वे तुम्हें अगले जन्म में भी खोज लेंगे, निश्चिंत रहो (रमण महर्षि कथा)

वे तुम्हें अगले जन्म में भी खोज लेंगे, निश्चिंत रहो (रमण महर्षि कथा)


सत्य के साधक को मन एवं इन्द्रियो पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरु की निगरानी मे शास्त्रो का अभ्यास करना चाहिए उसी चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और आचार्य की पूजा करनी चाहिए शिष्य को चाहिए कि  वह आचार्य को साक्षात ईश्वर के रूप मे माने। मनुष्य के रूप मे कदापि नही।

शिष्य को आचार्य के दोष नही देखने चाहिए क्योंकि वे तमाम देवो के प्रतिनिधि हैं शिष्य को सब सुख वैभव का विष की तरह त्याग कर देना चाहिए और अपना शरीर गुरु की सेवा मे सौप देना चाहिए।

अरूणाचल मे स्थित स्कंध आश्रम मे महर्षि रमण जी के शिष्य पंक्तिबद्ध हो उनके सामने बैठे थे महर्षि रमण बहुत कम बोलते थे, अधिकतम समय उनका मौन ही रहता था, जिज्ञासु जब प्रश्न करते तब कुछ महर्षि बोलते ।

किसी जिज्ञासु ने कहा हे भगवन मुझे लगता है कि मै अपनी इच्छाओ का गुलाम बन चुका हूं जितना इनके बंधन से मुक्त होना चाहता हूं, उतना ही ये मुझे जकङ लेती है मै क्या करूं?

गुरूदेव महर्षि जी कहते हैं कि सोचकर देखो पिंजरे मे बंद एक पक्षी के बारे मे ।

वह पिंजरे से मुक्त होना चाहता है इसलिए बार बार अपनी चोंच से उसकी सलाखो पर प्रहार करता है, अपने पंखो को उन सलाखो पर मारता है परिणाम उसकी चोंच लहुलुहान हो जाती है और पंख जख्मी। ठीक यही स्थिति तुम्हारी है अपने मन रूपी पिंजरे मे तुम कैद हो, इस पिंजरे की सलाखे तुम्हारी उठती इच्छाये है तुम इस पिंजरे से मुक्त होने के लिए इन सलाखो से टकराते हो यानि इच्छओ को जबरन दबाने की कोशिश करते हो इसलिए बार बार हार जाते हो।

जिज्ञासु ने कहा तो फिर क्य उपाय है भगवन मै अपने मन के पिंजरे से कैसे मुक्ति पाऊं? यदि पंछी को पिंजरे से बाहर आना है तो उसे किसी ऐसे को खोजना होगा जिसके पास पिंजरे की चाबी है और वह उस चाबी से पिंजरा खोल दे तभी पंछी गगन मे स्वछंद उङान भर सकता है

जिज्ञासु ने कहा मेरे मन के पिंजरे की चाबी किसके पास है? सद्गुरु के पास। उनके पास ही वह ज्ञान की चाबी है, जिससे मन का पिंजरा खुलता है, आत्मज्ञान पाकर ही एक व्यक्ति अपने मन के स्तर से उपर उठकर अपने आकाश मे यानि ब्रह्मरन्ध्र मे स्वतंत्ररूप से उङान भर पाता है।

दूसरे जिज्ञासु ने कहा भगवन मेरे मन मे हरपल विचारो का तुफान आया ही रहता है परंतु जब से मैंने आपका सत्संग सुनना शुरू किया है, तब से अपने गलत विचार को सही मे बदलने की कोशिश करता हूं। ऐसा करना सही है ना?

महर्षि जी ने कहा उतना ही सही है जितना कि चोर को पुलिस बना देना। एक विचार से दूसरे विचार को नही मारा जा सकता। यु तो मन की सत्ता हमेशा कायम रहेगी इसलिए यदि मन को मारना चाहते हो तो अच्छे बुरे विचारो से उपर उठो। विचार शुन्य स्थिति को पाओ। तभी कुछ लाभ है अन्यथा नही,

दूसरे जिज्ञासु ने कहा भगवान क्या आपके इतने सुन्दर सत्संग प्रवचनो को सुनने भर से ही हमे मोक्ष नही मिल जाएगा? आपका सत्संग सुनने के बाद भी हमे साधना या अन्य प्रयास करने की क्या जरूरत है,

अच्छा यदि ऐसा हो सकता तो फिर तो इस आश्रम के छात्र और दिवारो को कब का मोक्ष मिल गया होता। ये तो कब से मेरे हर विचारो को सुन रही है बिना पुरूषार्थ के न किसी इस युग ना किसी दूसरे युग मे ना ईश्वर को पाया है और ना ही पा सकता है। दिवारो की तरह मत सुनो, मनुष्य बनकर सुनो और सुनाते भी इसलिए हैं कि उसके अनुरूप पुरूषार्थ करो।

