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Deepavali – The Festival of Lights


 

In the days of Deepavali festival, we do the following four things:

1. Clean our houses, etc.
2. Buy new things
3. Eat & distribute sweets
4. Light Lamps & do Lakshmi Pooja

So, the first work is – houses, shops, factories, etc. have to be cleaned during the days of Diwali. Similarly the blessed ones, who realize the importance of purifying their heart, keep it thoroughly illuminated by the Light of Knowledge imparted by the Guru. Recollection of God, faith, Jap, meditation and selfless actions clean (purify) one’s heart, thereby putting an end to all his miseries.

The second work is – bringing in new things. To attain God-realization, one should adopt some such divine and pious vow or spiritual discipline as would be a direct means to Self-Realization. We get overwhelmed by trivial matters, and succumb to the fear of pain and desire for pleasure. No! Just as Gandhiji took vows in his life – a vow to observe a day long silence once a week, to observe celibacy, to speak the truth alone, to pray to God – similarly, we too should take some vrat in our life, by sticking to which, we may progress towards our goal with determination, and evolve our divine part.

The third thing is – eating & distributing sweets. Along with external sweets, the sweetness of meditation on the divine inner Self, that of Vedic contemplation, as well as of the knowledge imparted by the Guru is essential. “Vaasudeva is all that is…” – The more the people became ignorant of this Advaita Gyan (Knowledge of the non-dual Self), and the spirit of “All in One and One in All”, the more they got mired in misery. A sweet like SadGuru’s knowledge is a privilege, a treasure, strictly reserved for the worthy disciple.

The fourth work is – to light lamps, i.e. light the lamp of “witness consciousness”, that of the Ultimate Knowledge. If you get sorrow or pleasure, it is bound to pass away, but “Who am ‘I’ that remains constant in past, present & future?” – such practice of Self-enquiry will kindle the lamp of Knowledge. The Real Self, the Supreme Soul is immortal; while the body is destined to die anyway. We are the eternal children of the Bliss-personified Lord, and May we live in the effulgence of the Supreme Self, discarding the wrong identification with the body, and the folly of drowning ourselves in sorrows and pleasures.

Deepavali is the birthday of Lakshmiji. On this day, we should pray to Her, “O Mother! That Who is dear to You, may also be dear to me”. And it is Lord Narayan, who is dear to Maa Lakshmi. If Lord Narayan becomes dear to us, Lakshmiji will obviously be pleased with us & bestow Her blessings upon us.

During Diwali, Goddess Saraswati is also worshipped along with Goddess Lakshmi, so that we may attain learning as well, along with wealth. Not just bread-winning education, but also the Knowledge that makes our life fragrant with the flower of liberation.

माँ लक्ष्मी का निवास कहाँ ?


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

दीपावली- 28 अक्टूबर  से  31 अक्टूबर 2016

युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछाः

“दादा जी ! मनुष्य किन उपायों से दुःखरहित होता है ? किन उपायों से जाना जाय कि यह मनुष्य दुःखी होने  वाला है और किन उपायों से जाना जाय कि मनुष्य सुखी होने वाला है ? इसका भविष्य उज्जवल होने वाला है, यह कैसे पता चलेगा और यह भविष्य में पतन की खाई में गिरेगा, यह कैसे पता चलेगा ?”

इस विषय में एक प्राचीन कथा सुनाते हुए भीष्म जी ने कहाः

एक बार इन्द्र, वरुण आदि विचरण कर रहे थे। वे सूर्य की प्रथम किरण से पहले ही सरिता के तट पर पहुँचे तो देवर्षि नारद भी  वहाँ विद्यमान थे। देवर्षि नारद ने सरिता में गोता मारा, स्नान किया और मौनपूर्वक जप करते-करते सूर्यनारायण को अर्घ्य दिया। देवराज इन्द्र ने भी ऐसा ही किया।

