Tag Archives: Diwali

नूतन वर्ष पर पुण्यमय दर्शन


(नूतन वर्षः 7 नवम्बर  2010)

पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

दीपावली का दिन वर्ष का आखिरी दिन है और बाद का दिन वर्ष का प्रथम दिन है, विक्रम सम्वत् के आरम्भ का दिन है (गुजराती पंचांग अनुसार)। उस दिन जो प्रसन्न रहता है, वर्ष भर उसका प्रसन्नता से जाता है।

‘महाभारत’ भगवान व्यास जी कहते हैं।

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।

हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।

‘हे युधिष्ठिर ! आज नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है, उसका पूरा वर्ष हर्ष में जाता है और जो शोक में रहता है, उसका पूरा वर्ष शोक में व्यतीत होता है।’

दीपावली के दिन, नूतन वर्ष के दिन मंगलमय चीजों का दर्शन करना भी शुभ माना गया है, पुण्य प्रदायक माना गया है। जैसेः

उत्तम ब्राह्मण, तीर्थ, वैष्णव, देव-प्रतिमा, सूर्यदेव, सती स्त्री, संन्यासी, यति ब्रह्मचारी, गौ, अग्नि, गुरु, गजराज, सिंह, श्वेत अश्व, शुक, कोकिल, खंजरीट (खंजन), हंस, मोर, नीलकंठ, शंख पक्षी, बछड़े सहित गाय, पीपल वृक्ष, पति-पुत्रवाली नारी, तीर्थयात्री, दीपक, सुवर्ण, मणि, मोती, हीरा, माणिक्य, तुलसी, श्वेत पुष्प, फल, श्वेत धान्य, घी, दही, शहद, भरा हुआ घड़ा, लावा, दर्पण, जल, श्वेत पुष्पों की माला, गोरोचन, कपूर, चाँदी, तालाब, फूलों से भरी हुई वाटिका, शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा, चंदन, कस्तूरी, कुंकुम, पताका, अक्षयवट (प्रयाग तथा गया स्थित वटवृक्ष), देववृक्ष (गूगल), देवालय, देवसंबंधी जलाशय, देवता के आश्रित भक्त, देववट, सुगंधित वायु, शंख, दुंदुभि, सीपी, मूँगा, स्फटिक, मणि, कुश की जड़, गंगाजी की मिट्टी, कुश, ताँबा, पुराण की पुस्तक, शुद्ध और बीजमंत्रसहित भगवान विष्णु का यंत्र, चिकनी दूब, रत्न, तपस्वी, सिद्ध मंत्र, समुद्र, कृष्णसार (काला) मृग, यज्ञ, महान उत्सव, गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोधूलि, गौशाला, गोखुर, पकी हुई खेती से भरा खेत, सुंदर (सदाचारी) पद्मिनी, सुंदर वेष, वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से विभूषित सौभाग्यवती स्त्री, क्षेमकरी, गंध, दूर्वा, चावल और अक्षत (अखंड चावल), सिद्धान्न (पकाया हुआ अन्न) और उत्तम अन्न-इन सबके दर्शन से पुण्यलाभ होता है।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खंड, अध्यायः 76 एवं 78)

लेकिन जिनके हृदय में परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे साक्षात् कोई लीलाशाहजी बापू जैसे, नरसिंह मेहता जैसे संत अगर मिल जायें तो समझ लेना चाहिए कि भगवान की हम पर अति-अति विशेष, महाविशेष कृपा है।

कबिरा दर्शन संत के साहिब आवे याद।

लेखे में वो ही घड़ी बाकी के दिन बाद।।

जिनको देखकर परमात्मदेव की याद आ जाय, ऐसे हयात महापुरुष अगर मिल जायें तो वह परम लाभकारी, परम कल्याणकारी माना जाता है। चेतन परमात्मा जिनके हृदय में प्रकट हुआ है, ऐसे संत का, सदगुरु का दर्शन जिनको मिल जाता है, उनको तो शिवजी के ये वचन याद करने चाहिएः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोदभवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

