं पाया तो जीवन पशु की तरह व्यर्थ गया । पशु तो अपनी पशुता के कर्म काट के मनुष्यता की तरफ आ रहा है और मनुष्य अगर वह परम पद नहीं पाता है तो मनुष्यता खोकर पशुता की तरफ जायेगा, प्रेत योनियों में जायेगा । मनुष्य-जीवन का यही फल है कि शोक से पार हो जायें, भय से पार हो जायें । शोक बीत हुए का होता है और भय आने वाला का होता है । प्रतिष्ठा चली न जाय, धन चला न जाय इसका भय रहता है, सत्ता और स्वास्थ्य चला न जाय इसका भी भय रहता है । कहा गया हैः
निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।।
प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ।।
आप उस निर्भय को अपना मानिये, जपिये । जो पहले आपका था, अभी है, बाद में रहेगा । आपकी कुर्सी पहले नहीं थी बेटे ! बाद में भी नहीं रहेगी, अब भी समय की धारा में नहीं की तरफ जा रही है । शरीर, पद, सत्ता भी नहीं की तरफ जा रहे हैं । जो नहीं था उसको ‘नहीं’ मान लो फिर उसका उपयोग करो, तत्परता से व्यवस्था करो पर उसको सत्य मत मानो । और जो सत्य है उसको ‘सत्य’ मान लो, जान लो बस !
तो सनत्कुमार जी ने उपदेश दियाः ″यह सारा विश्व ही नारायण स्वरूप है । पृथ्वी ब्रह्म है ।″
नारदजी ने कहाः ″पृथ्वी ब्रह्म तो है परंतु पृथ्वी में उथल-पुथल होती है ।″
″ठीक है नारद ! तुम्हारी बुद्धि विकसित है । पृथ्वी से जल सूक्ष्म है, रसमय है, पृथ्वी की अपेक्षा व्यापक भी है । जल ब्रह्म है ।″
″जल ब्रह्म है किंतु इसमें भी परिवर्तन और विकार है प्रभु !″
″तेज ब्रह्म है ।″
″तेज ब्रह्म है लेकिन तेज भी 5 भूतों का एक अंश है । तेज तत्त्व में परमात्म-सत्ता है परंतु तेज पूर्ण ब्रह्म तो नहीं है ।″
″नारद जी ! और अंतर्मुख हो रहे हो, ठीक बात है । वायु ब्रह्म है । अग्नि से भी वायु अधिक व्यापक है । प्राण ही तो ब्रह्म है, प्राण निकल गये तो सब व्यर्थ हो जाता है । पेड़-पौधों में भी चेतनता प्राण से ही है और मनुष्यों, जीव-जन्तुओं और जहाज का गमनागमन भी तो प्राण के बल से – हवा के बल से ही होता है । और प्राण और अधिक व्यापक है ।″
नारद जी उसमें संतुष्ट होने लगे । दयालु सनत्कुमार जी ने करूणा करके कहाः नारद ! नहीं-नहीं, इससे भी आगे चलो । आकाश ब्रह्म है । किंतु यह आकाश तो दृश्य है, भूताकाश है । भूताकाश से भी और आगे… भूताकाश जिससे दिखता है वह ब्रह्म है ।″
बोलेः ″वह चित्ताकाश है ।″
″चित्ताकाश भी परिवर्तित होता है, उसको जो जानता है नारद ! वह है भूमा, नित्य सुख, उसके परमात्मा कहते हैं । यो वै भूमा तत्सुखम् ।
उस भूमा, व्यापक ब्रह्म-परमात्मा को ज्यों-का-त्यों जानो । आकृतियों में जो देवी-देवता हैं वे सब अच्छे हैं परंतु ये सारी आकृतियाँ जहाँ से प्रकट होती हैं, जिसकी सत्ता से बोलती हैं और जिसमें विलय हो जाती हैं उस भूमा ईश्वर को जानोगे तब पूर्ण सुखी हो जाओगे ।″
सनत्कुमार जी के तत्त्वज्ञान के उपदेश से नारद जी हर्ष-शोक से परे उस भूमा में स्थित हुए । इस प्रकार गुरु ने उपदेश दे के एक से एक सूक्ष्म-सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम की यात्रा कराते-कराते सबके सार में, चिदाकाश ब्रह्म में नारद जी को प्रतिष्ठित कर दिया ।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 353
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