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गहनों का भी गहन – समर्थ रामदास जी


( समर्थ रामदास जी नवमीः 25 फरवरी 2022 )

विश्व में सैंकड़ों भाषाएँ एवं अनेक आध्यात्मिक ग्रंथ हैं । उन सब ग्रंथों का तथा मुख्यतः वेदांत का गहन अर्थ एक ही है, वह है आत्मज्ञान ।

जो पुराणों से नहीं जाना जाता, जिसका वर्णन करते-करते थक गये वही गुरुकृपा से अब मैं इसी क्षण बतलाता हूँ ।

संस्कृत ग्रंथों में क्या है वह मैंने नहीं देखा और मराठी ग्रंथों में मेरी कुछ गति नहीं है परंतु मेरे हृदय में कृपामूर्ति सद्गुरु स्वामी आ विराजे हैं इसलिए अब मुझे संस्कृत या प्राकृत ग्रंथों की कोई आवश्यकता नहीं है ।

वेदाभ्यास या सद्ग्रंथों के श्रवण का उद्योग या इस प्रकार का कोई प्रयत्न किये बिना ही केवल सद्गुरुकृपा से यह अमृतमय प्रसाद मुझे प्राप्त हुआ है ।

मराठी भाषा के सब ग्रंथों से संस्कृत ग्रंथ श्रेष्ठ हैं, संस्कृत ग्रंथों में भी वेदांत सर्वश्रेष्ठ है । जिसमें वेदों का रहस्य प्रकट हुआ है उस वेदांत से बढ़कर श्रेष्ठ और कुछ नहीं है ।

अस्तु, ऐसा जो वेदांत है उसका भी चरितार्थ जो अत्यंत गहन परमार्थ है वह अब सुनो । अरे ! गहनों का भी गहन है सद्गुरु वचन, यह तुम जान लो । सद्गुरु-वचनों से अवश्य समाधान मिलता है ।

सद्गुरु-वचन ही वेदांत हैं, सद्गुरु-वचन ही सिद्धांत हैं और सद्गुरु-वचन ही प्रत्यक्ष आत्मानुभव हैं । जो अत्यंत गहन हैं वे मेरे स्वामी के वचन हैं, जिनसे मुझे परम शांति मिली है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2022, पृष्ठ संख्या 26 अंक 350

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सत्शिष्य को सीख


जगत में सर्वाधिक पाप काटने और आध्यात्मिक तौर पर ऊँचा उठाने वाला कोई साधन है तो वह है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की डाँट, मार व मर्मभेदी शब्द । शिष्यों के विशेष पापों की सफाई के लिए अथवा सद्गुरु द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने के लिए दी जाने वाली डाँट-मार के पीछे शिष्य की गलती निमित्तमात्र होती है । मूल कारण तो सर्वत्र व्याप्त गुरुतत्त्व द्वारा बनाया गया माहौल होता है ।

जब भी किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु द्वारा किसी शिष्य को दी जाने वाली डाँट-मार अथवा मर्मभेदी शब्दों से शिष्य को मृत्युतुल्य कष्ट हो और सद्गुरु का सान्निध्य छोड़कर घऱ भाग जाने के विचार आयें तो उसे भागना नहीं चाहिए लेकिन समझना चाहिए कि इस मनस्ताप से अपने कई जन्मों के पाप भस्म हो रहे हैं ।

सच्चे सद्गुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे, सपनों को तोड़ेंगे । अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे । वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर । तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेंगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे । अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे । तुम पत्थर न रह जाओ इसीलिए तो तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, भ्रांतियों के जाल को काटना है । तुम्हें नये जन्म के लिए नौ माह का गर्भवास और प्रसव-पीड़ा तो सहनी पड़ेगी न ! बीज से वृक्ष बनने के लिए बीज के पिछले रूप को तो सड़ना-गलना पड़ेगा न ! शिष्य के लिए सद्गुरु की कृपापूर्ण क्रिया एक शल्यक्रिया के समान है । सद्गुरु के चरणों में रहना है तो एक बात मत भूलनाः चोट लगेगी । छाती फट जायेगी गुरु के शब्द बाणों से । खून भी बहेगा । घाव भी होंगे । पीड़ा भी होगी । उस पीड़ा से लाखों जन्मों की पीड़ा मिटती है । पीडोद्भवा सिद्धयः । सिद्धियाँ पीड़ा से प्राप्त होती हैं । जो हमारे आत्मा के आत्म हैं, जो सब कुछ हैं उऩ्हीं की प्राप्तिरूप सिद्धि मिलेगी । …..लेकिन भैया ! याद रखनाः अपने बिना किसी स्वार्थ के अपनी शल्यक्रिया द्वारा शिष्यों को दुश्मन की तरह दिखने  वाले साहसी महापुरुष कभी-कभी आते हैं इस धरा पर । उन्हीं के द्वारा लोगों का कल्याण होता है बड़ी भारी संख्या में । कई जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होने प भाग्य से अगर इतने करुणावान महापुरुष मिल जायें तो हे मित्र ! प्राण जायें तो जायें पर भागना मत ।

