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सेवा का स्वरूप


आपकी सेवा का प्रेरक स्रोत क्या है ? किसी मनोरथ की पूर्ति के लिए सेवा करते हैं ? क्या अहंकार के श्रृंगार की आकांक्षा है ? क्या सेवा के द्वारा किसी को वश में करना चाहते हैं ? तो सुन लीजिये, यह सेवा नहीं है, स्वार्थ का तांडव नृत्य है । अपनी सेवा को पवित्र रखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है ।

आपकी सेवा में किसी से स्पर्धा है ? आप किसी की सेवा से अपनी सेवा की तुलना करते हैं ? दूसरे को पीछे करके स्वयं आगे बढ़ना चाहते हैं ? किसी दूसरे की सेवा को देखकर आपको जलन होती है ? क्या आप ऐसा सोचते हैं कि अमुक व्यक्ति के कारण मेरी सेवा में बाधा पड़ती है ? यदि ‘हाँ’ तो स्पष्ट है कि आप सेवा के मर्मस्पर्शी अंतरंग रूप को नहीं देख पाते । सेवा चित्त को सरल, निर्मल एवं उज्जवल बनाती है । उसमें अनुरोध-ही-अनुरोध है, किसी का विरोध या अवरोध नहीं है ।

श्रद्धा से सम्पृक्त ( युक्त ) सेवा का नाम ही धर्म है । स्नेहयुक्त सेवा वात्सल्य है । मैत्री-प्रवण ( मित्रता के अनुराग में ) सेवा ही सख्य ( मित्रभाव ) है । मधुर सेवा ही श्रृंगार है, लूट-खसोट नहीं । प्रेम सेवा ( आत्मदृष्टि, अभेददृष्टि से की गयी सेवा ) ही अमृत है । सेवा संयोग में ( अर्थात् सेव्य के सान्निध्य में ) रस सृष्टि करती है और (सेव्य) के वियोग में हित-वृष्टि करती है (अर्थात् सेव्य का जिस में हित हो वैसा आचरण कराती है ) । सेवा वह दृष्टि है जो पाषाण-खंड को ईश्वर बना दे, मिट्टी के एक कण को हीरा कर दे । सेवा मृत को भी अमर कर देती है । इसका कारण क्या है ? सेवा में अहंकार मिट जाता है, ब्रह्म प्रकट हो जाता है ।

सेवा निष्ठा की परिपक्वता के लिए उसका विषय एक होना आवश्यक है ( जैसे ब्रह्मस्वरूप सद्गुरु, परमात्मा ) । सबमें एक ईश्वर पर दृष्टि हो । एक की सेवा अचल हो जाती है और कोई भी वस्तु अपनी अचल स्थिति में ब्रह्म से पृथक नहीं होती । चल ही दृश्य होता है, अचल नहीं । किसी भी साधना में निष्ठा का परिपाक ही परम सिद्धि है । यदि विचार की उच्च कक्षा में बैठकर देखा जाय तो निःसन्देह अद्वैत स्थिति ( ब्राह्मी स्थिति ) और अद्वैत वस्तु ( आत्मा ) का बोध हो जायेगा । अंतर्वाणी स्वयं महावाक्य बनकर प्रतिध्वनित होने लगेगी ( सेवा अचल होने पर सेवानिष्ठ के हृदय में महावाक्य स्वतः स्फुरित हो के अविद्याजन्य परिच्छिन्नताओं का बाध कर आत्मवस्तु की अखंडता का बोध कराके ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करा देगा ) । अतः साधना का प्रारम्भ सेवा से होकर सेवा की अनन्यता, अनंतता एवं अद्वितीयता में ही परिसमाप्त हो जाता है ।

धनभागी हैं वे, जो सच्चाई से ईश्वर के रास्ते चलते हैं । दिखावे व धोखेबाजी से बचकर अपने अंतरात्मा को पूर्ण परमात्मा से, ब्रह्म से एक अनुभव करते हैं ।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।

पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान ।

आसुमल से हो गये, साँईं…

अपने पर कृपा करिये, धोखेबाजी से बचकर सच्चाई से सेवा करके सत्स्वरूप ईश्वर से मिलने का साधन सच्चाई से करिये ।

कपट गाँठ मन में नहीं, सब सों सरल सुभाव ।

नारायण वा भगत की लगी किनारे नाव ।।

ॐ प्रभु ! भगवान करें कि भगवान में प्रीति हो । सबका मंगल, सबका भला ।

अपनी श्रद्धा, अपना आचरण ऐसा होना चाहिए कि भगवान भी हम पर भरोसा करें कि यहाँ कुछ देने जैसा है । सद्गुरु को भी भरोसा हो कि यहाँ कुछ देंगे तो टिकेगा । सद्गुरु और भगवान तो देने के लिए उत्सुक हैं, लालायित हैं । – पूज्य बापू जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 16, 17 अंक 347

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हर हृदय में ईश्वर हैं फिर भी दीनता-दरिद्रता क्यों ?