जिज्ञासु ने कहा मैने सुना है आप आत्मदर्शन की शिक्षा दीक्षा देते हैं परंतु मै किसी आत्मशक्ति को नही मानता। मेरे हिसाब से तो मांस मज्जा रक्त से बना यह शरीर ही सब कुछ है हमारी पहचान है।

महर्षि जी बोले यदि मै यहाँ उपस्थित लोगो को कहूँ कि वे आपको दफना दे तो जिज्ञासु ने कहा कि यह कैसा भद्दा मजाक है? भला कभी जीते जागते इंसान को भी दफनाया जाता है यदि आप ऐसा कहेंगे तो कुछ कहेंगे तो मै उसका डटकर विरोध करूंगा। आपने कहा कि जीते जागते इंसान को दफनाया नही जाता यानि कि मरे हुए इंसान को दफनाया जाता है, है ना।

जिज्ञासु ने कहा हां बिल्कुल पर आप मरा हुआ किसे कहते है मांस मज्जा रक्त से बना शरीर तो ज्यो का त्यो ही होता है फिर भी आप उस शरीर को मृतक क्यो घोषित कर देते है आपका शरीर कब्र से उठकर विरोध क्यो नही करता?

जिज्ञासु ने कहा कि उसमे अब वह प्राण शक्ति नही रही बस इसी प्राण शक्ति की आधारभूत सत्ता को आत्मा कहते है, इस आत्मा का आत्मज्ञान या आत्म विद्या द्वारा जाना जा सकता है, उसका स्पष्ट दर्शन किया जा सकता है दुसरे जिज्ञासु ने कहा भगवन मै इस संसार से उब चुका हूं, जीने की कोई इच्छा नही रही मन करता है कि आत्म हत्या कर लूँ।

महर्षि जी बोले सामने देख रहे हो कुछ शिष्य दिन के लंगर के लिए पत्तले बना रहे है जाओ जाकर उनकी पत्तलो को कुङेदान मे जाकर फेंक आओ पर ऐसा करना तो ठीक नही है। गुरुवर क्यो? क्यो ठीक नही है? क्यो कि तुम जानते हो कि पत्तल बनाना आसान नही होता। पहले अच्छे साफ सुथरे बङे बङे पत्तल छाटने पङते है फिर सीखें इक्कठी करनी पङती है फिर बङी सावधानी द्वारा इन सीखों को एक दूसरे से जोडना पङता है तब कहीं जाकर भोजन करने के लिए पत्तल तैयार होती है ।

अब यदि बिना उपयोग किये हुए इस पत्तल को फेंक दें तो सही नही है ना। ठीक इसी तरह ईश्वर ने बङे पुरूषार्थ से यह मानव शरीर रचा है और तुमने भी कई जन्मो कई योनियो मे भटकने के बाद इस शरीर को पाया है यदि तुम इसका उपयोग करने से पहले ही यानि आत्मउन्नति किये बिना ही इसे फेंक दो अर्थात आत्महत्या कर लोगे तो यह कहाँ की समझदारी है?

जिज्ञासु ने कहा गुरुवर मुझे साधना मे पहले बहुत सिद्ध रूपो के दर्शन हुआ करते थे परंतु अब नही होते। क्या मुझसे भुल हो गयी है? ना ऐसा क्यो सोचते हो? बात बस इतनी है कि छोटे बच्चो की किताबो मे चित्र दिये जाते है बङे बच्चो की किताबो मे नही होते। अब तु भी बङा हो गया है इसलिए बिना चित्र वाली साधना करना सिख ले।

जिज्ञासु ने कहा गुरूवर आदि शंकराचार्य जी देश के कोने-कोने मे गये और लोगो को ज्ञान का उपदेश दिया लेकिन आप तो इस आश्रम के बाहर जाते ही नही। ऐसा क्यो?

महर्षि जी बोले यदि तुम पंखे को कहो कि वह प्रकाश देने लगे तो क्या वह देगा? इसी तरह तुम बल्ब को कहो कि वह हवा देने लगे तो क्या वह संभव है नही ना ठीक ऐसे ही हर युग मे आये संत महापुरुष का व्यवहार कार्य करने का तरीका अलग अलग होता है परंतु जैसे पंखे और बल्ब को चलायमान करने वाली विद्युत ऊर्जा एक ही है ऐसे ही हर महापुरुष को चलायमान करने वाला लक्ष्य एक ही होता है और वह है जन जन को जागृत कर ब्रह्मज्ञान का उपदेश देना।