हे पार्वती ! उनकी माता धन्य है, उनके पिता धन्य हैं, उनका कुल और गोत्र धन्य है, कुलोदभवः अर्थात् जो उनके कुल में उत्पन्न होंगे वे भी धन्य हैं, क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी-ब्रह्मवेत्ता संतों का दर्शन, उनके वचन और भगवन्नाम के उच्चारण का लाभ उन्हें मिलता है, जिससे अंतःकरण की प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने लगती है।

भगवान श्री कृष्ण ने कहाः

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

‘अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और इस प्रसन्न चित्तवाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।’ गीताः2.65

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 214

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भागवत धर्म का संदेश देता पर्वः दीपावली


दीपावली 5 नवम्बर 2010

(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)

अज्ञानरूपी अंधकार पर ज्ञानरूपी प्रकाश की विजय का संदेश देता है जगमगाते दीपों का उत्सव ‘दीपावली’। उत्सव, ‘उत्’ माना उत्कृष्ट ‘सव’ माना यज्ञ। ऊँचा यज्ञ, उत्कृष्ट यज्ञ इसको बोलते हैं। उत्कृष्ट यज्ञ जीवन की माँग है। उत्सव में दुःख को भूलने का मुख्य उद्देश्य होता है। न दुःख दें, न दुःख याद करें और न दुःख बढ़ें ऐसा कर्म करें, यह है ‘उत्सव’।

जिसके जीवन में उत्सव नहीं है, उसके जीवन में विकास भी नहीं है, नवीनता भी नहीं है, सात्विक मधुरता भी नहीं है और वह आत्मा के करीब भी नहीं है।

तो हमारे जीवन में दीपावली आदि के ऐसे शुभ अवसर इसलिए आते हैं कि राग-द्वेष को भूलकर हम फिर से अपना नया जीवन शुरु करें, जिससे जीवात्मा का मंगल हो, कल्याण हो। तो कल्याणकारी वृत्ति है उत्सव। जिसमें शोक नहीं, दुःख नहीं, द्वेष नहीं, राग नहीं, भय नहीं, चिंता नहीं, चित्त शांत और मधुमय भगवान से भरा हो। पुण्यदर्शन से, पुण्य भाव से, पुण्यमय सुख से चित्त भरा हो, यह दीपावली का उत्सव है।

दीपावली के दिनों में घर की साफ-सफाई करना, नयी चीज लाना, दीये जलाना और मिठाई खाना-खिलाना – ये व्यावहारिक दिवालियाँ तो तुमने देखीं, हमने भी देखीं। तुम भी मनाते हो, हम भी मनाते हैं और प्रोत्साहित करते हैं। लेकिन व्यावहारिक दिवालियों के पीछे आश्रम का उद्देश्य रहा है कि पारमार्थिक दिवाली हो जाये। षडविकारों का दिवाला निकल जाय, षडऊर्मियों का दिवाला निकल जाय, षडऋतुओं के आकर्षण का दिवाला निकल जाय और सारे आकर्षण जहाँ बौने पड़ते हैं, ऐसे आत्मसुख का जगमगाहट का अनुभव हो, यह परम उद्देश्य रहा है मेरा और मैंने सत्संग में दीपावली पर्व और वर्ष का प्रथम दिन मनाने पर भी आत्मसुख की ओर, ज्ञान-प्रकाश की ओर समाज को खींचने का प्रयत्न किया है। जितने अंश में जिसकी अच्छी सूझबूझ है, उतने अंश में वह बातें झेल लेता है और फिर प्रकाश में जीता है।

हम दीपावली की अँधेरी रात को जगमगाहट से भर देते हैं, ऐसे ही अविद्या का अंधकार है। इस अंधकार को भी ज्ञान के प्रकाश से भर देना हमारा पुरुषार्थ है, हमारे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है।

वेद भगवान कहते हैं कि ‘तू परिस्थितियों से, प्रकृति के प्रभाव से दब मरने के लिए पैदा नहीं हुआ है। तू परिस्थितियों के सिर पर पैर रख के अपने अमरत्व को पाकर मुक्तात्मा होने के लिए पैदा हुआ है, इसलिए तू अपना उद्देश्य ऊँचा रख।’