सारे शास्त्रों की घोषणा है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वत्र विद्यमान है । यह सत्य है पर इससे व्यक्ति के अंतःकरण की समस्याओं का समाधान नहीं होता है । संत तुलसीदास जी कहते हैं-

अस प्रभु हृदयँ अछल अविकारी ।

सकल जीव जग दीन दुखारी ।। ( श्री रामचरित. बा. कां. 22.4 )

ऐसा ईश्वर जो प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में अविकारी रूप में विद्यमान है, उसके रहते हुए भी व्यक्ति के हृदय की दीनता और दरिद्रता में कोई अंत दिखाई नहीं देता है ।

फिर आगे कहते हैं-

नाम निरूपन नाम जतन तें ।

सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ।।

भगवन्नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) भगवन्नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक भगवन्नाम-जपरूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्न जानने से उसका मूल्य ।

रत्न आपके पास हो या मार्ग में कहीं पड़ा हुआ मिल जाय पर अगर आपको ऐसा लग रहा हो कि ‘यह काँच का टुकड़ा है’ तो रत्न पास होने पर भी उसके द्वारा सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं । इसलिए आवश्यकता है किसी रत्न पारखी जौहरी की जो आपको बता सके कि ‘यह काँच का टुकड़ा नहीं बल्कि कीमती रत्न है ।’ यद्यपि वही रत्न पहले भी था पर ज्ञान के अभाव में उस समय आनंद की अनुभूति नहीं हो रही थी और ज्ञान होते ही जीवन में प्रसन्नता होने लगी ।

रत्न पास होने पर भी उससे न शीत का निवारण होगा, न भूख मिटेगी और न दरिद्रता ही मिटेगी । जब जौहरी परखकर बता दे कि ‘यह हीरा है ।’ तब हमारे अंतःकरण में विश्वास होगा । बिना जानकारी वाला व्यक्ति कहे तो उसके कथन पर हमें विश्वास नहीं होगा । पारखी अर्थात् सद्गुरु… जिन्होंने रत्न के मूल्य को अर्थात् भगवन्नाम जप की महिमा को जाना है तथा जिनके प्रति हमारे मन में पूर्ण विश्वास है । संत तुलसीदास जी इसको समझाते हुए कहते हैं कि ‘पहले हम रत्न को जानें, फिर रत्न को देकर उसका मूल्य प्राप्त करें और फिर मूल्य से जब अन्न, वस्त्र तथा अन्य वस्तुएँ ले आयेंगे तो उनके उपयोग से हमारी शीत, भूख आदि का निवारण होगा ।’

मंत्रजप का स्वरूप भी ठीक इसी प्रकार का है । सद्गुरु से मंत्र की दीक्षा लेकर उसका जप करना चाहिए । ‘मंत्र सद्गुरु-प्रदत्त हो’ कहने का अभिप्राय यही है कि सद्गुरु रत्नों के पारखी हैं, जो उसके मूल्यों को जानते हैं । भगवन्नाम के पारखी सद्गुरुदेव से भगवन्नाम का अर्थ समझकर उसका अर्थ चिन्तनपूर्वक जप करने से साधक निहाल हो जाता है ।

ईश्वर निर्गुण-निराकार रूप में सर्वव्यापक होते हुए भी व्यक्ति की समस्या ( हृदय की दीनता-दरिद्रता आदि ) का समाधान तब तक नहीं कर पायेगा । जब तक व्यक्ति को सद्गुरु द्वारा उसे हृदय में प्रकट करने की कला का ज्ञान न हो जाय और वह उस ज्ञान को जीवन में न ले आये । फिर जैसे रत्न से मूल्य प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार सर्वव्यापक ईश्वर भी हमारे अंतःकरण में सत् रूप, चेतनरूप, आनंदरूप में प्रकट होकर हमारी समस्याओं का समाधान करते हैं ।

ईश्वर का होना तो ठीक है लेकिन ईश्वर की स्मृति और ईश्वर का ज्ञान न होने के कारण ईश्वर का हमारे साथ होना भी न होने के बराबर हो रहा है । – पूज्य बापू जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 11, 13 अंक 347

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जीवन का मौलिक प्रश्न और उसका समाधान


आज का मौलिक प्रश्न हमारे सामने भोग की रुचि का नाश तथा सरस जीवन की प्राप्ति का है । इस मौलिक प्रश्न को हल करने के लिए ही हमें मिले हुए शरीर के द्वारा परिवार की, समाज की तथा संसार की सेवा करनी है ।

भोग नहीं करना है, सेवा करनी है । सेवा क्या है ? भोग में अपना सुख निहित होता है, सेवा में परहित निहित होता है, तो हम अपने सुख के लिए मिली हुई वस्तु यानी शरीर, योग्यता, परिस्थिति, सामर्थ्य आदि का उपयोग न करें अपितु परहित में इनका सदुपयोग, प्राप्त विवेक के प्रकाश में करें । इससे शरीर और संसार का परस्पर निर्वाह सिद्ध हो जायेगा । इससे भोग की रुचि का नाश होकर जीवन सरस हो जायेगा । अपने में ही प्रेम-तत्त्व की अभिव्यक्ति हो जायेगी तथा जीवन का मौलिक प्रश्न सदा-सदा के लिए हल हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 10, अंक 347

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