इतने में सूर्यनारायण की कोमल किरणें उभरने लगीं और एक कमल पर देदीप्यमान प्रकाश छा गया। इंद्र और नारद जी ने उस प्रकाशपुंज की ओर गौर से देखा तो माँ लक्ष्मी जी ! दोनों ने माँ लक्ष्मी का अभिवादन किया। फिर पूछाः

“माँ ! समुद्र-मंथन के बाद आपका प्राकट्य हुआ था।

ॐ नमः भाग्यलक्ष्मी च विद्महे।

अष्टलक्ष्मी च धीमहि।

तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।

ऐसा कहकर लोग आपको पूजते हैं। मातेश्वरी ! आप ही बताइये कि आप किस पर प्रसन्न होती हैं ? किसके घर में आप स्थिर रहती हैं और किसके घर से आप विदा हो जाती है ? आपकी संपदा किसको विमोहित करके संसार में भटकाती है और किसको असली संपदा भगवान नारायण से मिलाती है ?”

माँ लक्ष्मीः “देवर्षि नारद और देवेंद्र ! तुम दोनों ने लोगों की भलाई के लिए, मानव-समाज के हित के लिए प्रश्न किया है। अतः सुनो।

पहले मैं दैत्यों के पास रहती थी क्योंकि वे पुरुषार्थी थे, सत्य बोलते थे, वचन के पक्के थे अर्थात् मुकरते नहीं थे। कर्त्तव्यपालन में दृढ़ थे, एक बार जो निश्चय कर लेते थे, उसमें तत्परता से जुट जाते थे। अतिथि का सत्कार करते थे। निर्दोषों को सताते नहीं थे। सज्जनों का आदर करते थे और दुष्टों से लोहा लेते थे। जबसे उनके सदगुण दुर्गुणों में बदलने लगे, तबसे मैं तुम्हारे पास देवलोक में आने लगी।

समझदार लोग उद्योग से मुझे पाते हैं, दान से मेरा विस्तार करते हैं, संयम से मुझे स्थिर बनाते हैं और सत्कर्म में मेरा उपयोग करके शाश्वत हरि को पाने का यत्न करते हैं।

जहाँ सूर्योदय से पहले स्नान करने वाले, सत्य बोलने वाले, वचन में दृढ़ रहने वाले, पुरुषार्थी, कर्त्तव्यपालन में दृढ़ता रखने वाले, अकारण किसी को दंड न देने वाले रहते हैं, जहाँ उद्योग, साहस, धैर्य और बुद्धि का विकास होता है और भगवत्परायणता होती है, वहाँ मैं निवास करती हूँ।

देवर्षि ! जो भगवान के नाम का जप करते हैं, स्मरण करते हैं और श्रेष्ठ आचार करते हैं, वहाँ मेरी रूचि बढती है। पूर्वकाल में चाहे कितना भी पापी रहा हो, अधम और पातकी रहा हो परंतु जो भी अभी संतत और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ करता है, मैं उसके जीवन में भाग्यलक्ष्मी, सुखदलक्ष्मी, करुणालक्ष्मी और औदार्यलक्ष्मी के रूप में आ विराजती हूँ।

जो सुबह झाड़ू बुहारी करके घर को साफ सुथरा रखते हैं, इन्द्रियों को संयम में रखते हैं, भगवान के प्रति श्रद्धा रखते हैं, किसी की निंदा न तो करते हैं न ही सुनते हैं, जरा-जरा बात में क्रोध नहीं करते हैं, जिनका दयालु स्वभाव है और जो विचारवान हैं उनके वहाँ मैं स्थिर होकर रहती हूँ।

जो मुझे स्थिर रखना चाहते हैं, उन्हें रात्रि को घर में झाड़ू-बुहारी नहीं करनी चाहिए।

जो सरल हैं, सुदृढ़ भक्तिवाले हैं, परोपकार को नहीं भूलते हैं, मृदुभाषी हैं, विचार सहित विनम्रता का सदगुण जहाँ है, वहाँ मैं निवास करती हूँ।