कबीर जी कहते हैं-

शीश दिये सद्गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान ।

अतः कायरता मत दिखाना । भागना मत । भगोड़े मत हो जाना । अन्यथा तो क्या होगा कि पुनः पुनः आना पड़ेगा । पूछोगेः

“कहाँ ?” ….तो जवाब हैः यहीं…. इस धरा पर घोड़ा गधा, कुत्ता, वृक्षादि बनकर… पता नहीं क्या-क्या बनकर आना पड़ेगा । अब तुम्हीं निर्णय कर लो ।

बहुत से साधकों को सद्गुरु के सान्निध्य में तब तक रहना अच्छा लगता है जब तक  वे प्रेम देते हैं । परन्तु जब वे उन्के उत्थानार्थ सद्गुरु उनका तिरस्कार करते हैं, फटकारते हैं, उनका देहाध्यास तोड़ने के लिए उन्हें विभिन्न कसौटियों में कसते हैं तब साधक कहता हैः “मैं सद्गुरु के सान्निध्य में रहना तो चाहता हूँ पर क्या करूँ ? बड़ी परेशानी है । इतना कठोर नियंत्रण !”

भैया ! घबरा मत । एक तेरे लिए सद्गुरु अपने नियम नहीं बदलेंगे । उन्हें लाखों का कल्याण करना है । उनकी लड़ाई तेरे से नहीं, तेरी मलिन कल्पनाओं से है । तेरे मन को, तेरे अहंकार को मिटाना है, तेरे मन के ऊपर गाज गिरानी है… तभी तो तू ब्रह्मस्वरूप में जागेगा । तेरे अहं का अस्तित्व मिटेगा तभी तो तेरा कल्याण होगा ।

अभी तो मन तुझे दगा दे रहा है । मन के द्वारा माँगी जाने वाली यह स्वतन्त्रता तो आत्मज्ञान में । आत्मज्ञान के रास्ते जल्दी आगे बढ़ाने के लिए ही सद्गुरु साधक को कंचन की तरह तपाना शुरु करते हैं परंतु साधक में यदि विवेक जागृत न हो तो उसका मन उसे ऐसे खड्डे में पटकता है कि जहाँ से उठने में उसे वर्षों नहीं, जन्मों लग जाते हैं । फिर तो वह…

घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।

याद रखोः जब भी तुम्हें सद्गुरु की गढ़ाई का सामना करना पड़े, अपनी दिनचर्या को झोंक लो, अपनी गलतियों को निहार लो । निश्चित ही तुमसे कोई गलती हुई है, कोई पाप हुआ है आगे-पीछे अथवा कोई पकड़ हो गयी है । तात्कालिक गलती तो निमित्तमात्र है । सद्गुरु तो तुम्हारे एक-एक पाप की सफाई करके तुम्हें आगे बढ़ाना चाहते हैं । सबके भाग्य में नहीं होती सद्गुरु की गढ़ाई । तुम भाग्यशाली हो कि सद्गुरु ने तुम्हें गढ़ने के योग्य समझा है । तुम अपनी सहनशक्ति का परिचय देते हुए उन्हें सहयोग दो और जरा सोचो कि तुमसे उन्हें कुछ पाना नहीं है, उनका किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है । केवल एवं केवल तुम्हारे कल्याण के लिए ही वे अपना ब्रह्मभाव छोड़कर ऐसा क्रोधपूर्ण बीभत्स रूप धारण करते हैं । अरे, रो ले एकान्त में बैठकर… रो ले भैया ! इतना जानकर भी सद्गुरु के प्रति तुम्हारे अंतःकरण में द्वेष उत्पन्न हो रहा है तो फट नहीं छाती तेरी ?

