गुरुओं की आज्ञा मानने में कितना लाभ होता है ! हम डीसा में रह रहे थे, एक दिन भी नहीं रह सकें ऐसी
प्रतिकूलता थी लेकिन गुरु जी ने कहाः ″वहीं रहो ।″ तो 7 साल बिता दिये वहाँ । तो लगा कि ‘हम गुरु जी की आज्ञा मान रहे हैं ! हम गुरु जी की सेवा कर रहे हैं !…’ वास्तव में
हमने अपनी सेवा की । गुरु जी ने तो कृपा करके आज्ञा दी, हमने पाली तो हमें फायदा
हुआ । हमारे गुरु आज्ञा पालने से गुरु जी को क्या लाभ हुआ !
गुरु की सेवा अपनी ही सेवा है
गुरु के द्वार पर सेवा क्या है, अपना भाग्य सँवारना है । हम सेवा क्या कर रहे
हैं, अपना भविष्य उज्जवल कर रहे हैं । मैंने गुरुद्वार की सेवा की, अब सेवा तो
क्या की, गुरुद्वार की मैंने सेवा नहीं की, मेरी अपनी ही सेवा हो गयी । बाहर से तो
लगता था ‘मैंने बापू जी
(भगवत्पाद साँईं लीलाशाह जी ) के आश्रम की सेवा की या बापू जी की आज्ञा मानी ।’ पर गुरुदेव का क्या इसमें भला हुआ, मेरा ही भला
हुआ । मैं गुरुदेव का क्या भला कर सकता हूँ ! गुरुदेव की आज्ञा मानकर मैंने अपना ही भला कर लिया ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा । जो मोक्ष कठिन है वह गुरुकृपा के
आगे तो घर की खेती है !
मैंने गुरुदेव से कहाः ″गुरुदेव ! कुछ आज्ञा
कीजिये, सेवा का मौका दीजिये, कोई सेवा बताइये ।″
गुरुजी बोलेः ! करेगा सेवा ?″
मैंने कहाः ″हाँ ।″
″मानेगा आज्ञा ?″
″हाँ ।″
गुरुदेव थोड़ी देर शांत हो गये । मेरे मन में कल्पना आयी कि ‘यह कह देंगे, ऐसा कह देंगे… मैं कर दूँगा यह
काम ।’ लेकिन मेरी
सारी कल्पनाएँ झूठी पड़ीं । गुरु जी ने कहाः ″बस, आत्मसाक्षात्कार कर लो और दूसरों को कराना !″
मैं गुरु आज्ञा मानकर चल पड़ा तो दयालु सद्गुरु दाता ने मुझे घर दिखा दिया,
अपना अखूट आत्मखजाना दे डाला । और मैं मेरे को तो मिला और दूसरों को भी उनका वह खजाना
बँट रहा है, इतना चल पड़ा कि मैं 10 जन्म में भी नहीं कर पाऊँ इतना गुरु आज्ञा से
हो गया, हो रहा है ।
इन शास्त्र-वचनों में सब आ जाता है
गुरु का वचन कितना काम करता है हम सोच नहीं सकते ! गुरु आज्ञा मानने से या गुरु के दैवी कार्य में ईमानदारी
से लगने में जो लाभ होता है वह राग-द्वेष करके एक-दूसरे की टाँग खींच के आगे आने
वालों को पता ही नहीं चलता । तो
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।
यह शास्त्र का वचन तो इतना-सा है पर इसमें कुछ बाकी रहता ही नहीं, सब कुछ आ
जाता है । मैंने तो आत्मज्ञान की साधना गुरुजी ने जो बतायी वही की, दूसरी साधना
छोड़ दी । योगवासिष्ठ गुरु जी पढ़ते थे, पढ़वाते थे, सुनते थे, सुनवाते थे । वह
परम्परा अब भी चल रही है अपने आश्रमों में । अपने आश्रम का इष्टग्रंथ योगवासिष्ठ
ही है और वह सभी आश्रमों में है । योगवासिष्ठ बार-बार पढ़े, ॐकार का जप करे और सद्गुरु
के वचन माने तो शीघ्र कल्याण हो जाय ।
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः… मैं पहले काली को मानता था फिर फलाने देवता को
मानता था किंतु जब गुरु जी मिल गये तो सारे चित्र हटा दिये, केवल मेरे गुरुदेव का
श्रीचित्र रखता था ।
गुरु मिले कि नहीं मिले, यह कैसे जानें ?
गुरु हमको मिले कि नहीं मिले, यह कैसे जानें ? गुरु जी मिले हैं, सामने दर्शन दे रहे हैं, बात कर रहे हैं
लेकिन वे मिले हैं इसका पूरा फायदा हमको मिला है कि नहीं मिला है ? पूरा फायदा कब मिलता है पता है ?
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हर्ष-शोक व्यापे नहीं, राग-द्वेष व्यापे नहीं, तब गुरु अपने आप ।।
गुरु के मिलन से बीते हुए का शोक नहीं रहेगा, मोह नष्ट हो जायेगा, किसी कर्म
का संताप नहीं आयेगा, किसी व्यक्ति, वस्तु स्थिति का हर्ष-शोक, राग-द्वेष व्यापेगा
नहीं… फिर तो गुरु अपने-आप ! अपना आत्मा और
गुरु एक हो गये । तरंग पानी हो गयी, पानी तरंग हो गया… शिष्य गुरु हो गया,
गुरु-शिष्य एक हो गये । यह गुरु का मिलन होता है । गुरु शिष्य का ऐसा मिलन तो
आत्मसाक्षात्कार है, ब्राह्मी स्थिति है !
गुरुकृपा का मापदंड क्या है ?
भगवान की, सद्गुरु की कृपा हो रही है कि नहीं हो रही है इसका मापदंड क्या है ? हम भगवान के रास्ते सजग हैं कि फिसल रहे हैं यह
कैसे पता चले ?
श्रीरामचरितमानस में आता हैः
जानिअ तबहिं जीव जग जागा ।
जब विषय विलास बिरागा ।।
‘जगत में जीव को
जागा हुआ तभी जानना चाहिए जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाय ।’ ( श्री रामचरित. अयो. कां. 92.2 )
जब भगवान में, अंतरात्मा में, शांति में, आनंद में, सत्कर्म में प्रीति हो जाय
और विषय विकार, विलासों और गंदी आदतों वैराग्य हो जाय तब समझो कि अब हम जागने के
रास्ते आये हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 20, 21 अंक 354
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