लक्ष्य न ओझल होने पाये

कदम मिलाकर (शास्त्र और गुरु के अनुभव से) चल,

सफलता तेरे कदम चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

नूतन वर्ष के दिन आप पक्का इरादा कर लो कि हमें इसी जन्म में परमात्मा-सुख पाना है, परमात्म ज्ञान पाना है, परमात्म आनन्द पाना है, परमात्म-माधुर्य पाना है। ऐसा अपना साफ हौंसला कर दो।

दूसरा आप विकारी सुखों में गिरो नहीं, परमात्मा का आनंद उभारो। फिर दुनिया का कोई भी सुख आपको फँसायेगा नहीं और कोई भी दुःख आपको दबायेगा नहीं।

तीसरी बात है कि आप अपने जीवन में ज्ञान के दीये जलाओ।

‘शिवगीता’ में प्रार्थना की गयी हैः

अज्ञानतिमिरान्धस्य विषयाक्रान्तचेतसः।

ज्ञानप्रभाप्रदानेन प्रसादं कुरु मे प्रभो।।

‘हे प्रभो ! अज्ञानरूपी अंधकार में अंध बने हुए विषयों से आक्रान्त चित्तवाले मुझको ज्ञान का प्रकाश देकर कृपा करो।’

आज के दिन भगवान से विशेषरूप से प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि हम जीवों पर तीन पाश हैं – तामसी पाश, राजसी पाश और सात्त्विक पाश। आलस्य, निद्रा, शराब-कबाब आदि विकारों में तुच्छ होकर पड़े रहना – ये तामस पाश हैं। कई जीव इनमें फँसे हैं। कुछ राजस पाश हैं –  सत्ता का, धन का, शत्रु को नीचा दिखाने का, यशस्वी बनने का, मरने के बाद अपना नाम करने का। ये सब वृत्तियाँ, ये पाश जीव को बाँधते हैं। तीसरा पाश है सात्त्विक पाश। ‘ऐसी स्थिति बनी रहे, मेरे से बुराई न हो, मेरे लिए ऐसा वातावरण हो, ऐसी स्थिति हो। त्याग होना चाहिए, वैराग्य होना चाहिए, अच्छा ही होना चाहिए। ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा ठीक हुआ, ऐसा बेठीक हुआ है।’ – इस तरह के सात्त्विक पाश में भी आदमी बँधा रहता है। लेकिन ज्ञानमार्ग इन तीनों से पार पहुँचा देता है। सदसच्चाहमर्जुन।

‘हे अर्जुन ! सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं ही हूँ।’ गीता 9.19

आप ज्ञान का दीया जलाओ। दुःख आये तो दुःख के भोगी मत बनो, सुख आये तो सुख के भोगी मत बनो। सुख और दुःख दोनों को साधन मानकर उनका सदुपयोग करो, उनसे पार ले जाने वाली प्रज्ञा को विकसित करो। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि व दुःखं स योगी परमो मतः।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

गीताः 6.32

सुख आ जाय चाहे दुःख आ जाय, योगी परम मतिवाला होता है। सुख-दुःख को देखने वाली मति के धनी मत बन जाओ… ज्ञान के प्रकाश !

चौथी बात आप प्रसन्न रहो, दूसरों की प्रसन्नता में मदद करो। प्रसन्न रहने के लिए सुबह के शुद्ध हवामान में खूब गहरा श्वास लिया, खूब भरा। ‘ॐ शांति, ॐ आनन्द’ का मानसिक जप किया, फिर फूँक मारते हुए चिंता को, हाई बी.पी., लो बी.पी. आदि के रोगों, तनावों को बाहर छोड़ दिया। फिर खूब गहरा श्वास लिया और फिर जोर से फूँक मार दी। ऐसे 25 बार फूँक मार के रोग, भय, चिंता, बीमारियों को भगा दो।

ज्ञान के प्रकाश में जियो। जैसे घर की साफ-सफाई करते हो, ऐसे ही उद्देश्य की साफ सफाई करना, जैसे घर में नयी चीज लाते हो, ऐसे ही अपने जीवन में नया नजरिया लाना, दिये जलाना तो ज्ञान प्रकाश में जीना। यस्य ज्ञानमयं तपः…..