जो विश्वासपात्र जीवन जीते हैं, पर्वों के दिन घी और मांगलिक वस्तुओं का दर्शन करते हैं, धर्मचर्चा करते-सुनते हैं, अति संग्रह नहीं करते और अति दरिद्रता में विश्वास नहीं करते, जो हजार-हजार हाथ से लेते हैं और लाख-लाख हाथ से देने को तत्पर रहते हैं, उन पर मैं प्रसन्न रहती हूँ।

जो दिन में अकारण नहीं सोते, विषादग्रस्त नहीं होते, भयभीत नहीं होते, रोग से ग्रस्त व्यक्तियों को सांत्वना देते हैं, पीड़ित व्यक्तियों को, थके-हारे व्यक्तियों को ढाढ़स बँधाते हैं, ऐसों पर मैं प्रसन्न रहती हूँ।

जो दुर्जनों के संग से अपने को बचाते हैं, उनसे न तो द्वेष करते हैं न प्रीति और सज्जनों का संग आदरपूर्वक करते हैं और बार-बार निस्संग नारायण में ध्यानस्थ हो जाते हैं, उनके वहाँ मैं बिना बुलाये वास करती हूँ।

जिनके पास विवेक है, जो उत्साह से भरे हैं, जो अहंकार से रहित हैं और आलस्य-प्रमाद जहाँ फटकता तक नहीं, वहाँ मैं प्रयत्नपूर्वक रहती हूँ।

जो अप्रसन्नता के स्वभाव को दूर फेंकते हैं, दोषदृष्टि के स्वभाव से किनारा कर लेते हैं, अविवेक से किनारा कर लेते हैं, असंतोष से अपने को उबार लेते हैं, जो तुच्छ कामनाओं में नहीं गिरते, देवेंद्र ! उन पर मैं प्रसन्न रहती हूँ।

जिसका मन जरा-जरा बात में खिन्न होता है, जो जरा-जरा बात में अपने वचनों से मुकर जाता है, दीर्घसूत्री होता है, आलसी होता है, दगाबाज और पराश्रित होता है, राग-द्वेष में पचता रहता है, ईश्वर-गुरु-शास्त्र से विमुख होता है, उससे मैं मुख मोड़ लेती हूँ।

तुलसीदास जी ने भी कहा है

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

जहाँ कुमति तहँ बिपती निदाना।।

जहाँ सत्वगुण होता है, सुमति होती है, व हाँ संपत्ति आती है और जहाँ कुमति होती ह,  वहाँ दुःख होता है। जीवन में अगर सत्त्व है तो लक्ष्मीप्राप्ति का मंत्र चाहे जपो चाहे न भी जपो…..

क्रियासिद्धि वसति सत्त्वे महत्तां नोपकरणे।

सफलता साधनों में नहीं होती वरन् सत्त्व में निवास करती है। जिस व्यक्ति में सात्त्विकता होती है, दृढ़ता होती है, पौरूष होता है, पराक्रम आदि सदगुण होते हैं, वही सफलता पाता है।

जो सुमति का आदर करता हुआ जीवन जीता है, उसका भविष्य उज्जवल है और जो कुमति का आश्रय लेकर सुखी होने की कोशिश करेगा तो वह यहाँ नहीं अमेरिका भी चला जाय, थोड़े बहुत डॉलर भी कमा ले तो भी दुःखी ही रहेगा।

जो छल-कपट और स्वार्थ का आश्रय लेकर, दूसरों के शोषण का आश्रय लेकर सुखी होना चाहता है, उसके पास वित्त आ सकता है, धन आ सकता है परंतु लक्ष्मी नहीं आ सकती, महालक्ष्मी नहीं आ सकती। वित्त से बाह्य सुख के साधनों की व्यवस्था हो सकती है, धन से नश्वर भोग के पदार्थ मिल सकते हैं, लक्ष्मी से स्वर्गीय सुख मिल सकता है और महालक्ष्मी से महान परमात्म-प्रसाद की, परमात्म-शांति की प्राप्ति हो सकती है।

