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माता-पिता व सदगुरु की महत्ता


(मातृ-पितृ पूजन दिवसः 14 फरवरी)

धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्मजी से पूछाः ʹʹपितामह ! धर्म का रास्ता बहुत बड़ा है और उसकी अनेक शाखाएँ हैं। उनमें से किस धर्म को आप सबसे प्रधान एवं विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं, जिसका अनुष्ठान करके मैं इस लोक व परलोक में भी धर्म का फल पा सकूँगा ?”

भीष्मजी ने कहाः

मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।

इह युक्तो नरो लोकान् यशश्च महदश्नुनुते।।

ʹराजन्, मुझे तो माता-पिता तथा गुरुओं की पूजा ही अधिक महत्त्व की वस्तु जान पड़ती है। इस लोक में इस पुण्यकार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान यश और श्रेष्ठ लोक पाता है।ʹ

(महाभारत, शांति पर्वः 108.3)

दस श्रोत्रियों (वेदवेत्ताओं) से बढ़कर है आचार्य (कुलगुरु), दस आचार्यों से बड़ा है उपाध्याय (विद्यागुरु), दस उपाध्यायों से अधिक महत्त्व रखता है पिता और दस पिताओं से भी अधिक गौरव है माता का। माता का गौरव तो सारी पृथ्वी से बढ़कर है। मगर आत्मदेव का उपदेश देने वाले गुरु क दर्जा माता-पिता से बढ़कर है। माता-पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देते हैं किंतु आत्मतत्त्व का उपदेश देने वाले आचार्य द्वारा जो जन्म होता है, वह दिव्य है, अजर-अमर है।

यश्चावृणोत्यवितथेन कर्मणा।

ऋतं ब्रुवन्नमृतं सम्प्रयच्छन्।

तं वै मन्येत पितरं मातरं च

तस्मै न द्रुह्येत कृतमस्य जानन्।।

ʹजो सत्यकर्म (और यथार्थ उपदेश) के द्वारा पुत्र या शिष्य को कवच की भाँति ढँक लेते हैं, सत्यस्वरूप वेद का उपदेश देते हैं और असत्य की रोकथाम करते हैं, उन गुरु को ही पिता और माता समझे और उनके उपकार को जानकर कभी उनसे द्रोह न करे।ʹ (महाभारत, शांति पर्वः 108.22)

जिस व्यवहार से शिष्य अपने गुरु को प्रसन्न कर लेता है, उसके द्वारा परब्रह्म परमात्मा की पूजा सम्पन्न होती है, इसलिए गुरु माता-पिता से भी अधिक पूजनीय हैं। गुरुओं के पूजित होने पर पितरों सहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते हैं, इसलिए गुरु परम पूजनीय हैं।

जो लोग मन, वाणी और क्रिया द्वारा गुरु, पिता व माता से द्रोह करते हैं, उऩ्हें गर्भहत्या का पाप लगता है, जगत में उनसे  बढ़कर और कोई पापी नहीं है। अतः माता, पिता और गुरु की सेवा ही मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मों का अनुसरण करके यहाँ सबका सार बताया गया है।”

(महाभारत के शांति पर्व से)

क्या अपना कल्याण चाहने वाले आज के विद्यार्थी, युवक-युवतियाँ भीष्मजी के ये शास्त्र-सम्मत वचन बार-बार विचारकर अपना कल्याण नहीं करेंगे !ʹ ʹगर्भहत्यारों की कतार में आना है या श्रेष्ठ पुरुष बनना है ?ʹ – ऐसा अपने-आपसे पूछा करो। अब भी समय है, चेत जाओ ! समय है भैया !….. सावधान !!…

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

ऐसे सदगुरुओं का सान्निध्य पाकर अनंत पद में प्रवेश करो तो आपकी सात पीढ़ियाँ भी तर जायेंगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 11, अंक 229

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माता पिता परम आदरणीय


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

एक पिता अपने छोटे से पुत्र को गोद में लिए बैठा था। कहीं से उड़कर एक कौआ उनके सामने छज्जे पर बैठ गया। पुत्र ने पिता से पूछाः

“पापा ! यह क्या है ?”

पिताः “कौआ है।”

पुत्र ने फिर पूछाः “यह क्या है?”

पिता ने कहाः “कौआ है।”

पुत्र बार-बार पूछताः “पापा ! यह क्या है ?”

पिता स्नेह से बार-बार कहताः “बेटा ! यह कौआ है कौआ।”

कई वर्षों के बाद पिता बूढ़ा हो गया। एक दिन पिता चटाई पर बैठा था। घर में कोई उसके पुत्र से मिलने आया। पिता ने पूछाः “कौन आया है ?”

पुत्र ने नाम बता दिया। थोड़ी देर में कोई और आया तो पिता ने फिर पूछा। इस बार झल्लाकर पुत्र ने कहाः “आप चुपचाप पड़े क्यों नहीं रहते ! आपको कुछ करना धरना है तो नहीं, ‘कौन आया-कौन गया’ दिन भर यह टाँय-टाँय क्यों लगाये रहते हैं ?”