ज्ञानमय तप में जियो। हजारों मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों में, इधर-उधर जाओ फिर भी हृदय मंदिर में ज्ञान के दीप जलाये बिना छुटकारा नहीं है, कल्याण नहीं है।

पर्वों का पुंज है दीपावली का उत्सव। धनतेरस के दिन धन्वंतरि महाराज खारे-खारे सागर में से औषधिरूप अमृत लेकर प्रकट हुए थे। आपका जीवन में भी औषधियों के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य सम्पदा से समृद्ध हो।

नरक चतुर्दशी (काली चौदस) और दीपावली की रात जप-तप के लिए बहुत मुक्तिकारक मुहूर्त माना गया है। नरक चतुर्दशी की रात्रि मंत्र-जापकों के लिए वरदान स्वरूप है। इस रात्रि में सरसों के तेल अथवा घी के दीये से काजल बनाना चाहिए। इस काजल को आँखों में आँजने से विशेष लाभ होता है।

लक्ष्मी जी की प्रसन्नता के लिए काली चौदस की रात्रि में श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा। मंत्र का जप करने से लाभ होता है।

परमात्मप्राप्ति की इच्छावाले को काली चौदस की रात्रि में श्रद्धा एवं तत्परता से ॐ का, अपने गुरुमंत्र का अर्थसहित जप करना चाहिए।

कुछ नासमझ लोग इन दिनों में पिकनिक मनाने जाते हैं। अरे बुद्धू ! दीपावली के दिनों में नूतन वर्ष के दिनों में अगर लवर-लवरी होकर घूमने जाओगे, रॉक और पॉप में झूमोगे तो जीवनशक्ति का ह्रास ज्यादा होगा। पर्व के दिन विकारी व्यवहार करने वालों की खैर नहीं ! बहुत ज्यादा हानि होती है। बाद में उनको रोना पड़ता है। पर्व के दिनों में तो जप, ध्यान, संयम, साधना करके बुद्धि के प्रकाश को बढ़ाना चाहिए।

दीपावली की रात्रि को कुबेर, लक्ष्मी पूजन के साथ-साथ बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती जी का भी पूजन किया जाता है, जिससे लक्ष्मी के साथ-साथ आपको विद्या भी मिले। विद्या भी केवल पेट भरने की विद्या नहीं, वरन् वह विद्या जिससे आपके जीवन में मुक्ति के पुष्प महकें। आज के दिन सप्तधान्य उबटन (गेहूँ, जौ, चावल, चना, मूँग, उड़द और तिल से बना मिश्रण) से स्नान करने पर पुण्य, प्रसन्नता और आरोग्य की प्राप्ति होती है।

पहले के जमाने में गाँवों में दीपावली के दिनों में वर्ष के प्रथम दिन नीम और अशोक वृक्ष के पत्तों तोरण (बंदनवार) बाँधते थे, जिससे कि वहाँ से लोग गुजरें तो वर्ष भर प्रसन्न रहें, निरोग रहें। अशोक और नीम के पत्तों में रोगप्रतिकारक शक्ति होती है। उस तोरण के नीचे से गुजरकर जाने से वर्ष भर रोगप्रतिकारक शक्ति बनी रहती है। वर्ष के प्रथम दिन आप भी अपने घरों में तोरण बाँधो तो अच्छा है।

आप स्वस्थ रहो, सुखी रहो, सम्मानित रहो और जीवन की शाम होने के पहले जीवनदाता के आनंद को प्रकट करो। जीवनदाता के गुण को, स्वभाव को जानकर आप एकदम स्वस्थ हो जाओ, ‘स्व’ में स्थित हो जाओ।

