एक धर्मात्मा राजा था, जो प्रजा को पुत्रवत् स्नेह करते हुए शासन करता था । वह संसार से ऊब गया था अतः एक दिन अपने ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु के आश्रम में जाकर उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए बोलाः ″गुरुदेव ! मैं इस राज्य की झंझटों, समस्याओं से बड़ा दुःखी हो गया हूँ । एक समस्या हल करता हूँ तो दूसरी खड़ी हो जाती है । दूसरी को सुलझाता हूँ तो तीसरी…. इस प्रकार नित्य नयी उलझन ! नित्य नये बखेड़े ! मैं तो तंग आ गया इस जीवन से ! क्या करूँ ?″
गुरु जी बोलेः ″राजन् ! ऐसी बात है तो छोड़ दो इस राज्य को ।″
राजा ने कहाः ″कैसे छोड़ दूँ ? मेरे छोड़ देने से समस्याएँ तो सुलझ नहीं जायेंगी, उलटा सब कुछ तितर-बितर हो जायेगा । अराजकता फैल जायेगी चारों ओर ।″
″तो ठीक है, पुत्र को शासन सौंप दो और तुम निश्चिंत होकर मेरे पास रहो ।″
″परंतु पुत्र तो अभी छोटा-सा नादान बच्चा है । वह इस भार को सँभालेगा कैसे ?″
गुरु जी ने नया उपाय बताते हुए कहाः ″यह बात है तो शासन मुझे दे दो, मैं सँभालूँगा उसे ।″
राजा खुश होकर बोलाः ″हाँ गुरुदेव ! यह मुझे स्वीकार है ।″
″तो हाथ में पानी लेकर संकल्प करते हुए सारा राज्य मुझे दान कर दो ।″
राजा ने ऐसा ही किया और उठकर चल पड़ा । गुरु जी ने टोकते हुए पूछाः ″अब कहाँ जाते हो ?″
″राजकोष से कुछ धन लेकर परदेश जाऊँगा । वहाँ कोई व्यापार करके जीवन चलाऊँगा ।″
गुरु जी हँसकर बोलेः ″जब राज्य मेरा हो गया तो राजकोष भी मेरा है । तुम्हारा उस पर अधिकार ही क्या है ?″
राजा ने सिर झुकाकर कहाः ″सचमुच कोई अधिकार नहीं रहा । अब तो कहीं चाकरी ही करनी होगी ।″
गुरु जी बोलेः ″चाकरी ही करनी है तो मेरी कर ले । इतना बड़ा राज्य है मेरे पास । इसे चलाने के लिए किसी-न-किसी को तो रखना ही पड़ेगा । मुझे सेवक की जरूरत है, तुम्हें मालिक की । बोलो, करोगे मेरी नौकरी ?″
राजा ने खुशी से कहाः ″करूँगा ।″
गुरुजी ने आदेश दियाः ″तो जाओ, आज से मेरा सेवक बन के राज-काज करो । देखो, वहाँ तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं । भला हो या बुरा, हानि हो या लाभ, सब मेरा होगा । तुम्हें केवल वेतन मिलेगा ।″
राजा ने स्वीकार किया । लौटकर शासन करने लगा ।
एक मास के बाद गुरु जी ने आकर पूछाः ″क्यों भाई ! राज-काज निपटाकर थक तो नहीं जाते ? अब भी दुःखी रहते हो क्या ? जीवन सरल चल रहा है या संकटमय लगता है ?″
राजा मुस्कराते हुए बोलाः ″गुरुदेव ! मैं तो सेवक हूँ । पूरी लगन और परिश्रम से राज-सेवा करता हूँ और सुख की नींद सोता हूँ ।″
यह है वह साधन जिसे अपना लिया जाय तो कर्म करता हुआ भी मनुष्य उस कर्म में लिप्त नहीं होता । स्वयं को स्वामी नहीं, ईश्वर का, ब्रह्मज्ञानी गुरु का सेवक समझो । यह सब ठाठ-बाट तुम्हारा तो है नहीं । तुम मैं-मेरे की अहंता-ममता करके क्यों फँस रहे हो ? तुम्हारे पास जो है वह सब, यहाँ तक की तुम्हारा शरीर भी परमात्मा का दिया हुआ है । तुम इन सबका सदुपयोग उसी परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से उसी की सेवा के लिए करो और भाव रखोः
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझको देत हूँ, क्या लागत है मोर ।।
जो ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के वचनों में निष्ठा रखते हुए लगन के साथ तन-मन-धन लगाकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से उनके समाजोत्थान के दैवी कार्य में लग जाते हैं वे भी ऐसे प्रजावत्सल राजा की तरह जीवन में निर्लिप्त रहते हुए सुख से सोते हैं और देर-सवेर परमात्म-तत्त्व में प्रतिष्ठित हो जाते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 347
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