हम दीवाली मनाते हैं, एक दूसरे के प्रति शुभकामना करते हैं, एक दूसरे के लिए शुभचिंतन करते हैं – यह तो ठीक है, परंतु साथ-ही-साथ सार वस्तु का भी ध्यान रखना चाहिए कि ‘एक दीवाली बीती अर्थात् आयुष्य का एक वर्ष कम हो गया।’

दीवाली का दिन बीता अर्थात् आयु का एक दिन और बीत गया…. आज वर्ष का प्रथम दिन है, यह भी बीत जायेगा…. इसी प्रकार आयुष्य बीता जा रहा है…. चाहे फिर संपत्ति भोगकर आयुष्य नष्ट करो, चाहे कम संपत्ति में आयु नष्ट करो, चाहे गरीबी में करो…. किसी भी कीमत पर आयु को बढ़ाया नहीं जा सकता।

सात्त्विक बुद्धिवाला मनुष्य जानता है कि सब कुछ देकर भी आयु बढ़ायी नहीं जा सकती। मान लो, किसी की उम्र 50 वर्ष है। 50 वर्ष खर्च करके जो कुछ मिला है वह सब वापस दे दे तो भी 50 दिन आयु बढ़ने वाली नहीं है। इतना कीमती समय है। समय अमृत है, समय मधु है, समय आत्मा की मधुरता पाने के लिए, भगवद् रस पाने के लिए है। जो समय को इधर-उधर बरबाद कर देता है समझो, उसका भविष्य दुःखदायी है।

जो समय का तामसी उपयोग करता है, उसका भविष्य पाशवी योनियों में, अंधकार में जायेगा। जो समय का राजसी उपयोग करता है, उसका भविष्य सुख सुविधाओं में बीतेगा। जो समय का सात्त्विक उपयोग करता है उसका भविष्य सात्त्विक सुख वाला होगा। परंतु जो समय का उपयोग परब्रह्म परमात्मा के लिए करता है, वह उस पाने में भी सफल हो जायेगा।

जो लोग जूठे मुँह रहते हैं, मैले कुचैले कपड़े पहनते हैं, दाँत मैले-कुचैले रखते हैं, दीन-दुःखियों को सताते हैं, माता-पिता की दुआ नहीं लेते, शास्त्र और संतों को नहीं मानते – ऐसे हीन स्वभाव वाले लोगों का भविष्य दुःखदायी है।

कलियुग में लोग दूध खुला रख देते हैं, घी को जूठे हाथ से छूते हैं, जूठा हाथ सिर को लगाते हैं, जूठे मुँह शुभ वस्तुओं का स्पर्श कर लेते हैं, उनके घर का धन-धान्य और लक्ष्मी कम हो जाती है।

जो जप-ध्यान प्राणायाम आदि करते हैं, आय का कुछ हिस्सा दान करते हैं, शास्त्र के ऊँचे लक्ष्य को समझने के लिए महापुरुषों का सत्संग आदर सहित सुनते हैं और सत्संग की कोई बात जँच जाय तो पकड़कर उसके अनुसार अपने को ढालने में लगते हैं, समझो उनका भविष्य मोक्षदायक है। उनके भाग्य में मुक्ति लिखी है, उनके भाग्य में परमात्मा लिखे हैं, उनके भाग्य में परम सुख लिखा है।

कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता। मानव अपने भाग्य का आप विधाता है। तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

को काहू को नहिं सुख दुःख कर दाता।

निज कृत करम भोगतहिं भ्राता।।

यह समझ आ जाय तो आप दुःखों से बच जाओगे। आपकी समझ बढ़ जाय, आप अपने हलके स्वभाव पर  विजय पा लो तो लक्ष्मी को बुलाना नहीं पड़ेगा वरन् लक्ष्मी आपके घर में स्वयं निवास करेगी। जहाँ नारायण निवास करते हों, वहाँ लक्ष्मी को अलग से बुलाना पड़ता है क्या ? जहाँ व्यक्ति जाता है, वहाँ अपनी छाया को बुलाता है क्या ? छाया तो उसके साथ ही रहती है। ऐसे ही जहाँ नारायण के लिए प्रीति है, नारायण के निमित्त आपका पवित्र स्वभाव बन गया है वहाँ संपत्ति, लक्ष्मी अपने-आप आती है।

भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं- “युधिष्ठिर ! किस व्यक्ति का भविष्य उज्जवल है, किसका अंधकारमय है ? इस विषय में तुमने जो प्रश्न किया उसके संदर्भ में मैंने तुम्हें माँ लक्ष्मी के साथ देवेंद्र और देवर्षि नारद का संवाद सुनाया। इस संवाद को जो भी सुनेगा, सुनायेगा उस पर लक्ष्मी जी प्रसन्न रहेंगी और उसे नारायण की भक्ति प्राप्त होगी।

वर्ष के प्रथम दिन जो इस प्रकार की गाथा गायेगा, सुनेगा, सुनायेगा उसके जीवन में संतोष, शांति, विवेक, भगवद्भक्ति, प्रसन्नता और प्रभुस्नेह प्रकट होगा। इस संवाद को सुनने-सुनाने से जीवों का सहज में ही मंगल होगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या25-28, अंक 198

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महालक्ष्मी को कैसे बुलायें ?


लक्ष्मी चार प्रकार की होती है। एक होता है वित्त, दूसरा होता है धन, तीसरी होती है लक्ष्मी और चौथी होती है महालक्ष्मी जिस धन से भोग-विलास, आलस्य, दुराचार हो वह पापलक्ष्मी, अलक्ष्मी है। जिस धन से सुख-वैभव भोगा जाय वह वित्त है। जिस धन से सुख-वैभव भोगा जाय वह वित्त है। जिस धन से कुटुम्ब-परिवार को भी सुखी रखा जाय वह लक्ष्मी है और जिस धन से परमात्मा की सेवा हो, परमात्म तत्त्व का प्रचार हो, परमात्म-शांति के गीत दूसरों के दिल में गुँजाये जायें वह महालक्ष्मी है। हम लोग इसीलिए महालक्ष्मी की पूजा करते हैं कि हमारे घर में जो धन आये, वह महालक्ष्मी ही आये। महालक्ष्मी नारायण से मिलाने का काम करेगी। जो नारायण के सहित लक्ष्मी है, वह कुमार्ग में नहीं जाने देती। वह धन कुमार्ग में नहीं ले जायेगा, सन्मार्ग में ले जायेगा। धन में 64 दोष हैं और 16 गुण हैं, ऐसा वसिष्ठजी महाराज बोलते हैं।

सनातन धर्म ऐसा नहीं मानता है कि धनवानों को ईश्वर का द्वार प्राप्त नहीं होता, धनवान ईश्वर को नहीं पा सकते। अपने शास्त्रों के ये दृष्टान्त हैं कि जनक राजा राज्य करते थे, मिथिला नरेश थे और आत्मसाक्षात्कारी थे। भगवान राम जिनके घर में प्रकट हुए, वे दशरथ राजा राज्य करते थे, धनवान थे ही। जो सत्कर्मों में लक्ष्मी को लुटाता है, खुले हाथ पवित्र कार्यों में लगाता है उसकी लक्ष्मी कई पीढ़ियों तक बनी रहती है, जैसे राजा दशरथ, जनक आदि के जीवन में देखा गया। 22 पीढ़ियाँ चली जनक की, 22 जनक हो गये।

दीपावली में लक्ष्मी पूजन की प्रथा देहातों में भी है, शहरों में भी है। इस पर्व में जो व्यक्ति लक्ष्मी और तुलसी का आदर पूजन करेगा, वह धन-धान्य तथा आरोग्य पाकर सुखी रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 8, अंक 215

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