आदिवासियों में दीपावली के दिन मृतकों को याद करके रोने की परम्परा न जाने किस बेवकूफ ने शुरू करा दी ! वर्ष के प्रथम दिन जो दुःखी रहता है, शोक करता है, वह वर्ष भर दुःखी ही दुःखी रहता है। पर्व के दिन रोना, दुःखी होना, शोक करना मानो पूरे वर्ष के लिए दुःख, शोक को बुलाना है। शोक आत्मा का स्वभाव नहीं है। शोक करना हमारा कर्तव्य नहीं है। बीती हुई चीज, बीती हुई घटना को ‘ऐसा ठीक नहीं हुआ।’ – ऐसा आरोप करके बेवकूफी सिर पर उठाकर आदमी शोक करता है और इस बेवकूफी से आदमी और बोझीला हो जाता है, और कमजोर हो जाता है। बीते हुए का शोक करना मूर्खता है।

दीपावली वर्ष का आखिरी दिन है और अगला दिन नूतन वर्ष का प्रथम दिन है। वर्ष प्रतिपदा विक्रम सम्वत् (गुजराती) के प्रारम्भ का दिन है। भारतीय संस्कृति को खतरा पहुँचाने वाले लोगों को मार भगाने वाले राजा विक्रमादित्य थे। समाज का शोषम करने वाले लोगों का दमन करके उन्होंने समाज में सुख शान्ति और भारतीय संस्कृति की दिव्यता प्रकटे, ऐसे बहुत से काम किये।

भारतीय संस्कृति के दिव्य संस्कारों को, संयम सदाचार को महत्त्व दे के विश्वमानव को उन्नत करने में उनका प्रचार-प्रसार करें। सब स्वस्थ रहें, सबका मंगल हो और स्नेहबल, मनोबल, बुद्धिबल का मूल आत्मबल जगाने के लिए आत्मदेव की उपासना करें।

दीपावली पर समृद्धि प्रदायक ‘गौ-पूजन’

धर्मसिन्धु आदि शास्त्रों के अनुसार गोवर्धन-पूजा के दिन (दि. 6 नवम्बर को) गायों को सजाकर, उनकी पूजा करके उन्हें भोज्य पदार्थ आदि अर्पित करने का विधान है। गौ-पूजन का मंत्रः

लक्ष्मीर्या लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता।

घृतं वहति यज्ञार्थ मम पापं व्यपोहतु।।

धन-धान्य एवं सर्व प्रकार की समृद्धि देने वाली गौमाता का समाज के द्वारा रक्षण एवं पालन-पोषण हो, इस उद्देश्य से भारत के ऋषि-मुनियों ने यह कितनी दूरदृष्टि पूर्व व्यवस्था की है !

नारकीय यातनाओं से रक्षा हेतु

यद्यपि कार्तिक मास में तेल नहीं लगाना चाहिए, फिर भी नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल-मालिश (तैलाभ्यंग) करके स्नान करने का विधान है। ‘सन्नतकुमार संहिता’ एवं धर्मसिन्धु ग्रन्थ के अनुसार इससे नारकीय यातनाओं से रक्षा होती है। जो इस दिन सूर्योदय के बाद स्नान करता है उसके शुभकर्मों का नाश हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 18, 19, 20, 21 अंक 214

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

वास्तविक लाभ पाने का दिनः लाभपंचमी


(लाभपंचमीः 23 अक्तूबर 2009)

(पूज्य बापू जी का पावन सन्देश

कार्तिक शुक्ल पंचमी ‘लाभपंचमी’ कहलाती है । इसे ‘सौभाग्य पंचमी’ भी कहते हैं । जैन लोग इसे ‘ज्ञान पंचमी’ कहते हैं । व्यापारी लोग अपने धंधे का मुहूर्त आदि लाभपंचमी को ही करते हैं । लाभपंचमी के दिन धर्मसम्मत जो भी धंधा शुरु किया जाता है उसमें बहुत-बहुत बरकत आती है । यह सब तो ठीक है लेकिन संतों-महापुरुषों के मार्गदर्शन-अनुसार चलने का निश्चय करके भगवद्भक्ति के प्रभाव से काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों विकारों के प्रभाव को खत्म करने का दिन है लाभपंचमी । महापुरुष कहते हैं-