पिता ने लम्बी साँस खींची, हाथ से सिर पकड़ा। बड़े दुःखभरे स्वर में धीरे-धीरे कहने लगाः “मेरे एक बार पूछने पर तुम कितना क्रोध करते हो और तुम दसों बार एक ही बात पूछते थे कि यह क्या है ? मैंने कभी तुम्हें झिड़का नहीं। मैं बार बार तुम्हें बताताः बेटा कौआ है।”

बच्चो ! भूलकर भी कभी अपने माता पिता का ऐसे तिरस्कार नहीं करना चाहिए। वे तुम्हारे लिए परम आदरणीय हैं। उनका मान सम्मान करना तुम्हारा कर्तव्य है। माता-पिता ने तुम्हारे पालन-पोषण में कितने कष्ट सहे हैं। कितनी रातें माँ ने तुम्हारे लिए गीले में सोकर गुजारी हैं, और भी तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक कितने कष्ट तुम्हारे लिए सहन किये हैं, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। कितने-कितने कष्ट सहकर तुमको बड़ा किया और अब तुमको वृद्ध माता-पिता को प्यार से दो शब्द कहने में कठिनाई लगती है ! पिता को ‘पिता’ कहने में भी शर्म आती है।

अभी कुछ वर्ष पहले की बात है।

इलाहाबाद में रहकर एक किसान का बेटा वकालत की पढ़ाई कर रहा था। बेटे को शुद्ध घी, चीज़-वस्तु मिले, बेटा स्वस्थ रहे इसलिए पिता घी, गुड़, दाल-चावल आदि सीधा-सामान घर से दे जाते थे।

एक बार बेटा अपने दोस्तों के साथ कुर्सी पर बैठकर चाय-ब्रेड का नाश्ता कर रहा था। इतने में वह किसान पहुँचा। धोती फटी हुई, चमड़े के जूते, हाथ में डंडा, कमर झुकी हुई… आकर उसने गठरी उतारी। बेटे को हुआ, ‘बूढ़ा आ गया है, कहीं मेरी इज्जत न चली जाय !’ इतने में उसके मित्रों ने पूछाः “यह बूढ़ा कौन है ?”

लड़काः “He is my servant.” (यह तो मेरा नौकर है।)

लड़के ने धीरे-से कहा किंतु पिता ने सुन लिया। वृद्ध किसान ने कहाः “भाई ! मैं नौकर तो जरूर हूँ लेकिन इसका नौकर नहीं हूँ, इसकी माँ का नौकर हूँ। इसीलिए यह सामान उठाकर लाया हूँ।”

यह अंग्रेजी पढ़ाई का फल है कि अपने पिता को मित्रों के सामने ‘पिता’ कहने में शर्म आ रही है, संकोच हो रहा है ! ऐसी अंग्रजी पढ़ाई और आडम्बर की ऐसी-की-तैसी कर दो, जो तुम्हें तुम्हारी संस्कृति से दूर ले जाय !

भारत को आजाद हुए 62 साल हो गये फिर भी अंग्रेजी की गुलामी दिल-दिमाग से दूर नहीं हुई !

पिता तो आखिर पिता ही होता है चाहे किसी भी हालत में हो। प्रह्लाद को कष्ट देने वाले दैत्य हिरण्यकशिपु को भी प्रह्लाद कहता हैः “पिताश्री !” और तुम्हारे लिए तनतोड़ मेहनत करके तुम्हारा पालन-पोषण करने वाले पिता को नौकर बताने में तुम्हें शर्म नहीं आती !

भारतीय संस्कृति में तो माता-पिता को देव कहा गया हैः मातृदेवो भव, पितृदेवो भव…. उसी दिव्य संस्कृति में जन्म लेकर माता-पिता का आदर करना तो दूर रहा, उनका तिरस्कार करना, वह भी विदेशी भोगवादी सभ्यता के चंगुल में फँसकर ! यह कहाँ तक उचित है ?

भगवान गणेश माता-पिता की परिक्रमा करके ही प्रथम पूज्य हो गये। आज भी प्रत्येक धार्मिक विधि-विधान में श्रीगणेश जी का प्रथम पूजन होता है। श्रवण कुमार ने माता-पिता की सेवा में अपने कष्टों की जरा भी परवाह न की और अंत में सेवा करते हुए प्राण त्याग दिये। देवव्रत भीष्म ने पिता की खुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत पाला और विश्वप्रसिद्ध हो गये। महापुरुषों की पावन भूमि भारत में तुम्हारा भी जन्म हुआ है। स्वयं के सुखों का बलिदान देकर संतान हेतु अगणित कष्ट उठाने वाले माता-पिता पूजने योग्य हैं। उनकी सेवा करके अपने भाग्य को बनाओ। किन्हीं संत ने ठीक ही कहा हैः

जिन मात-पिता की सेवा की,

तिन तीरथ जाप कियो न कियो।

‘जो माता-पिता की सेवा करते हैं, उनके लिये किसी तीर्थयात्रा की आवश्यकता नहीं है।’

माता पिता व गुरुजनों की सेवा करने वाला और उनका आदर करने वाला स्वयं चिरआदरणीय बन जाता है। मैंने माता-पिता-गुरु की सेवा की, मुझे कितना सारा लाभ हुआ है वाणी में वर्णन नहीं कर सकता। नारायण….. नारायण…..

जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर-सम्मान नहीं करते, वे जीवन में अपने लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते। इसके विपरीत जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर करते हैं, वे ही जीवन में महान बनते हैं और अपने माता-पिता व देश का नाम रोशन करते हैं। लेकिन जो माता-पिता अथवा मित्र ईश्वर के रास्ते जाने से रोकते हैं, उनकी वह बात मानना कोई जरूरी नहीं।

जाके प्रिय न राम-बैदेही।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम,

जद्यपि परम स्नेही।।

(विनय पत्रिका)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 15, 16 अंक 206

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