जिज्ञासु ने कहा भगवन आप से ज्ञान लिये हुए और इस मार्ग पर चलते हुए मुझे कई वर्ष हो गये परंतु कई बार ऐसा लगता है कि मै वहीं का वहीं खङा हूं मैने कोई उन्नति नही की।

महर्षि जी बोले जो यात्री ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डब्बे (first class coach) मे सफर करते है वे रात को बार बार जागकर यह नही देखते कि कहीं उनका स्टेशन तो नही आया। वे तो डिब्बे की खिड़की दरवाजे बंद कर निश्चिंतता से सोते है क्योंकि उनके स्टेशन पर उन्हे उतारने की जिम्मेदारी उस डिब्बे के गार्ड की होती है। तुम भी प्रथम श्रेणी के डिब्बे मे सफर कर रहे हो और मै तुम्हारा गार्ड हूं, गुरु गार्ड होते है जिसने ज्ञानी महापुरुषो से दीक्षा ले ली वह फर्स्ट क्लास मे यात्रा कर रहा है इसलिए तुम्हे यह चिंता करने की जरूरत नही कि तुम कहां तक पहुंचे हो?

तुम्हे मंजिल तक ले जाना जिम्मेदारी मेरी है। बस तुम इस ट्रेन मे बैठे रहना उतर गये तो गङबङ हो जाएगी यानि अध्यात्म मार्ग पर सद्गुरु द्वारा चलाई गई ट्रेन मे बैठकर हर शिष्य अपनी मंजिल पर पहुंचता ही है इसलिए स्वयं को गुरु को समर्पित कर शिष्य को चिंता रहित हो जाना चाहिए

 जिज्ञासु ने कहा गुरूवर हम अपने अगले जन्म मे आपको कैसे ढुढ़ पायेंगे? आप तक कैसे पहुंचेगे।

महर्षि जी बोले क्या इस जन्म मे तुने मुझे ढुढ़ लिया क्या? क्या इस जन्म मे तुम खुद मुझ तक पहुंचे हो? नही ना। जैसे एक चरवाहा अपनी भेङो को इकठ्ठा करता है ऐसे ही एक सद्गुरु जब धरा पर आते हैं तो सबसे पहले अपनी भक्त आत्माओ को इकठ्ठा करते हैं यह उनका कार्य है वे खुद एक एक को ढुढ़ते है और उसे अपने तक ले आते हैं।

क्या तुम महाराष्ट्र के उस अध्यापक से नही मिले वह सबको बताता फिरता है कि वह कैसे यहाँ अरूणाचल मे मुझ तक पहुंचा?

कहता है कि एक रात मै उसे सपने मे दिखाई दिया था।

मैने उसे कहा तुम मेरे पास क्यो नही आते?

अध्यापक ने कहा कि तुम हो कौन?

महर्षि रमण।

पर मैने तो आपके बारे मे कभी नही सुना। मुझे यह भी नही पता कि आप कहाँ रहते हैं?

तुम अरूणाचल आ जाओ। तुम मेरे बारे मे पूछना लोग तुम्हे मुझ तक पहुंचने तक का रास्ता बता देंगे

पर मैं तो बहुत गरीब हूं। महाराष्ट्र से अरूणाचल आने तक पैसे नही है मेरे पास,

तुम फला फला स्थान पर जाओ। वहाँ एक सुनार की दुकान है सुनार से कहना कि मैने तुम्हे भेजा है वह किराये के पैसे दे देगा

अगली सुबह अध्यापक उस सुनार के पास पहुंचा और उसे पिछली रात का सपना कह सुनाया। सपना सुनने के बाद बिना कुछ कहे उस सुनार ने किराये की रकम निकाली और अध्यापक को थमा ली और वह मुझ तक पहुंच गया और मैने उसे दीक्षित कर दिया । वह मेरा पुराना शिष्य है कई जन्मो से इस मार्ग पर चल रहा है उसे मंजिल तक लेकर जाना मेरा दायित्व है ।

इसी तरह तुम सब भी मेरे अपने हो तुम सबका दायित्व भी मुझ पर है इसलिए तुम निश्चिंत हो इस मार्ग पर चलो, तुम्हारे हर जन्म मे मै तुम्हे स्वयं खोज लुंगा।

जिज्ञासु ने कहा भगवान आपकी इस अनन्त कृपा का मोल तो हम चुका नही सकते परंतु हम फिर भी गुरु दक्षिणा स्वरूप कुछ देना चाहते है। क्या अर्पित करें? यदि कुछ देना चाहते हो तो एक वचन दो कि तुम अडीगता से इस अध्यात्म मार्ग पर चलते रहोगे। आत्मउन्नति के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहोगे। अज्ञानता के अंधकार से डूबे इस समाज को ज्ञान के दीप से आलोकित करोगे यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी।

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