दुनिया से ऐ मानव ! रिश्त-ए-उल्फत (प्रीति) को तोड़ दे ।

जिसका है तू सनातन सपूत, उसी से नाता जोड़ दे ।।

‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’ – इस  प्रकार थोड़ा भगवद्चिंतन, भगवत्प्रार्थना, भगवद्स्तुति करके संसारी आकर्षणों से, विकारों से अपने को बचाने का संकल्प करो ।

1. लाभपंचमी के पाँच अमृतमय वचनों को याद रखोः

‘पहली बातः भगवान हमारे हैं, हम भगवान के हैं’ – ऐसा मानने से भगवान में प्रीति पैदा होगी । ‘शरीर, घर, संबंधी जन्म के पहले नहीं थे और मरने के बाद नहीं रहेंगे लेकिन परमात्मा मेरे साथ सदैव हैं’ – ऐसा सोचने से आपको लाभपंचमी के पहले आचमन द्वारा अमृतपान का लाभ मिलेगा ।

दूसरी बातः हम भगवान की सृष्टि में रहते हैं, भगवान की बनायी हुई दुनिया में रहते हैं । तीर्थभूमि में रहने से पुण्य मानते हैं तो जहाँ हम-आप रह रहे हैं वहाँ की भूमि भी तो भगवान की है, सूरज, चाँद, हवाएँ, श्वास, धड़कन सब के सब भगवान के हैं, तो हम तो भगवान की दुनिया में, भगवान के घर में रहते हैं । मगन निवास, अमथा निवास, गोकुल निवास ये सब निवास ऊपर-ऊपर से हैं लेकिन सब-के-सब भगवान के निवास में ही रहते हैं । यह सबको पक्का समझ लेना चाहिए । ऐसा करने से आपके अंतःकरण में भगवद्धाम में रहने का पुण्यभाव जगेगा ।

तीसरी बातः आप जो कुछ भी भोजन करते हैं भगवान का सुमिरन करके, भगवान को मानसिक रूप से भोग लगा के करें । इससे आपका पेट तो भरेगा, हृदय भी भगवद्भाव से भर जायेगा ।

चौथी बातः माता-पिता की, गरीब की, पड़ोसी की, जिस किसी की सेवा करो तो ‘यह बेचारा है… मैं इसकी सेवा करता हूँ… मैं नहीं होता तो इसका क्या होता….’ ऐसा नहीं सोचो, भगवान के नाते सेवाकार्य कर लो और अपने को कर्ता मत मानो ।

पाँचवीं बातः अपने तन-मन को, बुद्धि को विशाल बनाते जाओ । घर से, मोहल्ले से, गाँव से, राज्य से, राष्ट्र से भी आगे विश्व में अपनी मति को फैलाते जाओ और ‘सबका मंगल, सबका भला हो, सबका कल्याण हो, सबको सुख-शांति मिले, सर्वे भवन्तु सुखिनः….’ इस प्रकार की भावना करके अपने दिल को बड़ा बनाते जाओ । परिवार के भले के लिए अपने भले का आग्रह छोड़ दो, समाज के भले के लिए परिवार के हित का आग्रह छोड़ दो, गाँव के लिए पड़ोस का, राज्य के लिए गाँव का, राष्ट्र के लिए राज्य का, विश्व के लिए राष्ट्र का मोह छोड़ दो और विश्वेश्वर के साथ एकाकार होकर बदलने वाले विश्व में सत्यबुद्धि तथा उसका आकर्षण और मोह छोड़ दो । तब ऐसी विशाल मति जगजीत प्रज्ञा की धनी बन जायेगी ।

मन के कहने में चलने से लाभ तो क्या होगा हानि अवश्य होगी क्योंकि मन इन्द्रिय-अनुगामी है, विषय-सुख की ओर मति को ले जाता है । लेकिन मति को मतीश्वर के ध्यान से, स्मरण से पुष्ट बनाओगे तो वह परिणाम का विचार करेगी, मन के गलत आकर्षण से सहमत नहीं होगी । इससे मन को विश्रांति मिलेगी, मन भी शुद्ध-सात्त्विक होगा और मति को परमात्मा में प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलेगा, परम मंगल हो जायेगा ।