वैसे ऑपरेशन के समय सद्गुरु इतनी माया फैलाकर रखते हैं कि गढ़ाई से उत्पन्न विचारों का पोषण करने की शिष्य की औकात नहीं क्योंकि…. अंतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट ।

फिर भी चित्त सद्गुरु का अपमान करता है, अहंकारवश ज्यादा हठ करता है तो सद्गुरु से दूर हो सकता है । अतः हे साधक ! सावधान !

दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास ।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस ।।

स्रोतः पंचामृत पुस्तक, पृष्ठ संख्या 144-147

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गुरु आश्रय से वक्र भी वंदनीय यदि कहते कि ‘सदगुरु को कृपा करने की क्या आवश्यकता है ?


सद्गुरु को कृपा करके वक्र को वंदनीय बनाने की क्या आवश्यकता है ?’ तो भाई ! यह सद्गुरु का और ईश्वर का स्वभाव है कि वे अपने आश्रित मनुष्य के गुण और दोष का विचार नहीं करते हैं । वे अपने आश्रित जन को आश्रय देते हैं । उसकी रक्षा करते हैं । शंकर ईश्वर हैं । शंकर गुरु हैं । ईश्वर और गुरु का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने आश्रित जन के गुण-दोष का विचार नहीं करते हैं । भगवान श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण शरणागति के प्रसंग में कहा कि “भले ही विभीषण दोषी है, फिर भी हम उसको ग्रहण करते हैं क्योंकि वह हमारी शरण में आया है । कोटि विप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ।। ‘जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आऩे पर मैं उसे भी नहीं त्यागता ।’ (श्रीरामचरित. सुं.कां. 43.1) यद्यपि कोई दोषी हो तथापि शरणागत होने पर उसे अपनाना चाहिए । जब मनुष्य आश्रित हो जाता है तब उसके गुण और दोष का विचार नहीं किया जाता है । सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि । ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ।। जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है) ।” (श्रीरामचरित. सुं.कां. 43) गुरुकृपा का आश्रय लो गुरुकृपा अहैतुकी होती है, किसी आवश्यकता की पूर्ति के स्वार्थ को लेकर गुरु कृपा नहीं करते । भला गुरु को किस वस्तु व्यक्ति की आवश्यकता अपेक्षा है ? यह तो गुरु एवं ईश्वर का सहज स्वभाव है कि शरणागत होने पर वे दोषी से दोषी व्यक्ति को भी अपना लेते हैं । यदि दोषी को ग्रहण करना – अपनाना – आश्रय देना, गुरु का और ईश्वर का स्वभाव न हो तो पुण्यात्माओं के लिए तो उऩकी मानो जरूरत ही न हो, वे अपने पुण्यकर्म से पार हो जायेंगे, उनको तो गुरु की कृपा की क्या जरूरत है ? लेकिन केवल अपने पुण्यकर्मों से कोई अज्ञान-समुद्र को पार नहीं करता । उसके लिए तो गुरुकृपा की अनिवार्य आवश्यकता है । निर्दोषं ही समं ब्रह्म… केवल ब्रह्म ही निर्दोष है । गुरु साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा हैं । यदि तुम्हारी दृष्टि में एक भी निर्दोष तत्वज्ञ नहीं है तो तुम अपने जीवन में निर्दोष-निर्विकार होने की कल्पना भी मत करना । हाँ, यदि तुम अपने जीवन में महान होना चाहते हो, अवक्र होना चाहते हो तो तुम गुरुकृपा का आश्रय लो । गुरुकृपा आश्रय लेने में तुम्हारा लाभ ही लाभ है । गुरु अपने सहज स्वभावानुसार अपनी कृपा करुणा अनुग्रह से अपने आश्रित जन के समस्त दोषों को निवारण करके उसके सर्वथा निर्दोष बना देते हैं । गुरु अपने आश्रित जन को उसकी समस्त वक्रताओं से विमुक्त करके उसे अपने ही समान वंदनीय गरु बना देते हैं । यही तो गुरुकृपा आश्रय का लाभ है कि शिष्य शिष्य नहीं रहता अपितु वंदनीय गुरु हो जाता है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 345 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