लाभपंचमी के ये पाँच लाभ अपने जीवन में ला दो ।

2 लाभपंचमी की दूसरी पाँच बातें-

1. अपने जीवन में कर्म अच्छे करना ।

2. आहार शुद्ध करना ।

3. मन को थोड़ा नियंत्रित करना कि इतनी देर जप में, ध्यान मे बैठना है तो बैठना है, इतने मिनट मौन रहना है तो रहना है ।

4. शत्रु और मित्र के भय का प्रसंग आये तो सतत जागृत रहना । मित्र नाराज न हो जाय, शत्रु ऐसा तो नहीं कर देगा इस भय को तुरंत हटा दो ।

5. सत्य और असत्य के बीच के भेद को दृढ़ करो । शरीर मिथ्या है । शरीर सत् भी नहीं, असत् भी नहीं । असत् कभी नहीं होता और सत् कभी नहीं मिटता, मिथ्या हो-होके मिट जाता है । शरीर मिथ्या है, मैं आत्मा सत्य हूँ । सुख-दुःख, मान-अपमान, रोग-आरोग्य सब मिथ्या है लेकिन आत्मा-परमात्मा सत्य है । लाभपंचमी के दिन इसे समझकर सावधान हो जाना चाहिए ।

3. पाँच काम करने में कभी देर नहीं करनी चाहिएः

1. धर्म का कार्य करने में कभी देर मत करना ।

2. सत्पात्र मिल जाय तो दान-पुण्य करने में देर नहीं करना ।

3. सच्चे संत के सत्संग, सेवा आदि में देर मत करना ।

4. सत्शास्त्रों का पठन, मनन, चिंतन तथा उसके अनुरूप आचरण करने में देर मत करना ।

5. भय हो तो भय को मिटाने में देर मत करना । निर्भय नारायण का चिंतन करना भय जिस कारण से होता है उस कारण को हटाना । यदि शत्रु सामने आ गया है, मृत्यु का भय है अथवा शत्रु जानलेवा कुछ करता है तो उससे बचने में अथवा उस पर वार करने में भय न करना । यह ‘स्कंद पुराण’ में लिखा है । तो विकार, चिंता, पाप-विचार ये सब भी शत्रु हैं, इनको किनारे लगाने में देर नहीं करनी चाहिए ।

4. पाँच कर्मदोषों से बचना चाहिएः

1. नासमझीपूर्वक कर्म करने से बचें, ठीक से समझकर फिर काम करें ।

2. अभिमानपूर्वक कर्म करने से बचें ।

3 रागपूर्वक अपने को कही फँसायें नहीं, किसी से संबंध जोड़े नहीं ।

4. द्वेषपूर्ण बर्ताव करने से बचें ।

5. भयभीत होकर कार्य करने से बचें । इन पाँच दोषों से रहित तुम्हारे कर्म भी लाभपंचमी को पंचामृत हो जायेंगे ।

5. बुद्धि में पाँच बड़े भारी सद्गुण हैं, उनको समझकर उनसे लाभ उठाना चाहिए ।

1. अशुभ वृत्तियों का नाश करने की, शुभ की रक्षा करने की ताकत बुद्धि में है ।

2. चित्त को एकाग्र करने की शक्ति बुद्धि में है । श्वासोच्छवास की गिनती से, गुरुमूर्ति, ॐकार अथवा स्वस्तिक पर त्राटक करने से चित्त एकाग्र होता है और भगवान का रस भी आता है ।

3. उत्साहपूर्वक कोई भी कार्य किया जाता है तो सफलता जरूर मिलती है ।

4. अमुक कार्य करना है कि नहीं करना है, सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा, हितकर-अहितकर इसका बुद्धि ही निर्णय करेगी, इसलिए बुद्धि को स्वच्छ रखना ।

5. निश्चय करने की शक्ति भी बुद्धि में है । इसलिए बुद्धि को जितना पुष्ट बनायेंगे, उतना हर क्षेत्र में आप उन्नत हो जायेंगे ।

तो बुद्धिप्रदाता भगवान सूर्यनारायण को प्रतिदिन अर्घ्य देना और उन्हें प्रार्थना करना कि ‘मेरी बुद्धि में आपका निवास हो, आपका प्रकाश हो ।’ इस प्रकार करने से तुम्हारी बुद्धि में भगवद्सत्ता, भगवद्ज्ञान का प्रवेश हो जायेगा ।

6. लाभपंचमी को भगवान को पाने के पाँच उपाय भी समझ लेनाः

1. ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं । मुझे इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति करनी है ।’ – यह भगवत्प्राप्ति का भाव जितनी मदद करता है, उतना तीव्र लाभ उपवास, व्रत, तीर्थ, यज्ञ से भी नहीं होता । और फिर भगवान के नाते सबकी सेवा करो ।

2. भगवान के श्रीविग्रह को देखकर प्रार्थना करते-करते गद्गद होने से हृदय में भगवदाकार वृत्ति बनती है ।

3. सुबह नींद से उठो तो एक हाथ तुम्हारा और एक प्रभु का मानकर बोलोः ‘मेरे प्रभु ! मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो….. मेरे हो न… हो न…?’ ऐसा करते हुए जरा एक-दूसरे का हाथ दबाओ और भगवान से वार्तालाप करो । पहले दिन नहीं तो दूसरे दिन, तीसरे दिन, पाँचवें, पंद्रहवें दिन अंतर्यामी परमात्मा तुम पर प्रसन्न हो जायेंगे और आवाज आयेगी कि ‘हाँ भाई ! तू मेरा है ।’ बस, तुम्हारा तो काम हो गया !

4. गोपियों की तरह भगवान का हृदय में आवाहन, चिंतन करो और शबरी की तरह ‘भगवान मुझे मिलेंगे’ ऐसी दृढ़ निष्ठा रखो ।

5. किसी के लिए अपने हृदय में द्वेष की गाँठ मत बाँधना, बाँधी हो तो लाभपंचमी के पाँच-पाँच अमृतमय उपदेश सुनकर वह गाँठ खोल देना ।

जिसके लिए द्वेष है वह तो मिठाई खाता होगा, हम द्वेषबुद्धि से उसको याद करके अपना हृदय क्यों जलायें ! जहर जिस बोतल में होता है उसका नहीं बिगाड़ता लेकिन द्वेष तो जिस हृदय में होता है उस हृदय का सत्यानाश करता है । स्वार्थरहित सबका भला चाहें और सबके प्रति भगवान के नाते प्रेमभाव रखें । जैसे माँ बच्चे को प्रेम करती है तो उसका मंगल चाहती है, हित चाहती है और मंगल करने का अभिमान नहीं लाती, ऐसा ही अपने हृदय को बनाने से तुम्हारा हृदय भगवान का प्रेमपात्र बन जायेगा ।

हृदय में दया रखनी चाहिए । अपने से छोटे लोग भूल करें तो दयालु होकर उनको समझायें, जिससे उनका पुण्य बढ़े, उनका ज्ञान बढ़े । जो दूसरों का पुण्य, ज्ञान बढ़ाते हुए हित करता है वह यशस्वी हो जाता है और उसका भी हित अपने-आप हो जाता है । लाभ-पंचमी के दिन इन बातों को पक्का कर लेना चाहिए ।

धन, सत्ता, पद-प्रतिष्ठा मिल जाना वास्तविक लाभ नहीं है । वास्तविक लाभ तो जीवनदाता से मिलाने वाले सद्गुरु के सत्संग से जीवन जीने की कुंजी पाकर, उसके अनुसार चलके लाभ-हानि, यश-अपयश, विजय-पराजय सबमें सम रहते हुए आत्मस्वरूप में विश्रांति पाने में है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2009, पृष्ठ संख्या 21-23 अंक 202

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